चालीस डिग्री पर तो चैतू का विकास भी झुलस गया
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को भले ही एक विकसित शहर माना जाए मगर अब भी इस शहर में ऐसा बहुत कुछ है जिसे देखकर इसे एक पिछड़ा हुआ शहर ही कहा जाएगा.
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एक तो मई-जून की गर्मी ऊपर से ग़रीबी यानी एक तो करेला ऊपर से नीमचढ़ा... हिंदी फिल्मों से लेकर रियल लाइफ में एक ग़रीब ही तो है जिसे सबने दबाया है.
लखनऊ झुलझ रहा है. दाल में नमक जितना शरीर पर गोश्त लिए हड्डियों का ढांचा बना चैतू रोज़ की तरह झुमकी के सूती ब्लाउज़ से रिक्शा पोछ रहा है. आस वही कि शायद कोई सवारी मिल जाये. वो क्या है न जब से शहर में इलेक्ट्रिक रिक्शा आया है, लोगों ने साइकिल रिक्शे पर बैठना लगभग कम कर दिया है. ख़ैर, इतने में 'भारी भरकम शरीर वाली' दो औरतें एक 7 साला बच्ची के साथ आईं और पूछने लगी 'ऐ भइया, रकाबगंज चलोगे?' चैतू कभी उनको देखता, कभी अपने शरीर को, कभी रिक्शे को. तभी उसकी आंखों के सामने अपने बूढ़े बाप की तस्वीर आ गई जो सीतापुर के बिसवां में एक टूटी चारपाई पर लेटा टीबी की बीमारी से खांस रहा है. महिला ने फिर आवाज़ दी 'ऐ भइया, रकाबगंज चलोगे'. चैतू की चेतना लौटी. वो हड़बड़ाकर बोल पड़ा 'हां-हां माता जी क्यों नहीं.'
कहने को लखनऊ एक विकसित शहर है मगर अवलोकन करें तो अब भी यहां मूलभूत चीजों का आभाव है
ढक...चूं और धड़ाम... रिक्शे ने इन आवाजों के साथ दोनों औरतों का वेलकम किया. बच्ची को लेकर वे रिक्शे पर बैठ गयीं. डालीगंज से रकाबगंज दूर है. ऊपर से ये मई का सूरज! अब औरतों ने रिक्शे के डोलने के साथ ही अपना सियासी राग शुरू किया. एक ने अखिलेश यादव की उपलब्धियों पर चर्चा कर दूसरी औरत से कहा,"पता है बहन, नेता जी के लड़के के आने के बाद से ही प्रदेश का इतना विकास हुआ था. भगवान ने चाहा तो निश्चित ही प्रदेश से एक दिन ग़रीबी दूर होगी." दूसरी औरत भी कम न थी. उसने भी बता दिया कि ये तुम्हारे अखिलेश नहीं हमारे मोदी जी कर रहे हैं. अरे पैसा तो सेंटर से ही आ रहा है न. कुछ देर राजनीति और इधर उधर की बातचीत करने के बाद दोनों औरतें चुप हो गयीं.
इधर चैतू अपने पूरे दम से रिक्शा खींच रहा था. मेहनत इतनी कि राह चलता आदमी भी उसके गर्दन और हाथ की फड़कती नसें, लाल हुई आंखें, पसीने से चमकता जिस्म देख ले. रकाबगंज नज़दीक था, बीते कई दिनों से आधा पेट खाना खाने वाला चैतू हनुमान जी को याद कर अपने को ऊर्जा देने के लिये मन ही मन बस यही बुदबुदा रहा था.
"श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥
राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा...।।।"
कुछ समय बाद चैतू रकाबगंज चौराहे पर था सामने एक इलेक्ट्रिक रिक्शा खड़ा था जिसका मालिक चिल्ला चिल्ला के कह रहा था "आइये आइये एक सवारी नक्खास. आइये पांच रुपए में आइये नक्खास".
बड़ी मशक्कत के बाद दोनों औरतें नीचे उतरीं और इससे पहले कि चैतू कुछ बोल पाता उनमें से एक औरत उसके हाथ में 20 रुपया रखते हुए बोलीं "जब तुम लोग रिक्शा चलाना नहीं जानते तो यहाँ शहर में आते क्यों हो". उम्मीद से कम किराया मिलने पर जब चैतू ने मुनासिब पैसे के लिए कहा तो जवाब मिला "बचपन से लखनऊ में रहते आए हैं. हमको देहाती न समझना जो तुम्हें बालिश भर की दूरी का 20 हज़ार रुपया थमा दें. पैसे लेना हो तो लो, नहीं तो यहीं नाली में फ़ेंक दो! हां नहीं तो. इतना कहते हुए महिला नक्खास जाने वाले इलेक्ट्रिक रिक्शा पर बैठ गयी और रिक्शा धूल फेंकता हुआ आगे बढ़ गया.
आज भी लखनऊ की सड़कों पर साइकिल रिक्शे चलना एक आम बात है
इधर अपने को कोसता हुआ चैतू झुमकी के सूती ब्लाउज के टुकड़े से पसीना पोछता हुआ सामने देखता है. सामने दो होर्डिंग लगी हैं. एक कमल वाली है. एक साइकिल वाली. कमल वाली नई है सायकिल वाली पुरानी है. दोनों ही में कुछ लिखा हुआ है. बगल में दो लोग मोटर साइकिल पर खड़े हैं और होर्डिंग देखते हुए कह रहे हैं... साहब देखिये "अपना लखनऊ स्मार्ट सिटी में टॉप तो पहले ही कर चुका है, मेट्रो भी चल ही रही है. आगे लखनऊ आईटी हब बनने वाला है ही. देखिएगा कुछ दिन बाद लखनऊ के रंग" "मजाल है जो अपने बच्चे कमाने के लिए, दिल्ली बैंगलोर और पुणे जाएं...
चैतू ने उन्हीं 20 रुपयों से पानी का पाउच और पार्ले जी लिया है. दुकानदार ने उसे 10 रुपए और एक टॉफ़ी पकड़ा दी है. मायूस चैतू भी नयी सवारी की तलाश में मौलवीगंज होकर अमीनाबाद वाले रास्ते पर रिक्शा लेके चल दिया है. गांव में उसे राम खेलावन काका ने बताया था "अमीनाबाद में सब बड़े घर की औरतें, बिटिया और मेहरारू ख़रीदारी करने आती हैं."
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