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Updated: 05 मार्च, 2017 07:02 PM
सुशील कुमार
सुशील कुमार
 
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संक्षेप में कहें तो विशाल भारद्वाज की रंगून की समस्या उसकी विशालता या विस्तार में ही है: एक विशाल पृष्ठभूमि (वह भी दूसरा विश्व युद्ध), एक विशाल स्क्रिप्ट जिसमें मुहद्ब्रबत (वह भी त्रिकोणीय अगर सिर्फ इंसान की देखें लेकिन फिल्म में देशप्रेम भी उतना ही गर्म है), इंसानी द्वंद्व (चाहे वह प्रेम के पैशन का बेकाबू भाव और पूर्व प्रेम का कमिटमेंट), युद्ध के विषय (जापानी युद्ध बंदी के साथ कैसा व्यवहार) और फिल्म का विशाल पैमाने पर फिल्माना (चाहे फिल्म का लोकेशन शूटिंग करना हो या फिल्म की सिनेमैटोग्राफी, जिसमें एरियल शॉट्स हो या फिर ‘फिश आइ’—वाइड ऐंगल—शॉट्स) या फिर स्क्रिप्ट का इतना विशाल कैनवास जिसमें युद्ध और प्रेम जैसे दो भावों को समसामयिक दिखाना. खासकर जब इन दोनों के आंतिरक और बाहरी भावों को दर्शाना पड़े तो मुश्किल यह है कि दोनों में से कौन सा बड़ा है.

इस फिल्म के आखिरी फ्रेम तक यह द्वंद्व जारी रहता है जब सैफ पलटी मारकर वह सब नकार देते हैं जो उन्होंने पूरी फिल्म में किया है. फिल्म की विशालता से ही उसकी अविश्वसनीयता पैदा होती है और इसी वजह से दर्शक इस फिल्म से जुड़ा हुआ महसूस नहीं करता और सिनेमा हॉल से निराश होकर निकलता है.

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लेकिन इसमें विशाल भारद्वाज को दोषी नहीं मान सकते क्योंकि जब भी आप युद्ध और प्रेम की पृष्ठभूमि लेंगे सिने कैनवास बड़ा हो ही जाता है. इन दोनों विषयों को मिलाकर पेश करना सबके बस की बात नहीं है. इस श्रेणी की सर्वश्रेष्ठ फिल्में डॉन्न्टर जिवागो या फिर कुछ वर्ष पहले बनी द इंग्लिश पेशेंट देखें तो एहसास होगा कि कितनी खूबसूरती से कहानी गढ़ी गई है, जिनमें विशाल पृष्ठभूमि से लेकर लंबे समय और विशाल प्लॉट का चित्रण किया गया है.

प्रेम और युद्ध ऐसे विषय हैं जिन्होंने बड़े-बड़े निर्देशकों को लुभाया है. विशाल भारद्वाज ने प्रयास अच्छा किया है लेकिन प्रदर्शन में चूक गए. वैसे, यह फिल्म बॉक्वबे वेलवेट से तुलना लायक है क्योंकि उस तरह की यथार्थ प्रभावित और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में प्रेम और अहिंसा का चित्रण भारत में कम ही चला है. बॉलीवुड में प्रेम और युद्ध की पृष्ठभूमि वाली शायद सबसे सफल फिल्म हम दोनों है.

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सामान्य दर्शक के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के घुमावों को याद रखना या समझ पाना मुश्किल है. उसके लिए दोस्त और दुश्मन (जापानी और अंग्रेज) के रवैये को समझना मुश्किल है. आखिर सबको इतिहास याद नहीं रहता. युवा पीढ़ी इतनी पेचीदगी नहीं समझती और आजकल वही फिल्में चलती हैं जो युवा पीढ़ी को अपील करती हैं.

वे सुभाष चंद्र बोस को तो हीरो मानेंगे लेकिन आजाद हिंद फौज का जापानियों के साथ साठगांठ समझना उनके लिए मुश्किल है. खासकर तब जब उन्होंने यह पढ़ा हो कि ब्रिटिश भारत ने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के साथ था और कई भारतीय जवानों ने जान गंवाई थी. जहां आम आदमी देश के राष्ट्रपति का नाम भी नहीं बता पाते उनसे इस फिल्म की बहुस्तरीय स्टोरीलाइन को पकड़ पाने की उम्मीद करना जायज नहीं है. फिल्म में आइएन की तलवार पाकर सशन्न्त महसूस करना भी उनको समझ नहीं आता.

