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Updated: 15 मई, 2017 02:31 PM
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कहते हैं जीवन और मृत्यु देने का अधिकार परमेश्वर का है लेकिन मोदी सरकार ने तो दिवंगत आत्माओं को भी काम पर लगा दिया. उन्हें ICSSR के नए चेयरमैन के चुनाव में कॉलेजियम का हिस्सा बना दिया. वो भी दसियों साल पहले जिन विद्वानों ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया ICSSR ने उनको अब तक अपने चयन परिषद में शामिल कर रखा है.

इन्हीं हास्यास्पद करतूतों से भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद यानी आईसीएसएसआर के नये अध्यक्ष का चुनाव ही नहीं बल्कि पूरी काउंसिल का अस्तित्व ही नैतिक और कानूनी विवादों के घेरे में आ गया है. क्योंकि परिषद का नया चेयरमैन चुनने में दिवंगत नामों ने भी अपनी भूमिका निभाई. काउंसिल के 244 विद्वानों के कॉलेजियम में 12 वे विद्वान भी शामिल हैं जिनका वर्षों पहले निधन हो चुका है. हैरानी और मजे की बात तो ये है कि जब कॉलेजियम का गठन किया गया और ये नाम शामिल किये गये तब भी वे विद्वान स्मृतिशेष ही थे. यानी 2014 में कॉलेजियम बनाया गया और इन विद्वानों में से कई तो 2001 में ही स्वर्ग सिधार चुके थे. इन स्वर्गीय आत्माओं में आईसीएचआर यानी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के पूर्व अध्यक्ष बी आर ग्रोवर, ए आर कुलकर्णी और आर एस शर्मा सहित नेहरू मेमोरियल के पूर्व निदेशक रविंद्र कुमार भी शामिल हैं.

ICSSRबृज बिहारी कुमार आईसीएसएसआर के नए चेयरमैन हैं

अब सबसे पहले बात करते हैं आईसीएसएसआर में नैतिक पराभव और कानून को ताक पर रखने के रवैये पर. 19 मार्च 2014 को देश में लोकसभा चुनाव कराये जाने की घोषणा हो गई. नैतिक रूप से यूपीए सरकार को इसके बाद काउंसिल में फेरबदल का कोई कदम नहीं उठाना चाहिए था.

क्योंकि दीपक नैयर कमेटी की रिपोर्ट जून 2011 में ही सरकार को मिल गई थी. जिसमे कॉलेजियम बनाने सहित परिषद में आमूलचूल परिवर्तन करने की सिदरिशें थीं. लेकिन करीब 32 महीने तक रिपोर्ट पर कुंडली मारकर बैठे रहने के बाद तब के मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने चुनावों के एलान के करीब महीना भर पहले प्रोफेसर सुखदेव थोराट को काउंसिल चेयरमैन के रूप में तीन साल के दूसरे कार्यकाल का इनाम दिया. इसके फौरन बाद अहसान तले दबे थोराट से मनचाहा किम निकलवाया. यानी सिब्बल ने चुनावों के एलान के फौरन बाद 24 मार्च 2014 को काउंसिल के 45 साल के इतिहास में मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन यानी काउंसिल के विधान में पहली बार आमूल संशोधन कर थोराट के पास भेजा दिया. काउंसिल ने भी आपातकालीन बैठक बुलाकर तीन दिनों के भीतर संशोधन को मंजूरी दे दी.

संशोधन के मुताबिक काउंसिल का नये सिरे से गठन होना लाजिमी था. लेकिन मजे की बात जिस संशोधन की आड़ में कॉलेजियम बना, सदस्य सचिव की नियुक्ति हुई और अब चेयरमैन प्रोफेसर बीबी प्रसाद की नियुक्ति भी हो गई. लेकिन अफरातफरी में मंजूर किये गये उसी संशोधन की पहली शर्त के मुताबिक भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद यानी काउंसिल का फिर से गठन ना तो सिब्बल कर पाये, ना थोराट और ना ही अब के मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर. नए अध्यक्ष का चुनाव भी पुरानी काउंसिल ही कर रही है जो संशोधन पास होने के बाद ना केवल अवैध है बल्कि अनैतिक भी.

यानी इतना बड़ा स्याह हिस्सा ना तो यूपीए सरकार को ये दिखा और ना ही अब तक की सबसे काबिल होने का दावा करने वाली इस एनडीए सरकार को. मजे की बात तो ये है कि मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और उनके सहयोगी राज्यमंत्री एम एन पांडेय का ध्यान कई बार इस ओर दिलाये जाने के बावजूद दिवंगत सदस्यों ने अपनी भूमिका सुनिश्चित करते हुए नया अध्यक्ष चुना प्रोफेसर बीबी कुमार. कायदे से तो संशोधन मंजूर हो जाने के बाद थोराट और काउंसिल के उठाये सारे फैसले, सारी नियुक्तियां ही अवैध हैं. लेकिन मोदी सरकार में भी सब कुछ बाकायदा चलता रहा.

