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Updated: 15 जनवरी, 2019 08:01 PM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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हिंदुस्तान के सिपाही बेहद खास हैं. वो जवान जो अपने देश के लिए मुश्किल से मुश्किल समस्याओं के जूझ रहे हैं और बिना किसी स्वार्थ के देश के लिए लड़ रहे हैं. हिंदुस्तान के लिए जितना त्याग हमारे जवान करते हैं उतना शायद ही कोई करता हो. इन सिपाहियों की जिंदगी की बहुत सी कहानियां होती हैं जो अनसुनी रह जाती हैं. ऐसी ही एक कहानी है लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर की. ये वो जांबाज सिपाही है जिसने भारतीय सेना में ब्रिटिश दखल के ख्याल को ही रोक दिया था और अगर ये उस समय अपनी बात न कहते तो शायद भारतीय सेना में एक-आध ब्रिटिश सिपाही आ ही जाता.

लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर सन् 1902 में पैदा हुए थे. वो ठाकुर हामिर सिंह जी के इकलौते बेटे थे और अपने माता-पिता को बचपन में ही खो देने के बाद उन्हें डुंगरपुर के महारावल विजय सिंह ने पाला था. उन्हें उनके दोस्त बागी कहकर पुकारते थे. एक बेहतर आर्मी अफसर बनने की तैयारी के लिए वे इंग्लैंड के प्रतिष्ठित Sandhurst मिलिट्री कॉलेज भी गए थे. वह एक उत्कष्‍ट अफसर तो बने ही, लेकिन उनका इतिहास में एक ईमानदार और बेबाक सैन्‍य अफसर के रूप में याद किया जाता है. जिसने सेना की एक बेहद महत्‍वपूर्ण नीति को दिशा दी.

ब्रिटिश सीनियर ने किया था सैल्यूट-

नाथू सिंह राठौर 1922 में भारतीय आर्मी (उस समय ब्रिटिश आर्मी) से जुड़े थे. 1943 तक वो प्रमोट होकर ले. कर्नल की पोस्ट पर आ चुके थे. वो राजपूत रेजिमेंट से थे. जब उन्होंने अपनी बटालियन की कमांड ली तो उसे युद्ध के लिए अयोग्य साबित कर दिया गया क्योंकि बर्मा में जापानियों के हाथों उन्हें करारी हार मिली थी. पर नाथू सिंह ने कुछ महीनों के अंदर ही बाजी पलट दी. अगला इंस्पेक्शन ब्रिगेडियर जनरल को करना था जिसमें उन्हें फिट करार दे दिया गया. उसके बाद असल परीक्षा की बारी थी. मेजर जनरल 'टाइगर' कर्टिस को यकीन दिलाना था कि उनकी बटालियन सक्षम है.

कर्टिस के बारे में ये मश्हूर था कि उन्हें इम्प्रेस करना आसान नहीं है. नाथू सिंह को इस बात का सबूत देना था कि वो बेहतर हैं और उनकी बटालियन भी बेहतर है. नाथू सिंह को एक ड्रिल करनी थी. ड्रिल खत्म होने के बाद कर्टिस इतने खुश हुए कि उन्होंने नाथू सिंह को सैल्यूट किया था. ये उस समय बेहद बड़ी बात थी कि एक अंग्रेजी सीनियर अफसर एक जूनियर को इस तरह से सैल्यूट कर रहा है.

नेहरू से कहा था 'अगर आर्मी चीफ ब्रिटिश चाहिए तो पीएम भी ब्रिटिश ले आओ'

लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर की बहादुरी के किस्से पूरी फोर्स में चर्चित थे. ये वो व्यक्ति था जो किसी से नहीं डरता था और दुश्मन पर टूट पड़ता था. उस आर्मी अफसर ने देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू को भरी सभा में ऐसा जवाब दिया था कि वो कुछ कह नहीं पाए थे.

आर्मी डे, लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर, के एम करिअप्पा, जवाहर लाल नेहरूजवाहर लाल नेहरू, के एम करिअप्पा, और नाथू सिंह राठौर

भारत की स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहर लाल नहरू ने एक मीटिंग बुलाई थी जिसमें डिफेंस फोर्स के उच्च अधिकारी और कांग्रेस पार्टी के सभी बड़े नेता मौजूद थे. उस मीटिंग का मकसद था कि भारतीय आर्मी चीफ के पद पर किसी अच्छे सिपाही को रखा जाए.

