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Updated: 13 नवम्बर, 2017 11:49 AM
दक्षा चोपड़ा
दक्षा चोपड़ा
  @daksha.chopra
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जब कोई विषय एक से अधिक व्यक्तियों को प्रभावित करे तब केवल पक्ष-विपक्ष से काम नहीं बनता. हाल ही में हुए दो प्रकरणों – BHU और #MeToo के दौरान बहुत से लोगों के अलग-अलग विचार सामने आये. पर जितनी बातें हुयीं उन में से किसी से भी इन मुद्दों को दिशा मिल सके, ऐसा नहीं दिखा. हर व्याख्या और चर्चा दिशाहीन ही दिखी. पहले ही, संकीर्णता के चलते लोगों में जानकारी की कमी और किसी भी विषय पर संवेदनशीलता के साथ, खुलकर बात न किये जाना एक समस्या है. उस पर बहस और दिशाहीन चर्चाएँ, जो हमेशा भ्रान्तियों और उलझनों को बढ़ावा देती हैं और यही कभी समाप्त ना होने वाली बहस का मुख्य कारण रहे हैं.

बहसबाजी प्राचीन काल की सोच है जिसमें सभी अपने-अपने दृष्टिकोण को, पुनः-पुनः दोहराते हैं. इंसानी सोच असल में एक समय में एक ही तरह के दृष्टिकोण से काम करती है इसलिए ये आवश्यक है कि विषय चाहे कोई भी हो, उसे एक-एक करके, विभिन्न दृष्टिकोणों से समझे जाने पर ही सोच को एक दिशा दी जा सकती है. इस प्रकार की सोच को 'समानान्तर सोच' या 'पैरेलल थिंकिंग' के नाम से जाना जाता है.

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एडवर्ड डी बोनो, माल्टा में जन्में एक मशहूर बुद्धिजीवी, इसी 'पैरेलल थिंकिंग' को 'सिक्स थिंकिंग हैट्स' नामक टूल के ज़रिये हमें समझाते हैं. इन सिक्स हैट्स को विभिन्न विचारक दिशाएं या दृष्टिकोण कहें तो गलत नहीं होगा. सिक्स हैट्स मतलब- व्हाइट (तथ्यात्मक / फैकचुअल), रेड (भावनात्मक / इमोशनल), ग्रीन (रचनात्मक / क्रिएटिव), येलो (सकारात्मक / पॉज़िटिव), ब्लैक (समीक्षात्मक / क्रिटिकल) और ब्लू (संचालन / कंडक्ट एवं अवलोकन / ओवरव्यू) हैट. यहां इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि ये केवल चर्चा में दिये जाने वाले विचारों की दिशाएं दर्शाती हैं ना कि किसी की मानसिकता. इन्हें, रंग सांकेतिक तौर पर दिये गये हैं. सिक्स थिंकिंग हैट्स का केवल चर्चाओं के लिए ही नहीं अपितु व्यक्तिगत सोच को एक दिशा देने के लिए भी प्रयोग में लाया जाता है. सिक्स थिंकिंग हैट्स का मूल नियम है कि इसे पूरी निष्पक्षता के साथ प्रयोग किया जाये ताकि बहस की कोई जगह ना रहे.

इसी टूल का प्रयोग हम BHU और #MeToo जैसे मुद्दों को समझने के लिए कर सकते हैं. हमें सबसे पहले ये समझना होगा कि BHU और #MeToo दोनों मुद्दे देखने में अलग हैं पर उनके घटने का आधार दुर्व्यवहार करने वालों की विक्षिप्त मानसिकता है. जहां BHU की घटना में एक शिक्षा संस्थान में महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का सत्य सामने आया वहीं #MeToo के वायरल होने पर ये समझ आया कि जगह कोई भी हो, दुर्व्यवहार किसी के भी साथ, किसी के भी द्वारा किया जा सकता है. विक्षिप्त मानसिकता देश, काल, लिंग, जाति, परिस्थिति या परिवेश पर आधारित नहीं होती.