नैतिक पराभव का ये आश्चर्य परिषद में पहली बार नहीं हुआ है. ऐसा लगता है कि मोदी सरकार भी यूपीए की मनमानी करने की परंपरा को ही आगे बढ़ा रही है. अब इतिहास के पन्ने पलटें तो 19 मार्च 2014 को लोकसभा चुनावों की घोषणा हो गई थी. इसके बाद नैतिक रूप से यूपीए सरकार को किसी भी तरह का नया फेरबदल या नई नियुक्तियों का नैतिक अधिकार नहीं रह गया था. लेकिन अनैतिक किन्तु सुनियोजित ढंग से काउंसिल के स्ट्रक्चर और कार्यप्रणाली में सिरे से बदलाव मंजूर भी हो गया.

नये संशोधन के मुताबिक काउंसिल का नये सिरे से गठन तो नहीं हुआ लेकिन पुरानी काउंसिल ने कॉलेजियम सिस्टम मान लिया और 244 विद्वानों को कॉलेजियम में शामिल कर लिया. इनमें से सात विद्वान तो 2001 से 2013 के बीच ही स्वर्ग सिधार चुके थे. यानी जब काउंसिल अनैतिक तो उसकी बनाई कॉलेजियम कैसे नैतिक और संविधान सम्मत होती. लेकिन सरकार को ये नहीं दिखा.

अब बात करें काउंसिल की. अनैतिक और अवैध काउंसिल ने मेंबर सेक्रेटरी की भी नियुक्ति कर दी. प्रोफेसर वी के मलहोत्रा सदस्य सचिव बनाये गये. नये अध्यक्ष का चुनाव भी 2017 में हो गया. प्रोफेसर बीबी कुमार इस पद पर आसीन हो गये. इनका चुनाव होते होते कॉलेजियम के दिवंगत सदस्यों की संख्या सात से 12 तक पहुंच गई. ऐसा नहीं है कि इनके स्वर्ग सिधारने का भान किसी को नहीं था. लेकिन आंखें बंद हों तो दुनिया में अंधेरगर्दी ही लगती है.

नये अध्यक्ष के लिए 110 नामांकन आये. तब भी काउंसिल की निगाह कॉलेजियम के दिवंगत सदस्यों पर नहीं पड़ी. काउंसिल के 27 विद्वान सदस्यों को भी इस बारे में पता नहीं चला जबकि दो दिवंगत विद्वान तो खुद आईसीएसएसआर के पूर्व चेयरमैन रह चुके हैं.

इसके बाद नंबर केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री और मंत्रालय का. मोदी सरकार बनी तो 2014 में पदभार ग्रहण करते ही स्मृति ईरानी ने एलान किया था कि पिछली सरकार के अंतिम दौर में हुए तमाम गैरकानूनी फैसलों और कदमों की समीक्षा की जाएगी. संकेत साफ था कि काउंसिल का फिर से गठन होगा. वो आईं और चली भी गईं लेकिन काउंसिल की किस्मत में बदलाव लिखा ही नहीं था. फिर आये प्रकाश जावड़ेकर. लेकिन अनैतिकता का अंधेरा बना रहा. इसी अंधेरे में कई विद्वानों ने उनकी आंखों में उंगली डालकर सचाई दिखाने की कोशिश भी की. लेकिन कुछ नहीं दिखा. ईमेल और निजी तौर पर मिलकर भी इस अनियमितता की ओर ध्यान दिलाया.  फैसला उसी अनैतिक कॉलेजियम ने लिखा. सरकार ने पढ़ा और दस्तखत कर आगे बढ़ा दिया. यानी नैतिक पराभव की जो मशाल यूपीए सरकार मे जो मशाल मोदी सरकार भी उसी को थामे उसी रोशनी में आगे बढ़ रही है. इस तरह मोदी सरकार ने देश के समाज विज्ञान के अनुसंधान की अहम परिषद के मेमोरेंडम में संशोधन, नई परिषद का गठन, नया कॉलेजियम बनाने और उसके आधार पर नई नियुक्तियों का कानूनी अधिकार खो दिया. यानी यूपीए का कारवां तो गुजर गया और मोदी सरकार गुबार देखती रह गई.

अब नैतिकता और वैधानिकता की रोशनी में ये आखिरी सवाल वहीं खड़ा है कि ये कारगुजारियां भूल हैं या अपराध. सरकार चाहे तो जांच करा ले या फिर अदालत इस पर फैसला दे.    

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लेखक

संजय शर्मा संजय शर्मा @sanjaysharmaa.aajtak

लेखक आज तक में सीनियर स्पेशल कॉरस्पोंडेंट हैं.

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