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Updated: 13 मई, 2022 06:20 PM
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किच्चा सुदीप और अजय देवगन (Kichcha Sudeep vs Ajay Devgn) के बीच भाषाई विवाद पर बात करने के लिए मैं अपना निजी अनुभव सुनाना चाहूंगा. करीब एक दशक पहले मैं महाराष्ट्र के एक बड़े मीडिया हाउस में बतौर पत्रकार अपनी सेवाएं दे रहा था. समूह का मराठी, हिंदी और अंग्रेजी में भी अखबार निकलता है. मैं हिंदी सेवा में था और कुछ महीनों के लिए उत्तर महाराष्ट्र में रहा. वहां का एडिशन नया-नया शुरू हुआ था और नॉर्थ महाराष्ट्र के तीन बड़े जिलों तक पहुंचता था. तीनों जिले लगभग सीमावर्ती थे. एक तरफ गुजरात और दूसरी तरफ मध्यप्रदेश. यहां हिंदी का खूब असर था. असर इस तरह कि ठेठ मराठी को भी हिंदी समझने या टूटी फूटी भाषा बोलने में दिक्कत नहीं थी. क्षेत्रीय ध्वनि दोष और व्याकरण की गलतियों को छोड़ दिया जाए तो स्थानीय पढ़ा-लिखा मराठी समाज हर लिहाज से हिंदी का इस्तेमाल करने में सक्षम था. मैंने पाया कि भारत के गैर हिंदी ठेठ इलाकों में भी महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब के रूप में तीन राज्य ऐसे हैं जहां हिंदी को समझना या समझाना किसी भी तरह चुनौती की बात नहीं. लेकिन यही चीज दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ लागू नहीं की जा सकती. एक दायरे में वहां हिंदी को लेकर मुश्किलें हैं.

उत्तर महाराष्ट्र में ज्यादातर विस्थापित समुदाय राजस्थानी और सिंधी है. इस समाज में हिंदी या तो निजी पेशेवर भाषा के रूप में है या एक सहज संपर्क भाषा की तरह. हालांकि मराठी के इस्तेमाल को लेकर भी उसके हाथ पूरी तरह से खुले हैं और वह उसके व्यवहार को लेकर एक आम मराठी की तरह ही सहज है. मैं उत्तर महाराष्ट्र के लगभग सभी इलाकों में घूम चुका था. यहां तक कि नंदुरबार के उन आदिवासी इलाकों में भी जो बहुत दुर्गम और दूर दराज के माने जाते हैं. यहां के सामान्य इलाकों में गैर हिंदी भाषी ग्रामीण या कम पढ़े लिखे समूहों के साथ जब मैं बातचीत करता था तो वे पहली नजर में मुझे मुसलमान समझ लेते थे. मैंने जब भी इस पहचान की वजह जानना चाहा, उन्होंने मुस्कुराकर बताया- मेरी बोली से वे ऐसा समझते हैं. ध्यान रहे मैं नॉर्थ महाराष्ट्र की बात कर रहा, मुंबई की नहीं, जहां राजनीतिक वजहों से हिंदी को लेकर एक दूसरा व्यवहार है. यहां हिंदी को यूपी-बिहार से और उसके पिछड़े-गंवारपने से जोड़ा जाता है.

kichcha-sudeep-ajay-_042822053118.jpgअजय देवगन.

महाराष्ट्र पहुंचा उत्तर का समुदाय और मुसलामन हिंदी अखबार पढ़ते हैं. मराठी भी पढ़ते हैं. एक तो ज्यादातर मुसलमान उर्दू स्क्रिप्ट को लेकर सहज तैयार नहीं हैं. भले ही मौलाना उर्दू, अरबी-फारसी पढ़ाने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं. दूसरा- मुसलमानों को मुंबई से उर्दू अखबार एक या दो दिन बाद मिलते हैं. इंटरनेट से पहले के युग में सूचना के प्रसार, उसकी चुनौतियां और जरूरतों को समझा जा सकता है. महाराष्ट्र में सर्कुलेशन की तैयारियां मुस्लिम समाज के मद्देनजर करते थे हम लोग. मैं वहां जिस भाषा का इस्तेमाल करता था- प्राय: महाराष्ट्र का मुस्लिम समुदाय भी आपसी व्यवहार में लगभग उसी भाषा का इस्तेमाल करता था. जबकि उसकी मूल भाषा मराठी होनी चाहिए. वहां का ठेठ गैर मुस्लिम मराठी समाज यह समझ नहीं पाता था कि बोलने वाले हिंदी की बजाय उर्दू या हिन्दुस्तानी का इस्तेमाल करते हैं.