1 - ब्लू थिंकिंग कैप :  एडवर्ड डी बोनो के अनुसार किसी भी चर्चा या व्यक्तिगत सोच की नींव रखने और उसके संचालन के लिए हम सबसे पहले ब्लू थिंकिंग कैप का प्रयोग करते हैं. इसके चलते हम ये तय करते हैं कि मुद्दा क्या है? हमें किन बातों पर चर्चा करनी है या सोचना है? चर्चा या सोच का लक्ष्य क्या है? और संचालन इस बात का कि चर्चा या सोच मुद्दे से ना भटके. सिक्स थिंकिंग हैट्स का एक मूल नियम है कि चर्चा में भाग लेने वाले सभी एकसाथ, एक ही दिशा में पूरी तरह सोच लें और उसके बाद ही दिशा बदलें यही व्यक्तिगत सोच पर भी लागू होगा. यदि येलो हैट पहनकर सकारात्मक विचारों के अलावा, बीच में, कोई और बात हो तो संचालक इसे रोक सकता है. इस हैट का प्रयोग चर्चा के अंत में बिन्दुओं को कंक्लूड करने के लिए भी किया जाता है.

2 - वाइट थिंकिंग कैप : यहां सफेद रंग को आप स्पष्टता से जोड़कर देख सकते हैं. मुद्दा तय होने के बाद पूरी निष्पक्षता के साथ सभी तथ्यों को सामने रखा जाता है. यहां छोटी से छोटी बात भी मायने रखती है. BHU प्रकरण में तथ्यों की गड़बड़ी ने मुद्दे को अपनी धुरी से भटका दिया. जिसका परिणाम ये हुआ कि वो एक राजनीतिक प्रोपगेंडा के रूप में दिखाई देने लगा. BHU के प्रॉक्टर को लिखित में शिकायत की गयी थी कि महिलाओं के साथ एवं उनके समक्ष, पुरुषों द्वारा, कैंपस में अभद्र व्यवहार होता है और इसलिए उनकी सुरक्षा हेतु सी.सी.टी.वी सही रौशनी और महिला सुरक्षाकर्मी की उपलब्धि करायी जाये.

लिखित अर्ज़ी पर कोई प्रतिक्रिया ना पाकर कुछ महिला विद्यार्थियों ने आन्दोलन करना तय किया. जिस दिन आन्दोलन शुरू होना था उसके ठीक एक दिन पहले एक छात्रा के साथ कैंपस में दुर्व्यवहार हुआ. एक दिन पहले हुयी घटना, मीडिया द्वारा कुछ अप्रासंगिक आन्दोलनकारियों की वास्तविकता को उजागर करना, विभिन्न पंथों का एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करना. इन सभी कारणों से एक संजीदा लड़ाई सिर्फ तमाशा बनकर रह गयी.

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MeToo के #MeToo के रूप में एक वायरल ट्रेंड बनने के 10 साल पहले, अफ्रीका की सामाजिक कार्यकर्ता, तराना बर्क ने इसे उन निचले तबके की अश्वेत महिलाओं के लिए शुरू किया था, जो यौन शोषण, उत्पीड़न, दुराचार से पीड़ित थीं और जिन्हें शोषित होने पर दी जाने वाली बुनयादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं. इनका मूल उद्देश्य था प्रत्यक्ष रूप से शोषितों को खुलकर सामने आने के लिए प्रेरित करना, सहानुभूति से सशक्त करना, उन्हें सहारा देना और संवेदनशीलता से उन्हें ये एहसास दिलाना कि वे अकेली नहीं हैं.

इस MeToo को #MeToo बनाने के पीछे हाल ही में हुयी हॉलीवुड की एक घटना थी. अलीसा मिलानो नामक कलाकार ने वहीं के फिल्म निर्माता, हार्वी वाइन्स्टाइन द्वारा यौन उत्पीड़ित किये जाने पर इसे, ट्विटर पर घोषित करते हुए उन सभी को खुलकर सामने आने के लिए कहा जो, किसी भी तरह के यौन उत्पीड़न का शिकार हुए हों. जो तराना बर्क ने शुरू किया वो प्रत्यक्ष रूप से पीड़ितों के साथ मिलकर काम करने की बात रही, जो सही मायने में एक सामाजिक आन्दोलन बना. वहीं #MeToo अपने-अपने अनुभवों को सबके सामने लाना भर बनकर रह गया. इसका अगला चरण क्या होगा? कैसे उत्पीड़न से ग्रसित लोगों को हिम्मत मिलेगी? इस बारे में कहीं कोई बात नहीं हुयी, केवल सांकेतिक रूप से लोग एक बोली बोलते दिखाई दिये.