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कंगना रनौट का रोल निडर नादिया से प्रभावित है लेकिन फिल्म में एक दो शॉट्स में उनके हाथ में हंटर और घोड़े की सवारी के अलावा कुछ खास नहीं है. संगीत भी फिल्म की ही तरह अभूतपूर्व प्रयास की तरह है. गानों में पश्चिमी बीट्स और साउंड का मिश्रण जरूर है पर वे कोई छाप नहीं छोड़ते. गुलजार और विशाल संगीत में प्रयोग के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस फिल्म के गाने कम दिनों तक ही याद रहेंगे- याद कीजिए चप्पा चप्पा चरखा चले ने कितनी धूम मचाई थी.

फिल्म में कुछ घटनाओं को दिखाना संदेहपूण है. जैसे क्या भारत में भी द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फिल्मी सितारे फौज के मनोरंजन के लिए जाते थे? मॢलन डायट्रिख के बारे में तो सुना था लेकिन अंग्रेजों के जमाने में इसका प्रचलन थोड़ा अविश्वसनीय लगता है. इसी तरह न्न्या तब कांधे पर रखकर दागे जाने वाले हथियार आ चुके थे. वैसे यह सब इतना महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि यह किसी सच्ची घटना पर आधारित फिल्म तो है नहीं.

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फिल्म की सिनेमैटोग्राफी काबिले तारीफ है क्योंकि अरुणाचल प्रदेश की प्राकृतिक सौंदर्य को काफी खूबसूरती से कैप्चर किया गया है. सीपिया टोन ऐतिहासिक फील क्रिएट करता है. वैसे, इस फिल्म में कुछ खास नयापन नहीं है—वही प्रेम त्रिकोण का द्वंद्व, वही बाहरी और भीतरी दुश्मन, वही गोली-बारूद और फायङ्क्षरग, वही आखिरी दृश्य में जिसमें पात्र का निर्णय झूठा है.

इस फिल्म की कमजोरी शायद यही दर्ज होगी कि त्रिकोण में घटनाएं तो हैं पर स्क्रीन पर किसी भी जगह वह पैशन नहीं दिखता जो आप कैसाद्ब्रलांका, डॉन्न्टर जिवागो, इंग्लिश पेशेंट, फ्रॉम हेयर टु इटॢनटी, पर्ल हार्बर या हनोवर स्ट्रीट में दखते हैं और जो विश्वसनीय भी लगता है. यदी फिल्मों में युद्ध के साथ प्रेम एक जानी-पहचानी सीमाओं में दर्शाया जाता है—याद करें हकीकत या बोर्डर. फिल्म रंगून में ऐसा भी नहीं हो सका.

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फिल्म की आर्ट डेकोरेशन और कोरियोग्राफी बढिय़ा है. कंगना की नृत्य भंगिमाएं अच्छी हैं. कॉस्ट्यूम डेकोरेशन भी ठीक है. अगर बारीकी से देखें तो कहना पड़ेगा कि विशाल ने बहुत मेहनत की पर फिल्म की स्टोरीलाइन और इंसान से प्रेम-देश प्रेम और फिर प्रत्याशित क्लाइमेक्स के मामले में गच्चा खा गए. यह फिल्म इंस्टीट्यूट में केस स्टडी बन सकती है, जहां यह बताया जाएगा कि किस तरह किसी फिल्म में सब रंग डालकर भी उसे सतरंगी या इंद्रधनुषी बनाना कैसे मुश्किल होता है.

फिल्म खूबसूरत है पर आज के दौर में फिल्म क्राक्रट की खूबसूरती के कम ही लोग कायल हैं. फिल्म के डायलॉग भी हल्के ही हैं. सैफ के एक-दो डायलॉग को छोडक़र कोई भी याद रहने लायक नहीं है. अदाकारी के मामले में तीनों पात्रों (सैफ, शाहिद और कंगना) में से किसी ने ऐसा काम नहीं किया है जो यादगार रहे. इनके उलट जापानी और अंग्रेज जनरलों का किरदार असली लगता है.

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फिल्म में स्पेशल इफेक्ट के जरिए सैफ के एक हाथ को कटा हुआ दिखाया जाता है, जो कुछ हद तक सही लगता है. कुछ साल पहले हॉलीवुड की एक फिल्म में हिरोइन को इसी तरह तरह दिखा गया था, जिसकी खूब चर्चा हुई थी. वह फिल्म थी रस्ट ऐंड बोन जिसमें मैरियन कोटिलार्ट थीं.

संक्षेप में रंगून बढिय़ा कोशिश है क्योंकि ऐसी फिल्में भारत में बनती नहीं हैं, खासकर स्केल और कंसेप्चुअलाइजेशन के मामले में. हां, यह फिल्म विभिन्न तत्वों के सफल सक्विमश्रण के अभाव में विफल हो गई.

लेखक

सुशील कुमार सुशील कुमार

लेखक फिल्म विश्लेषक, खेल प्रेमी, गोल्फर और वरिष्ठ आइएएस अधिकारी हैं

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