हिंदी पर जब भी बात होती है इस एक महत्वपूर्ण 'सांस्कृतिक पक्ष' को दरकिनार कर दिया जाता है. कभी-कभी मुझे लगता है कि भाषाओं में प्रतिद्वंद्विता के बहाने विरोध करने वाले भी इसी सांस्कृतिक भावना से ग्रस्त होते हैं. खासकर दक्षिण में. असल में वे इसे शायद शुद्ध रूप से विदेशी भाषा के रूप में ही देखते हैं. आक्रमणकारी भाषा. किच्चा सुदीप की प्रतिक्रिया उचित है. उन्होंने एक सांस्कृतिक भावना से अपने विचार का प्रगटीकरण किया. और अनजाने में ही करते हैं. क्योंकि इसमें एक तरह से शत्रुता या घृणा का भाव होता है. अजय देवगन का जवाब भी गलत नहीं कहा जा सकता. उन्होंने भी उसी सांस्कृतिक फर्क को समझे बिना अपनी भाषा को सिर्फ डिफेंड करना चाहा जो असल में उनकी भी भाषा नहीं है.

मेरा अनुभव हैदराबाद का नहीं है. मगर तमाम संदर्भों को पढ़ते रहने और देखने की वजह से हैदराबाद का भी माहौल- मैं वैसे ही पता हूं जैसे उत्तर महाराष्ट्र में था. हो सकता है कि यह कर्नाटक के उन इलाकों में भी वैसे ही रहा हो जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है. अभी ना भी सही, लेकिन बंटवारे तक तो वहां के समाज में इस तरह की भावना होने की गुंजाइश मान लेना चाहिए. इसे मैं अपने एक दूसरे अनुभव से समझाना चाहूंगा. महाराष्ट्र में रहने से तीन या चार साल पहले भारतीय भाषा संस्थान के वर्कशॉप में शामिल होने के लिए एक सप्ताह मैसूर में था. दशक भर पहले तक मुझ जैसे एक आम उत्तर भारतीय के लिए मैसूर की स्मृतियां वहां के चंडी मंदिर, दक्षिण का काशी या श्री रंगपट्टनम मंदिर की बजाय टीपू सुल्तान, हाथियों और शुद्ध चंदन से तैयार होती थीं. हम टीपू सुल्तान को उस तरह देखते थे जैसे उन्हें संजय खान के सीरियल द सोर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान में दिखाया गया था या फिर इतिहास की किताबों में एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी के रूप में वो ब्रिटिशर्स से संघर्ष करने वाले और सर्वोच्च बलिदान देने वाले नायक के रूप में उभर कर आते हैं. इतिहास ने उनके बारे में ऐसा ही दस्तावेजीकरण किया है. मैं वहां जाने के बाद हैरान हुआ और तब मैंने इस पर लिखने की कोशिश भी की थी.