3 - रेड थिंकिंग हैट : इसके लाल रंग को भावनाओं से जोड़कर देखा जा सकता है. यहाँ इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई भी भावना सही है या गलत इसकी चर्चा नहीं होनी चाहिए. इस चरण का मंतव्य ही है कि मुद्दे से जुड़ी सभी भावनाएँ सामने आयें ताकि उन्हें एक दिशा दी जाये. विभिन्न चर्चाओं में भावनाओं का ही बोलबाला रहा लेकिन अंध-भावनाएँ. जब महिलाओं से हुए दुर्व्यवहार की बात चली तो सभी पुरुषों को एक ही थाली का चट्टा-बट्टा कहकर दोषी घोषित कर दिया गया.

ये जानते हुए भी कि यथार्त इससे अलग है, ऐसे दोषारोपण केवल संकीर्णता को बढ़ावा देते हैं. हमें ये समझना होगा कि भावनाएँ यदि दिशाहीन हुयीं तो विध्वंस करेंगी और यदि इन्हीं भावनाओं को दिशा दी जायेगी तो सृजन. BHU प्रकरण में जहाँ आरोप-प्रत्यारोप हुए वहीँ #MeToo के दौरान इस खेल के अलावा ये भी दबाव बहुतों पर देखा गया कि यदि आप इस मुहीम में शामिल नहीं हैं तो आप दुर्व्यवहार करने वालों के तरफदार हैं. ये बिल्कुल आवश्यक नहीं कि किसी आंदोलन का सक्रीय हिस्सा बनकर ही इसके खिलाफ कोई लड़ सकता है. लोगों ने भीड़ के दिशाहीन बहाव में व्यक्तिगत चुनाव को नहीं समझा.

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4 -  ब्लैक थिंकिंग हैट : इसके काले रंग को सतर्कता के साथ जोड़ा जा सकता है. इसके चलते मुद्दे और चर्चा से जुड़े यथार्थिक कमीयों और चेतावनियों को सामने लाया जाता है. इसके चलते मुद्दे को सूक्षमता से परखना होता है. BHU प्रकरण के दौरान एक गम्भीर विषय को राजनैतिक जामा पहनाया गया जिससे हुआ ये कि जो मूल समस्या थी उस पर विचार ना करके बाकी सभी पंथ, पार्टी, प्रदेश से जुड़ी बातों को महत्त्व देने लगे. फ़ास्ट और पेड मीडिया के ज़माने में सही, स्पष्ट और लगातार संवाद के अभाव में यह आन्दोलन अपने लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही ख़तम हो गया.

समर्थक भीड़ जुटाने के चक्कर में कुछ ऐसे लोग भी शामिल हुए जो इस आन्दोलन की आड़ में अपना फायदा निकालना चाहते थे. महिलाओं का रोष सही था लेकिन जोश में होश खो गया इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. वहीं  #MeToo की लहर का हिस्सा बनने में बुराई नहीं थी लेकिन ऐसा करके होगा क्या इसका ध्यान भी किया जाना चाहिए था, जो नदारद था. आपबीती बयान करना बुरा नहीं यदि सुनने वाला आपका हितैषी हो. लेकिन इस वर्चुअल भीड़ में कौन कैसा है आप नहीं जानते.

कई ऐसे लोग सामने आकर बडे तैश में स्वीकारने लगे कि वे #MeToo वाले लोगों को खोज-खोज कर उनकी पोस्ट पढ़कर मज़े ले रहे थे जैसे जी कोई सॉफ्ट पोर्न पढ़ रहा हो. ये तो वो लोग थे जिन्होंने सामने आकर कहा जो इन्टरनेट पर फैले डार्कनेट से जुड़े होंगे आपको उनका अंदाज़ा भी नहीं. इस ट्रेन्ड के पीछे चलते-चलते किसी का भी ध्यान इस तरफ नहीं गया कि जो आप सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं उसी के अनुसार डाटा इक्कट्ठा होगा और उस डाटा का इस्तमाल सही या गलत, किसी भी रूप में किया जा सकता है क्योंकि आपके लिखे हुए के अलावा, आप कहाँ से हैं, किस आयु वर्ग के हैं, किस संस्थान से जुड़े हैं ये सबकुछ दर्ज हो रहा होता है.

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इन तथ्यों को हम चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकते. परन्तु इनसे डरना नहीं है, सतर्क रहना है. इसके अलावा इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि वर्चुअल आन्दोलन को जब ज़मीनी हकीक़त से जुड़ेंगे तभी बदलाव ला सकेंगे. वरना अपने-अपने उपकरणों पर प्रतिकात्मक रूप से आंदोलन का हिस्सा तो सभी बन सकते हैं...पर ये सब क्यों करना है, इसके आगे का चरण क्या होगा ये भी सोचना ज़रूरी है जो कहीं दिखाई नहीं दिया .

