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Updated: 13 नवम्बर, 2019 09:49 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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दुनिया में बहुत से बच्चे इतने खुशकिस्मत नहीं होते कि उन्हें पैदा होते ही पलकों पर बैठा लेने वाले माता-पिता का प्यार नसीब हो. अनाथालय ही इन बच्चों का नसीब होते हैं. लेकिन बहुत से लोग भी इतने खुशकिस्मत नहीं होते कि उन्हें औलाद का सुख मिल सके. और इसलिए अनाथ और जरूरतमंद लोग एकदूसरे के लिए उम्मीद की किरण होते हैं.

लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इन अनाथ बच्चों में भी वही बच्चे खुशनसीब होते हैं जो नवजात होते हैं. जो बच्चा जितना बड़ा होगा उसके adoption का चांस उतना ही कम हो जाता है. क्योंकि भारत में हर किसी को नवजात बच्चे (newborn babies) ही चाहिए.

नवजात अनाथ बच्चों में ही रुचि क्यों ?

'द प्रिंट' की रिपोर्ट के मुताबिक 2016 में Central Adoption Resource Authority (CARA) ने ऐसे बच्चे की कैटेगरी लांच की जिसमें बच्चा गोद लेने के इच्छुक अभिभावक गोद लेने की लंबी प्रक्रिया को दरकिनार कर तुरंत बच्चा गोद ले सकते थे. ये वो बच्चे थे जिन्हें कई वजहों से गोद नहीं लिया जा रहा था. जैसे या तो इनमें कोई मामूली परेशानी थीं या फिर वो बड़ी उम्र के थे, लेकिन इन्हें विशिष्ट सहायता (special needs) की कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता था. तुरंत बच्चा मिलने की वजह से कई भारतीय परिवारों ने बड़ी उम्र के बच्चों को गोद लिया. जबकि भारतीय परिवार तो नवजात बच्चों को ही गोद लेना चाहते हैं, उनके अनुसार नवजात ही पूरी तरह से परफेक्ट होते हैं.

adoptionगोद लेने के लिए नवजात बच्चों को ही सही मानते हैं लोग

कुछ अभिभावकों ने कोशिश की कि वो बड़े बच्चे को गोद लें लेकिन बाद में उन्हें ये महसूस हुआ कि वो इसके लिए तैयार नहीं थे और न ही वो उनके साथ समन्वय ही बैठा पा रहे थे. बड़े बच्चों के साथ ये परेशानी भी होती है कि वो नए वातावरण में आसानी से एडजस्ट नहीं कर पाते हैं. अभिभावकों का कहना था कि बच्चे के जीवन के शुरुआती पांच साल सबसे महत्वपूर्ण होते हैं, इस दौरान इनकी भाषा और व्यक्तित्व का विकास होता है. ये बच्चे कम सुविधाओं के साथ पले होते हैं इसलिए ये सब बातें उनके विकास को प्रभावित करती हैं. कई लोगों को गोद लेने के बाद बच्चों में डिसलेक्सिया जैसी समस्या दिखी.

और नतीजा ये कि बच्चे अनाथालय वापस छोड़ दिए गए

एडजस्टमेंट न होने के नाम पर और कुछ परेशानियों की वजह से ये अभिभावक उन बच्चों को अनाथालय वापस दे जाते हैं. CARA की रिपोर्ट बताती है कि 2017-2019 तक भारतीय परिवारों ने करीब 6,650 बच्चों को गोद लिया लेकिन इन गोद लिए बच्चों में से 278 बच्चे यानी करीब चार फीसदी बच्चों को परिवार वापस छोड़ गए. वापस छोड़े गए ज्यादतर बच्चों के साथ कुछ परेशानी थी जिसकी वजह से परिवार उन बच्चों के साथ सामजस्य बनाने में पूरी तरह विफल साबित हुए. इसमें अधिकतर 6 साल और उससे अधिक की उम्र के बच्चे थे. वजह जो भी हो लेकिन छोटे बच्चे की चाहत में लोग बड़े बच्चों की बेकद्री कर रहे हैं.