दक्षिण उत्तर की तरह नहीं देखता, वह अपनी तरह देखता है जो उसका अपना सच है

असल में इतिहास में जिस तरह टीपू सुल्तान का दस्तावेजीकरण हुआ है मैसूर और उसके आसपास के स्थानीय समाज में वह उसके ठीक उलट नजर आता है. आप उसे वाट्सऐप यूनिवर्सिटी का ज्ञान बता खारिज कर आगे बढ़ सकते हैं- लेकिन वर्षों से चलती आ रही श्रुति परंपरा बहुत वैज्ञानिक ना होने के बावजूद दस्तावेजीकरण की गुंजाइश समेटे रहती हैं. और वहां की श्रुति परंपरा टीपू सुल्तान की रामनामी अंगूठी पहनने या दो मंदिर-मठों के लिए उसकी दानवीरता को रणनीतिक रूप से देखता है. इतिहास, इसी चीज के सहारे टीपू को हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र के रूप में प्रस्तुत करता है. या राजशाही दौर के दमन को सियासी जरूरत भर बताकर बढ़ जाता है. वह उस दौर के सांस्कृतिक टकराव को महसूस ही नहीं पाता. उसे सिद्ध करना लगभग असंभव होता है. और श्रुति को वह काल्पनिक कविता कहानी किस्सा बताकर खारिज कर देता है. जबकि वह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आगे बढ़ती रहती है. खैर ये दूसरे विषय की ओर जाना होगा. मूल बात है कि वहां श्रुति परंपरा में वर्षों से टीपू और उसके पिता हैदर अली की वह छवियां भी हैं जो उन्हें सत्ता का लालसी, धोखेबाज, धर्मांध और भादेभावपूर्ण साबित करती हैं. उनके पास तर्क तो है. हम आप नहीं मानते हैं तो यह हमारी विवशता है. उनकी नहीं जो ऐसा सोचते हैं. सिर्फ प्रामाणिकता साबित ना कर पाने की मजबूरी में उन्हें खारिज नहीं कर सकते हैं.

टीपू सुल्तान से स्थानीय गैरमुस्लिमों की घृणा को ऐसे भी समझ लें कि वहां का एक बड़ा समाज अंग्रेजों से टीपू सुल्तान की हार को राष्ट्रीय शर्म के तौर पर नहीं लेता, बल्कि एक तरह से नए युग की शुरुआत मानता है. बंकिम चंद्र का आनंद मठ पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि असल में उसमें भी बिल्कुल इसी भावना का विस्तार है जो बताता है कि भारत के पारंपरिक और सांस्कृतिक ढाँचे को सही मायने में बड़ा नुकसान कौन और क्यों पहुंचा सकता है. मालूम होना चाहिए कि कर्नाटक के कई इलाकों में अग्रेजों और फ्रेंच के दखल से पहले अफगानी पठानों या दूसरी विदेशी इस्लामिक जातियों ने किसी ना किसी तरीके राजनीतिक वर्चस्व बनाया. वहां कुछ पिछले दरवाजे से घुसे थे. ज्यादातर हमलावर नहीं थे. कुछ प्रोफेशनल लड़ाके नौकरी करने आए थे और कुछ व्यापार. उत्तर की बजाय दक्षिण अपेक्षाकृत शांत था. पश्चिम के आने से पहले तो ज्यादातर लड़ाइयां उत्तर के मोर्चों पर लड़ी गई हैं. इतिहास भी साबित करता है. दक्षिण संस्कृतिक जड़े मजबूत हो रही थीं और राज्यों में परस्पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता उस तरह नहीं थी जैसे इधर सिंध से बंगाल तक हमेशा घमासान मचा रहता था. आक्रांताओं की वजह से अशांति बनी ही रहती थी. लूटे जाने की मजबूरी और ढहाए जाने का दर्द इधर के समाज में ज्यादा रहा. उसके तमाम व्यवहारों में आज भी वह असर पारंपरिक तौर पर दिखता है.

दक्षिण, हिंदी को आक्रांता की भाषा के रूप में ही लेता है. विदेशी आक्रांता की भाषा के रूप में और इस सच्चाई को आप जब तक चाहें खारिज कर सकते हैं. भला इस सच्चाई से इनकार कैसे किया जा सकता है कि हिंदी- भारत में किसी भी क्षेत्र की मातृभाषा नहीं है. कड़वा सच यही है. हमारी मातृभाषा ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मागधी, मिथिला, अंगिका, बुंदेली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, गुरुमुखी, हरियाणवी, पहाड़ी, मराठी, मारवाड़ी आदि आदि हो सकती है- ऐतिहासिक रूप से हिंदी तो नहीं है. हिंदी का जो क्षेत्र बताया जाता है क्या वह वहां भी मातृभाषा के रूप में दिखती है. एक ही इलाके में कई पीढ़ियों का शहरी परिवार हिंदी को चाहे तो मातृभाषा बता सकता है, लेकिन उसी शहर के दायरे के बाहर वह बिल्कुल अलग होने लगती है.