5  - येलो थिंकिंग हैट : मुद्दे से जुड़ी सभी सकारात्मक बातों को सामने रखा जाता है. मुद्दा चाहे जो हो, हर मुद्दे में सकारात्मक पहलू होता ही है, चाहे वो दिखने में कितनी ही छोटी बात क्यूँ ना हो. BHU प्रकरण के दौरान कुछ पुरुष खुलकर इस बात को स्वीकारने लगे कि कॉलेज के वर्षों में उन्होंने भी लड़कियों पर, चाहे प्रत्यक्ष रूप से ना सही पर आपस में ही तंज कस कर और उन्हें “डिस्कस” कर “मज़े” लिए हैं. उन्होंने ये माना कि ऐसी सोच को बदला जाना चाहिए. उनकी ऐसी सोच की वजह जहाँ उन्होंने सदियों से चली आ रही संकीर्ण मानसिकता और जानकारी की कमी बताया वहीँ ये भी माना कि सही गलत का भान होने पर भी, चाहे उन्होंने स्वयं किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया परन्तु किसी को ऐसा करने से रोका भी नहीं.

बीमारी का पता हो तभी उसका उपचार किया जा सकता है. ये बात दोनों प्रकरणों के लिए सही बैठती है. #MeToo के दौरान ये बात भी सामने आयी कि किस तरह गुड टच–बैड टच के बारे में बचपन में ना सिखाये जाने पर कई लोगों को ये आभास भी नहीं हुआ कि उनके साथ जो हो रहा है वो कितना गलत है. #MeToo प्रकरण के दौरान ये बात भी लोगों ने स्वीकारनी शुरू की कि शोषण केवल पुरुषों द्वारा नहीं अपितु महिलाओं द्वारा भी किया गया है.

संवेदनशीलता की कमी, आपसी संवाद की कमी, सही जानकारी का अभाव एवं सोच में लैंगिक निष्पक्षता की कमी खुलकर सामने आयी. पर केवल कमियाँ जान लेने भर से कुछ नहीं होगा. इसके आगे के चरण अर्थात् स्त्रियों और पुरुषों दोनों को समान रूप से सही-गलत से अवगत कराने की प्रक्रिया पर सभी को मिलकर काम करना होगा. स्त्री-पुरुष होने से पहले सभी मनुष्य हैं इस बात को ध्यान में रखकर पूरी प्रक्रिया को अंजाम देना होगा.

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6 -  ग्रीन थिंकिंग हैट : इसके अंतर्गत सभी सुझावों की चर्चा होती है. रुढ़िवादी सोच से हटकर और सभी के हितों को ध्यान में रख कर नयी सोच के साथ सुझावों को सामने रखा जाता है. कहीं भी किसी भी रूप से ये नहीं दिखाई दिया कि कोई भी विक्षिप्त मानसिकता को बदलने के लिए किसी नये तरीके का सुझाव दे रहा हो. यदि आप सिर्फ “समझाने” को एक तरीका कहेंगे तो इस तरीके को सदियों से इस्तमाल किया जा रहा है और नतीजा आपके सामने है. हमें चाहिए कि विक्षिप्त मानसिकता से ग्रसित लोगों को “शिक्षा” दी जाये. हमने शिक्षा को केवल स्कूल में पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम को ही मान लिया है.

जबकि शिक्षा का सही अर्थ होता है जो ज्ञान हमें है उससे अलग कुछ नया सीखना. अब ये नया ज्ञान कानूनन सज़ा पाकर सीखा जाना है या सोच को नयी दिशा देकर, ये तो उस व्यक्ति पर निर्भर करता है जिसे शिक्षा मिलनी है. पिछले कुछ दिनों में ऐसे दो उदाहरण सामने आये जहाँ उन लोगों को दोनों तरीकों से शिक्षा दी गयी जिन्हें इसकी ज़रुरत थी.

पहले हैं मुंबई के दीपेश टैंक (आप इनका नाम गूगल पर सर्च कर ज़्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं) इन्होने निर्भय काण्ड के बाद ये मन बना लिया था कि जहाँ भी मनचलों को किसी महिला से बदतमीजी करते हुए देखेंगे तो उन्हें रोकेंगे. शुरुआत में सबूतों के अभाव में मनचले पकड़े जाने के बावजूद छूट जाया करते थे तथा उस समय पुलिस भी छेड़खानी को इतनी गंभीरता से नहीं लिया करती थी, तब इन्होने फ़ोन से विडियो रिकॉर्डिंग कर सबूत जुटाने शुरू किये और मनचलों को पकड़वाते गये.

