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Updated: 26 जुलाई, 2018 09:44 PM
गिरिजेश वशिष्ठ
गिरिजेश वशिष्ठ
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दिल्ली में भूख से तीन बच्चियों की मौत हो गई. देश कहता रहा बेटी बढ़ाओ, लेकिन बेटियां पिछड़ती रहीं. देश कहता रहा बेटी बचाओ, लेकिन किसी ने उन्हें बचाया नहीं. मरना जीना लगा रहता है. लेकिन मृत्यु अकाल हो, मृत्यु गरीबी से हो और मृत्यु भूख से हो, तो ये मौत एक दो या तीन मौतें नहीं होतीं, ये देश के सिस्टम की मौत होती है. लोकतंत्र की मौत होती है और संविधान में लिखे समानता के अधिकार की हत्या होती है.

ये हत्या अचानक नहीं हुई. किसी एक दिन नहीं हुई है. ये काम लगातार जारी है. 1991 से हर रोज़ देश में गरीबों को मारा जा रहा है और आज नौबत आई कि भूख से एक बार गरीब और मर गया.

जो दिल्ली में थोड़े पुराने हैं वो जानते हैं कि दिल्ली में सिर्फ आठ आने में पेट भरा जा सकता था. 800 ग्राम वजन की डबल रोटी 6 रुपये में मिला करती थी. दुकानदार एक रुपये में उसकी 6 स्लाइस बेचा करते थे और कितना भी गरीब शख्स हो रोटी खा सकता था. ये ब्रेड इसलिए सस्ती नहीं थी कि उस वक्त सस्ते का ज़माना था बल्कि इसलिए सस्ती थी कि सरकार अपनी फैक्ट्रियों में डबल रोटी बनाया करती थी. मकसद था कि कोई गरीब भूखा न सोए.

हो सकता है राजनीतिक विमर्श में आप इसे पार्टियों से जोड़कर देखना चाहें, लेकिन मैं इसे पुराने और बाद के हिंदुस्तान के अंतर के तौर पर देखना चाहता हूं. इसी दिल्ली में लाखों ऐसे घर थे जिनमें गरीब रहा करते थे. झोपड़ी बनाकर रहने वाले को जबरदस्ती नहीं हटाया जा सकता था. लेकिन गरीबी को गंदगी माना गया. धीरे धीरे उन्हें मकान देकर तो बसा दिया लेकिन गरीबों के बसने का इंतज़ाम खत्म हो गया.

इसी दिल्ली में हमने साठ रुपये में महीने भर का बस का पास बिकते देखा है. कोई गरीब से गरीब इंसान काम पर जा सकता था. लेकिन धीरे धीरे दिल्ली ही नहीं पूरे देश में गरीबों का हक छीना जाने लगा. उसे मुफ्तखोरी बता दिया गया. आज गर्व से लोग कहते हैं कि सरकार की सब्सिडी मुफ्तखोरी है.

Delhi, girls, starvationगरीब की सब्सिडी जिन्हें मुफ्तखोरी लगती है वो आईने में मुंह देख लें एक बार

जो लोग इसे मुफ्तखोरी बताते हैं उन्हें 15 फीसदी दाम पर नोएडा में बिल्डरों को दी जाने वाली जमीनें मुफ्तखोरी नहीं लगतीं. उन्हें उद्योगपतियों के लिए लगातार सस्ता किया जा रहा लोन नहीं दिखता. ब्याज़ कम करने से बुजुर्गों की घर चलाने के लिए होने वाली ब्याज़ की कमाई कम होती है तो वो भी नहीं दिखती. आप सब जानते हैं कि ऐसे लोन लेकर अमीरों ने क्या किया और कहां भागे. आप ये भी जानते हैं कि कितने अमीरों के कितने अरब रुपये माफ कर दिए गए.

ये पैसा बैंक अपने आप नही छापता. ये पैसा उसी की मेहनत से बनता है, उसी के उत्पादन से बनता है जो भूख से मर रहा है. जिसकी सब्सिडी आपको मुफ्तखोरी लगती है. वही देश के मालिक जो पचास रुपये के चमड़े, दो पांच हज़ार के जूते में बदलते हैं और जिस जूते को हैंडमेड कहते ही उसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है. लेकिन जो लोग संपदा पैदा करते हैं उनसे लगातार छीना जा रहा है.

याद कीजिए एलपीजी पर सब्सिडी, गरीब को सस्ते में सिलेंडर मिलता था. वो लकड़ी नहीं जलाता था और पर्यावरण भी शुद्ध रहता था. याद कीजिए जब डीजल पेट्रोल पर सब्सिडी होती थी तो देश में सबकुछ सस्ता होता था. लेकिन 1984 और 1991 में गरीबों के लिए नीति बनाने वाले नेताओं को मार डाला गया. उन्हें ही नहीं मारा गया बल्कि उनकी नीतियों को भी तेज़ी से बदला गया. नयी सरकार आई. खाद पर सब्सिडी खत्म कर दी गई. धीरे धीरे गरीबों का सड़कों पर चलना बंद कर दिया गया. सड़क पर चलने की कीमत लगा दी गई. और तो और ईश्वर से मुफ्त मिलने वाले पानी को भी कीमती बना दिया गया.

कल्पना कीजिए खाना महंगा, पीना महंगा, घर महंगा, न्याय महंगा, यहां तक कि सड़क पर चलना भी महंगा. इस महंगाई के बीच मज़दूरों के पक्ष के कानून खत्म कर दिए गए. उनके साथ अन्याय को रोकने वाला कोई नहीं बचा. उनके लिए लड़ने वाली यूनियनें समाज का दुश्मन करार दी गईं.

इन हालात में अगर इंसान के भूखे मरने की नौबत आ गई है तो ये एक दिन में नहीं हुआ. ये लगातार अमीर को और अमीर और गरीब को और गरीब बनाने की नीतियों का नतीजा है. अगर आपको लगता है कि तीन बच्चों की मौत पर ही ये सिलसिला रुकने वाला है तो आप इस समस्या को समझ नहीं पा रहे. अगर किसानों की आत्महत्या को भी आप इसका दुष्परिणाम मानते हैं तो भी आप इस समस्या को कम आंक रहे हैं. देश की 90 फीसदी आबादी के पास ज़रूरत की चीज़ें नहीं हैं. दो वक्त का खाना नहीं है. लेकिन यहां विजय माल्या से लेकर मेहुल चौकसी हैं. अब भी देश संभल जाए तो ठीक है, लेकिन लगता नहीं है. क्योंकि जिनके चंदे से सरकार बनती है उनके खिलाफ तो काम करने से रही.

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लेखक

गिरिजेश वशिष्ठ गिरिजेश वशिष्ठ @girijeshv

लेखक दिल्ली आजतक से जुडे पत्रकार हैं

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