आज जो हिंदी है उससे पहले उर्दू थी. उर्दू का अस्तित्व कैसे बना. कुछ इस तरह जैसे किसी नवजात को एक विदेशी दंपति ने दूध पिलाकर अपनी जरूरत के हिसाब से पाला-पोसा और बड़ा किया. ऐसा इसलिए कि तत्कालीन जरूरतों में उसे सैकड़ों बोलियों का व्यवहार बरतना मुश्किल था. उसे एक संपर्क और सहज बोली चाहिए थी. और एक आधिकारिक भाषा जो शासकों के सबसे ज्यादा करीब थी. उसने फारसी के साथ उर्दू का प्रयोग किया. लेकिन सिर्फ इस अर्थ भर से वह विदेशी नहीं हो सकता. जैसे कोई विदेशी बच्चे को कितना भी अपने परिवेश में ढाल ले, उसके नाक-नक्श, रूप रंग, कद-काठी को विदेशी रंग में नहीं रंग जा सकता. उसमें देसीपन रहेगा ही.

हिंदी और अंग्रेजी से पहले अलग भाषा भाषी भारतीय किस भाषा में करता था आपसी संवाद

ब्रिटिश इंडिया के दौर में एक बार फिर भाषा तैयार करने की जरूरत पड़ी थी. यह जरूरत इसलिए बनी क्योंकि दक्षिण से उत्तर तक मातृभाषा के प्रति समर्पण बना रहने की वजह से भारतीय बोलियों का अस्तित्व टस से मस नहीं हुआ. इसी अस्तित्व में हिन्दुस्तानी या उर्दू भी समाहित हुई. हमें अपने कवियों, गायकों का शुक्रगुजार होना चाहिए. ब्रिटिश इंडिया में आधुनिक खड़ी हिंदी के रूप में मजबूत होते नजर आती है. संपर्क भाषा यही है. भाषाओं की श्रेष्ठता के विवाद को ऐसे भी गलत सिद्ध किया जा सकता है कि जब आधुनिक अंग्रेजी, हिंदी, हिंदुस्तानी या उर्दू नहीं थी तब कोई तमिल किसी अवधी या ब्रज भाषी से कैसे संपर्क करता होगा? तब संपर्क की भाषा क्या रही होगी? वह जरूर संस्कृत रही होगी. काफी हद तक आज भी संभव है एक शुद्ध मलयाली एक शुद्ध भोजपुरी से इस भाषा में सहज विचारों का व्यवहार कर सकता है. ऐसे एक दो लोग तो हर तरफ मिल जाएंगे.आधुनिक दौर में उसी संस्कृत की जगह अंग्रेजी और हिंदी लेती जा रही है. इसका मतलब यह नहीं हुआ कि दूसरी भारतीय भाषाएं ख़त्म होती जा रही हैं. यह सच्चाई है और इसे साबित करने की जरूरत नहीं वह साक्षात नजर आती है.

भारतीय भाषा परिवार में संस्कृत ही सभी भारतीय भाषाओं (अधिकांश अब बोलियां भर हैं) की जननी है. हालांकि तमिल के कुछ भाषाविदों का मानना है कि संस्कृत का भी जन्म तमिल से हुआ. हो सकता है. यह विभेदीकरण भाषा विज्ञान का सवाल है. बावजूद संस्कृत ही एकमात्र ऐसी प्राचीन भाषा के रूप में हमारे बीच मौजूद है जिसे कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और कच्छ से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक शायद आज भी समझने वाले लोग मौजूद हैं. तमिल दावों से हटकर देखें तो- वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत बना, लौकिक से पाली, पाली से प्राकृत और प्राकृत से कई अपभ्रंस. अवहट और आधुनिक हिंदी बोलियों तक विकास गति का सूत्र साथ-साथ दिखता है. दक्षिण में भी धारा इसी प्रक्रिया के तहत शायद आगे बढ़ी हो. तमिल प्राचीनता के सवाल पर अड़ा है. उत्तर की राजनीतिक स्थिति इस तरह रही कि गुजराती, मराठी, पंजाबी, मलयाली या दूसरी भाषाओं की तरह उत्तर की बोलियाँ बलवान नहीं बन पाईं. चूंकि वह मातृभाषा थी और भक्तिकाल कवियों की वजह से जनमानस से जबरदस्त संपर्क रहा, इस वजह से बिना राजनीतिक प्रश्रय के वजूद बरकरार है. लेकिन ब्रिटिश इंडिया के बाद उस पर हिंदी के रूप में आरोपित संपर्क भाषा हावी हो चुकी है. हम सहज हैं तो बोलियों को कहीं पीछे छोड़कर उसके साथ ही आगे बढ़ने का निर्णय कर चुके हैं. दक्षिण काफी हद तक उस दौर से नहीं गुजरा और आज भी बचा हुआ है.