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दीपेश ने पूर्व मुंबई पुलिस कमिश्नर ए.एन. रॉय की एक बात गाँठ बाँध ली थी कि जब आप किसी छेड़खानी को रोक रहे हें तो असल में एक संभावित बलात्कार को रोक रहे होते हैं. दीपेश ने अपनी इस मुहीम में अपने कुछ साथियों को भी जोड़ा और आधुनिक उपकरणों जैसे, कैमरा लगे हुए काले चश्मों से रिकॉर्डिंग कर अब तक 150 मनचलों को पकड़वाया है. ऐसा भी देखा गया कि केवल कानूनन सज़ा ही काफी नहीं होती खासकर उन लोगों के साथ जो खुद कुमारावस्था में होते हैं. यही है दूसरा उदाहरण. अलरिके राइन्हार्ट (आप इनका नाम गूगल पर सर्च कर ज़्यादा जानकारी प्राप्त कर सकते हैं) जो मूलतः जर्मनी से हैं, पिछले साल पन्ना, मध्यप्रदेश में जनवार महल घूम रहीं थीं, तब उन्हें नहीं पता था कि वो एक बड़े बदलाव की नींव रखने वाली हैं.

कुछ अच्छी तस्वीरें खींचने की मंशा से जब वो वहाँ के बाज़ार घूम रहीं थीं तब एक लड़का पीछे से आकर उनके हाथ को छूकर निकल गया. जब ऐसा दोबारा हुआ तो उन्होंने उसे पकड़कर पूछा कि ऐसा उसने क्यों किया. उस लड़के का जवाब अलरिके को स्तब्ध कर गया. उस लड़के ने कहा क्योंकि मैं एक मर्द हूँ. अलरिके ने जब उसे थाने ले जाना चाहा तो वो अपने दोस्त की मोटरबाइक पर भाग निकला. आधिकारिक तौर से दूसरे दिन जब अलरिके शिकायत दर्ज़ कराने थाने पहुँचीं तो लड़के के पिता, उसके दादाजी और स्कूल के शिक्षक वहाँ मौजूद थे और अपने लड़के के कृत्य पर शर्मिंदा भी थे.

किसी भी सम्मानीय परिवार के लिए ऐसी घटनाएँ पहाड़ समान होती हैं ऐसा अलरिके ने टी.वी. सीरियल्स में देखा था परन्तु उस दिन वो उसी बात की साक्षीदार बनीं. अलरिके ने इस बात को समझा कि केवल कानूनन सज़ा दिलवाने से काम नहीं बनेगा. उन्होंने उस लड़के के परिवार और वहाँ के स्कूल प्रधानाचार्य से सहयोग माँगा और एक कार्यक्रम की शुरुआत की जिसका नाम था “टुगैदर”. इस कार्यक्रम के माध्यम से बच्चों को स्थानीय शिक्षित लोगों द्वारा ये समझाया गया कि किस तरह स्त्रियों से पेश आना चाहिए. पर अलरिके वहीँ तक संतुष्ट नहीं हुयीं.

उन्होंने “जनवार कैसल प्रोजेक्ट” की शुरुआत की. जिसके अंतर्गत वहाँ के बच्चों को स्केटबोर्ड चलना सिखाया गया. इस कार्यक्रम के माध्यम से उन्होंने बच्चों को पुस्तकीय शिक्षा के अलावा एक ऐसा ज़रिया दिया जिससे वे अपने स्वभाव को पूरी तरह बदल सके. उन्होंने बच्चों की उर्जा को दिशा दी. नतीजा ये हुआ कि वहाँ सदियों से चल रहा जातीय भेदभाव भी अब सीमित होने लगा है. इन दोनों के तरीके बदलाव की नीव साबित हुए हैं और हमें ऐसे ही तरीकों की अब ज़रुरत है ना कि दिशाहीन चर्चाओं और भाषणों की.

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लेखक

दक्षा चोपड़ा दक्षा चोपड़ा @daksha.chopra

लेखिका डिजाइन रिसर्चर हैं, जिन्हें कला, साहित्य और आध्यात्म में गहन रुचि है.

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