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Updated: 11 जनवरी, 2016 05:25 PM
अल्‍पयू सिंह
अल्‍पयू सिंह
  @alpyu.singh
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फिल्म वज़ीर के एक सीन में व्हील चेयर पर बैठे अमिताभ बच्चन फरहान अख्तर से कहते हैं कि ''क्या आप ओंकारनाथ स्पेशल को समझ गए? फिल्म वज़ीर के साथ असल दिक्कत ये है ही कि फिल्म के सेकेंड हाफ में जो रहस्य खुलने वाले होते हैं उसे दर्शक अपने दिमाग में पहले ही समझ चुका होता है और थ्रिल फुस्स हो जाता है. दिक्कत और भी है जैसे कि एक व्हील चेयर पर बैठा आदमी विस्फोटक कैसे जुटा लेता है? क्या किसी सत्तानशीं मंत्री का फोन टैप करना इतना आसान है? वगैरह-वगैरह, लेकिन फिर भी फिल्म देखने लायक है, उन बेहद कम सीन्स के लिए जिनमें पंडितजी(अमिताभ बच्चन) और दानिश(फरहान) की दोस्ती को गाढ़ा होते दिखाया जाता है.

शराब की छोटी-छोटी प्यालियों के दौर के बीच उनकी दोस्ती का सुरुर भी धीरे-धीरे ही चढ़ता है लेकिन मज़ा देता है. कहानी में झोल होने के बावजूद टाइट प्रेजेंनटेशन के लिए फिल्म के तकनीकी पक्ष को दाद देनी होगी कि उन्होंने मामला संभाल लिया और 103 मिनट की फिल्म को उबाऊ होने से बचा लिया. संगीत और सिनेमैटोग्राफी भी खूबसूरत है कहीं-कहीं डिटेलिंग भी चौंका देती है लेकिन फिल्म की यूएसपी है मानव कौल. आतंकी से राजनेता के किरदार में उन्होंने कम स्क्रीन स्पेस मिलने के बावजूद जान डाल दी. होठों पर मुस्कुराहट और आंखों में डराने वाले भाव एक साथ लाकर उन्होंने दिखा दिया कि वो इससे कहीं जटिल भूमिकाएं निभाने की कुव्वत रखते हैं. नील नितिन और जॉन अब्राहम यू हीं ज़ाया हो गए हैं. फरहान अख्तर ने खुद को रिपीट ही किया है. अदिति राव तो औसत से भी कम ही दिखीं.

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फिल्म शतरंज की बाज़ी पर है. असल ज़िंदगी में शतरंज के जरिए कैसे बाज़ी पलटी जाती है, प्यादा कब वजीर बन जाए और बादशाह को मात दे दे, जैसी बातों पर कुछ ज़रुरत से ज्यादा ही बात की गई है जिससे लगता है कि शतरंज का ये खेल ओवरप्ले हो गया है. दिल्ली से कश्मीर तक आतंकवाद का जो सिरा छेड़ा गया वो बेवजह ही था या तो उसे और एक्सप्लोर किया जाता या फिर रहने ही दिया जाता. छू कर चले जाने का कोई मतलब बनता नहीं.

एक और खास बात जो दिल को छूती है वो ये कि कहानी भले ही दोस्ती और बदले की है, लेकिन बेटी की मौत पर बिन आंसू वाली पथराई आंखों से उसके शव को ताकते अमिताभ दर्द की उस कड़ी को जोड़ देते हैं जिसके एक सिरे से असल जिंदगी में वो लोग जुड़े हैं जिन्होंने अपनों को खोया है और इंसाफ के इंतजार में हैं. संदर्भ और घटनाएं भले ही अलग हो लेकिन मजबूरी और इंसाफ की आस लिए निर्भया की मां, नीलम कृष्णमूर्ति और नीलम कटारा की आंखों में भी सूनापन दिखेगा जिसे पर्दे पर अमिताभ दिखाने में कामयाब होते हैं. इंसाफ की राह में इंतज़ार करती निर्भया की मां ने कुछ दिन पहले कहा था कि कोई ये क्यों नहीं सोचता कि मैं जिंदा क्यों हूं और फिल्म में अमिताभ का ये डायलॉग कि इस आखिरी बाज़ी के अलावा मेरे पास कोई रास्ता नहीं था में साम्य तो दिखेगा. विवशता और इंतज़ार की कड़ी रियल और रील लाइफ के बीच की लाइन को ब्लर्र कर देती है.

लेखक

अल्‍पयू सिंह अल्‍पयू सिंह @alpyu.singh

लेखक आज तक न्यूज चैनल में एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर हैं.

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