नेहरू ने उस मीटिंग में कहा था कि मुझे लगता है कि किसी ब्रिटिश ऑफिसर को भारतीय आर्मी का जनरल बना देना चाहिए. हमारे पास संबंधित विषय के लिए ज्यादा अनुभव नहीं है. ऐसे में भारतीय आर्मी को लीड कैसे कर पाएंगे.

उस मीटिंग में मौजूद अधिकतर लोग इस बात के लिए मान गए, लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर नहीं माने. उन्होंने भरी सभा में नेहरू को जवाब दिया.

'पर सर, हमारे पास देश को चलाने के लिए भी कोई अनुभव नहीं है. तो क्या हमें किसी ब्रिटिश को भारत का पहला प्रधानमंत्री नहीं चुन लेना चाहिए?'

उनके इतना कहने के बाद पूरी सभा में खामोशी छा गई. किसी को नहीं पता था कि क्या कहा जाए. उनके विरोध ने और लोगों को बोलने की ताकत दी और फिर ये तय हुआ कि अब किसी भी अंग्रेज को भारतीय सेना का हिस्सा नहीं बनाया जाएगा.

ठुकरा दी थी आर्मी चीफ की पोस्ट क्योंकि...

आर्मी चीफ के तौर पर भारतीय सिपाही लेने की बात तो मान ली गई, लेकिन जब पहले डिफेंस मिनिस्टर सरदार बलदेव सिंह ने नाथू सिंह राठौर को ये पोस्ट देनी चाहिए तो उन्होंने मना कर दिया. उन्होंने कहा कि मेरे सीनियर जनरल के.एम. करिअप्पा इस पोस्ट के लिए सबसे योग्य हैं. और इस तरह के. एम. करिअप्पा देश के पहले आर्मी चीफ बने. ये दिन था 15 जनवरी 1948. और इसीलिए उसी दिन हर साल आर्मी डे मनाया जाता है.

जनरल के.एम. करिअप्पा, जिन्होंने अपने बेटे को नहीं देश को पहले रखा...

के.एम. करिअप्पा को देश का पहला आर्मी चीफ बनाने की बात कहकर नाथू सिंह राठौर ने कोई गलती नहीं की थी. करिअप्पा किस कदर देश को प्यार करते थे इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पाकिस्तानी सेना के आगे वो झुके नहीं. इंडो-पाकिस्तान जंग 1965 के दौरान करिअप्पा के बेटे एयर मार्शल केसी करिअप्पा जो उस समय स्क्वाड्रन लीडर के तौर पर थे उन्हें पाकिस्तान सेना ने जंग के कैदी के रूप में गिरफ्तार कर लिया था.

जब पाकिस्तानी मिनिस्टर ऑफ डिफेंस अयूब खान को इस बारे में पता चला तो उन्होंने करिअप्पा से बात की. दरअसल, अयूब खान भी 1945 में करिअप्पा के अंडर काम कर चुके थेय उन्होंने करिअप्पा से कहा कि उनके बेटे को बाकी जंगी कैदियों की तरह नहीं देखा जाएगा और उसके साथ बेहतर व्यवहार किया जाएगा.

तब करिअप्पा ने कहा था कि अब वो मेरा बेटा नहीं है. अब वो इस देश का बेटा है और एक सैनिक है जो अपने देश के लिए लड़ रहा है. एक सच्चा देशभक्त है वो. मैं आपको आपके इस बेहद अच्छे प्रस्ताव के लिए शुक्रिया अदा करता हूं, लेकिन मैं आपसे ये प्रार्थना करूंगा कि उसे कोई खास न समझा जाए.

ये कहानियां बताती हैं कि देश के सिपाही किस जज्बे के साथ हमेशा लड़ते रहे हैं और किस तरह के बलिदानों से देश को सींचा गया है. एक बार अपने देश की सेना पर गर्व कीजिए क्योंकि यही सेना है जिसके कारण हम चैन से सो पाते हैं.

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श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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