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Updated: 27 जनवरी, 2017 05:00 PM
सुशील कुमार
सुशील कुमार
 
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वाकई वर्षों बाद बिल्कुल कमर्शियल बॉलीवुड फिल्म फैक्टरी ने एक अर्थपूर्ण और यथार्थ से भरी फिल्म (दंगल) बनाई है. इस फिल्म ने विमल राय, वी. शांताराम, श्याम बेनेगल, गोविंद निहालनी जैसे सिने जगत के लिजेंड निर्देशकों की याद ताजा कर दी. इनकी निर्देशित फिल्में सामाजिक वास्तविकता (सोशल रिलिज्म) से प्रेरित या सामाजिक संदेशों से परिपूर्ण होती थी. इसने समझाया है कि मनोरंजन और मैसेज (संदेश) का समिश्रण ही अच्छी फिल्म की पराकाष्ठा है. और ये हर किसी के लिए लागू होती है. चाहे हॉलीवुड सिनेमा हो, बॉलीवुड या फिर रीजनल सिनेमा.

दंगल एक लुप्त होती सामांतवादी व्यवस्था और उस ग्रामीण समाज की जेंडर भूमिकाओं पर एक खास टिप्पणी है. खासकर हरियाणवी ग्रामीण समाज पर जहां ज्यादातर ग्रामीण लड़कियों के पालन पोषण और सामाजिक भूमिकाएं अभी भी उनके जेंडर से निर्धारित होती है. देश की आजादी के बाद कानून ने सामंतवाद को समाप्त तो कर दिया लेकिन ग्रामीण समाज को बदलने में समय लगता है. इसी कारण महिलाओं की भूमिकाएं बदलने में मुश्किलें हो रही हैं. लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई और जल्दी शादी कर देने की प्रथा का प्रचलन अवश्य कम हुआ पर खत्म नहीं हुआ. कुछ समय पहले शिक्षा के मामले में लड़कियों की संख्या लड़कों से कहीं कम थी.

हरियाणा में ‘बालिका भ्रूण हत्या’ जैसी सामाजिक कुरीति ने लड़कियों का प्रतिकूल अनुपात कर दिया था. सरकारी पॉलिसी ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ उन कुरीतियों को समाप्त करने की ही कोशिशों का हिस्सा हैं. दंगल भी उन्हीं महिलाओं के मंगलमय भविष्य बनाने की सुंदर कोशिश है. भूलिए नहीं 'तारे जमीन पर' भी एक सामाजिक इश्यू पर प्यारा और करुणापूर्ण टिप्पणी थी.

इस फिल्म का कमाल यही है कि लड़कियों की सामाजिक भूमिका के परिवर्तन का मैसेज भी प्रचलित पितृ प्रधान समाज के दायरे में ही रख कर दिया गया है. सामाजिक चेतना को जगाने का संदेश एक मनोरंजक फिल्म के माध्यम से दिया गया है. इसमें आमिर खान की बुद्धि की प्रशंसा करनी पड़ेगी. क्योंकि उन्होंने यही 'तारे जमीन पर' में भी किया था. इस फिल्म में विशेष बच्चों की विशेष करामातों और शिक्षा प्रणाली की नासमझी पर एक अचूक टिप्पणी की गई थी.

दंगल में भी इसी प्रकार लड़कियों के ग्रामीण समाज में भूमिका परिवर्तन की जरूरत पर जोर है. इसी विषय के समान एक बिल्कुल ही विपरीत फिल्म 'किस्सा' (2013) है. (इरफान खान) जिसमें पंजाब में बालिका भ्रूण हत्या की पुरानी प्रथा पर बड़ा ही मार्मिक चिंतन और चरित्र चित्रण दर्शाया था पर यह फिल्म फेस्टिवल तक ही सीमित रही. जिस समाज के लिए सामाजिक संदेश था, वहां नहीं पहुंची.

dangal_650_012717031321.jpgदंगल तो करना होगा

दंगल फिल्म का सामाजिक मैसेज सिर्फ एक मिनट का है. इस मैसेज को एक नई दुल्हन के मुंह से नॉन प्रीस्किप्टिव अंदाज में दिया गया है. बाकी फिल्म तो हरियाणा के साधारण, निम्न मध्य वर्गीय परिवार की इच्छाओं और उसकी पीछे के संघर्षों की मार्मिक कहानी भर है. इस कहानी को भारत के ग्रामीण, छोटे शहर और बड़े शहर वाले सभी परिवार सहजता से आइडेंटीफाइ कर सकते हैं. यही आमिर और राजू हीरानी की खासियत है. इनकी लगान, 3 इडियट्स, पीके, मुन्नाभाई सीरीज इसलिए रिकॉर्ड ब्रेकिंग बॉक्स ऑफिस हिट्स हुई. ये फिल्में भारत और इंडिया में बराबर चली.