आंकड़े ये भी कहते हैं कि एक साल में भारतीय परिवार ने करीब 3200 बच्चे गोद लिए. इसमें बामुश्किल 50 ऐसे थे जिन्हें विशेष देख-रेख की जरूरत थी. जबकि भारत से बाहर के लोगों ने 700 बच्चे गोद लिए गए जिसमें 400 विकलांग थे. वापस आए 278 बच्चों में से केवल 3 ही बच्चे ऐसे थे जो विदेश से वापस आए थे. विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीयों की तुलना में विदेशी परिवार गोद लिए बच्चों के साथ सामंजस्य बैठाने में अच्छे हैं.

adoptionबच्चा जितना बड़ा होगा उसके adoption का चांस उतना ही कम हो जाता है

गोद लेकर किसा भविष्य सुधारना चाहते हैं अभिभावक ?

इंसान जब कोई जानवर पालता है तब भी यही कोशिश करता है कि वो नवजात हो. जिससे जानवर परिवार के साथ कम उम्र से ही रहकर एडजस्ट कर सके. लेकिन जानवर और इंसान के बच्चे में फर्क होता है. इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि बच्चे के शुरुआती 5 साल विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं. लेकिन बाहर की दुनिया से आए बच्चों का बैकग्राउंड काफी मायने रखता है और वो धीरे-धीरे ही परिवार के रंग में रंगता है. लेकिन बच्चे के बिना रहने वाले अभिभावक जब बच्चा लाते हैं तो अति उत्साही होकर बहुत सारी उम्मीदें भी बांध लेते हैं. वो सोचते हैं कि बच्चा घर में आते ही परिवार के साथ घुल मिल जाएगा और माता-पिता के सपनों का तारा बन जाएगा. चमत्कार एक दम से नहीं होते. समय हर चाज का इलाज होता है.

लेकिन भारतीय परिवार जिनकी मनसिकता खुद के बच्चों पर जान लुटाने वाली होती है वो गोद लिए बच्चों में पहले ही दिन से फर्क देखने लगते हैं, जबकि परिवरिश की बात करें तो विदेशी परिवार ऐसे नहीं होते और इसीलिए वो एडजस्टिंग होते हैं. और रही बात डिसलेक्सिया जैसी समस्या के कारण बच्चे वापस करने की, तो ये तो वो समस्याएं होती हैं जो किसी भी बच्चे के साथ हो सकती हैं और ये तभी दिखाई देती हैं जब बच्चा बड़ा हो जाता है. ये ऐसी नहीं होतीं कि जन्म होते ही पता चल जाए, धीरे-धीरे प्रैक्टिस से ये समस्या रहती भी नहीं. और सबसे बड़ी बात तो ये कि अगर खुद के पैदा किए बच्चे को डिसलेक्सिया होता तो क्या उसे छोड़ दिया जाता?

aditya tiwariआदित्य तिवारी जिन्होंने एक डाउनसिंड्रोम पीडि़त बच्चे को गोद लिया था

सारी बात संयम की होती है. उद्देश्य ये होता है कि गोद लेकर किसी बच्चे के भविष्य को सुधारा जाए, जबकि भारतीय परिवार बच्चा गोद लेकर अपना भविष्य सुधारना चाहते हैं. दोनों बातों में फर्क है. ऐसे लोगों के सामने आदित्य तिवारी जैसे लोग जवाब हैं. आदित्य ने 2016 में एक डाउन सिंड्रोम बच्चे को गोद लिया था. और ऐसा करने वाले वो सबसे कम उम्र के सिंगल पेरेंट बन गए थे. डाउन सिंड्रोम के अलावा बच्चे के दिल में छेद भी था. विचार कीजिए...

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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