किच्चा सुदीप अजय देवगन किसे व्यर्थ चीज पर बहस कर रहे उन्हें नहीं मालूम

आजादी के बाद से अब तक हिंदी ने सीमाएं भी लांघी हैं और नए जमाने की जरूरत के हिसाब से इसे दूसरे भाषा-भाषी क्षेत्रों में स्वीकार भी किया जा रहा है. पूर्वोत्तर और दक्षिणी राज्यों के जबरदस्त आंकड़े हैं. हालांकि वह प्रयोजनमूलक है और भाषाई और राजनीतिक जरूरतों की वजह से है. किच्चा सुदीप और अजय देवगन क्या कह रहे हैं- दोनों को असल में इसके पीछे की प्रक्रियागत, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चीजें शायद ही पता हों. लेकिन दोनों की प्रतिक्रियाएं किसी दुर्भावनावश नहीं दिखती हैं. फिल्मों का परस्पर भाषाओं में डब होकर आना उनकी व्यावसायिक और राजनीतिक जरूरतों का हिस्सा है. उनकी सफलता और असफलता के कारण दूसरे हैं और हां वे भी सांस्कृतिक ही हैं.

और जब दक्षिणी नेता कहते हैं हिंदी कभी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती तो आप उनकी भावनाओं को समझिए कि वे अपनी कई विरासत बदलने को बिल्कुल भी तैयार नहीं. भले उससे उनका कितना भी नुकसान हो जाए. और चाहे जो कीमत चुकानी पड़े. शायद समझौता नहीं करने के इसी अड़ियल रुख ने उन्हें आज तक बचा के रखा है और दूसरी तरफ स्वतंत्र भारत में कई प्राचीन बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. बांग्लादेश इसी अड़ियलपने की वजह से पाकिस्तान से अलग हुआ और बचा रह गया. मेरी मातृभाषा अवधी है. मेरा दुर्भाग्य है कि मैं इसे अपने गांव, घर और समाज में ही इस्तेमाल कर पाता हूं. और तमाम वजहों से आज एक आरोपित भाषा में पठन-पाठन और रोजगार कर रहा हूं. लेकिन मुझे जरूरत पड़ी तो मराठी भी सीखा, इस लायक कि उसे समझ सकता हूं और थोड़ा बहुत अपने विचार भी जाहिर कर सकता हूं. जब मैं हिंदी की प्राचीन बोलियों को देखता हूं तो कई बार दक्षिण का अपनी भाषा के प्रति समर्पण देखकर खुशी होती है. हम मानते हैं कि हिंदी उर्दू हमारी ही है, लेकिन हमारे गांवों और समाजों में आख़िरी व्यक्ति जब तक बोलियों का इस्तेमाल करेगा, हमारी मातृभाषा हिंदी तो नहीं हो सकती. लेकिन व्यापक सहजता इसकी विशेषता है. कोई भाषा छोटी नहीं है लेकिन इतनी विशाल क्षमता किसी और में नहीं, यह सच्चाई मानने में भला क्या परेशानी है. 

आख़िरी बात यह कि रभाषा की जिद क्या करना. भाषा तो अपनी प्रकृति में पहाड़ी नदी की तरह होती है. उसे जहां मिलना होता है जाकर मिल जाती है. ना तो उसे कोई थाम सकता है, ना उसके रास्ते मोड़ सकता. जबरदस्ती का मतलब नदी से तबाही. दुनिया जिस तरह बन रही है उसमें स्वाभाविक है कि सक्षम भाषा खुद ब खुद राष्ट्रभाषा का दर्जा कमा लेगी. भले उसके लिए कोई राजनीतिक दल पैरवी ना करे और संसद क़ानून ना बनाए. भाषाओं की श्रेष्ठता के लिए किच्चा सुदीप और अजय देवगन को लड़ने की जरूरत नहीं है. यह तो हिंदी की सहजता ही है जो दक्षिण और उत्तर में सिनेमा के जरिए एक पुल बन रहा है.

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