दंगल एक खत्म होते सामंतवाद के संदर्भ में बदलते समाज की औरतों की बदलती भूमिकाओं की जरूरत पर जोर देती है. महावीर सिंह फोगाट का साहसिक निर्णय कि उनकी बेटियों को एक पुरुष प्रधान समाज और कुश्ती के खेल में उतारना एक क्रांतिकारी कदम ही रहा होगा. क्योंकि वहां का समाज औरतों को परदे में रखता है और कुश्ती को मर्दानगी का खेल ही मानता है.

निर्देशक के कुछ निर्णय काबिले तारीफ हैं: ग्रामीण बोली का प्रयोग फिल्म को ग्रामीण भारत से जोड़ता है. लुधियाना के गांव में लोकेशन. ये छोटे ग्रामीण जीवन के वातावरण को दिखाता है (आधे अधूरे बने घर और दीवारें, खुली नालियां, कम वोल्टेज की वजह से कम रोशनी वाले घर). फिल्म के कॉस्ट्यूम डिजाइनर्स ने भी सेट की साज-सज्जा को वास्तविक रूप दिया. चाहे वे आमिर के धूमिल कपड़े हों या गमछा. फिल्म में कोई उपदेशात्मक भाषणबाजी भी नहीं है.

आमिर की भाषा और काया परिवर्तन हॉलीवुड के किसी भी सर्वोतम कलाकार या किरदार से कम नहीं है. चाहे वे डि नीरो हों (रेजिंग बुल, केप फियर), या फिर क्रिश्चियन बेल (फाइटर), मैथ्यू मैकनफी (डलास बायर्स क्‍लब), मिकी रूरके (रेस्लर) या फिर गाइलेनहाल (साउथपॉ). आमिर की यह भूमिका फिल्म इतिहास या फिल्म स्कूलों में बहुत वर्षों तक चर्चित रहेगी. फिल्म इंडस्ट्री में इसे एक मानक माना जाएगा.

सलमान की सुल्तान भी कुश्ती पर आधारित थी. लेकिन उस फिल्म में स्टार और पात्र अलग-अलग दिखे. लडकी का रोल एक पारंपरिक लडक़ी का ही था. चाहे वह प्रेमिका हो या विवाहित स्त्री के रूप में. दंगल में स्टार और कैरेक्टर का समीकरण और संभाव पर्याय सटीक हैं. इसकी वजह से कैरेक्टर और एक्टर के बीच का अंतर बताना असंभव हो जाता है. इसे देखकर 'जलवा' के नसीरुद्दीन शाह की याद ताजा हो जाती है. जलवा में नसीर ने अपनी काया बदलने पर काफी काम किया था. इसी तरह तीन दशक पहले मिथुन चक्रवर्ती ने बॉक्‍सर में और हाल में रणवीर हुड्डा ने सरबजीत के लिए कायांतरण किया था. ये ट्रेंड बॉलीवुड के अंतरराष्ट्रीय गंभीर सिनेमा के अच्छे सूचक हैं. ऐसी फिल्में सिर्फ भारतीय प्रवासियों के दायरे तक ही सीमित नहीं रहेंगी.

बॉलीवुड ने दशकों से दंगल और कुश्तियों पर फिल्म बनाई है. लेकिन अभी तक इस दुनिया के अपराजित दंगल के बादशाह गामा पहलवान पर कोई फिल्म नहीं बनाई. लगता है कि गामा के पाकिस्तान चले जाने से उनकी कहानी को स्क्रिप्ट पर उतारना मुश्किल हो रहा होगा. गौरतलब है कि उनकी नातिन कुलसुम पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पत्नी हैं.

निर्देशन फिल्म के क्लोज अप शॉट्स में आमिर की भृकुटियों को, दोनों बेटियों के भय और भाव-भंगिमाओं को, साक्षी तंवर की विभाजित भावनाओं को बखूबी उतारा है. साउंड शायद आमिर की पसंदीदा है क्योंकि होली और लगान फिल्म और इस फिल्म में इसका इस्तेमाल हुआ है. भाषा और मैनरिज्म पर भी आमिर का जोर है जैसा रंगीला और मंगल पांडे में दिखा था.

दंगल भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए एक अच्छा संकेत है क्योंकि आज की पीढ़ी शायद भूलती जा रही है कि ज्यादातर फिल्मों ने ही भारत को एक सूत्र में पिरोया था. कुछ समय से कमर्शियल कारणों से फिल्में शहरों/मल्टीप्लेक्स और एनआरआइ के लिए बननी शुरू हो गई हैं. इसके कारण ग्रामीणों के मनोरंजन का साधन सीमित सा होता जा रहा था. दंगल इसको तोड़ेगी और इसलिए इस फिल्म की कामयाबी की सीमा अंदाजा लगाना असंभव है. दंगल महिला मंडल का मंगल ही करेगी!

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लेखक

सुशील कुमार सुशील कुमार

लेखक फिल्म विश्लेषक, खेल प्रेमी, गोल्फर और वरिष्ठ आइएएस अधिकारी हैं

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