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Updated: 25 दिसम्बर, 2018 04:11 PM
गिरिजेश वशिष्ठ
गिरिजेश वशिष्ठ
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मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में किसानों के कर्ज माफ करने के कांग्रेस सरकारों के फैसले के बाद से लगातार कई प्रतिक्रियाएं सुन पढ़ और देख रहा हूं. इन प्रतिक्रियाओं में बड़ी संख्या में ऐसी है जिनमें लोग सरकारी खज़ाने से कर्ज माफ करने को टैक्स देने वालों के पैसे की बर्बादी बता रहे हैं. इन लोगों का कहना है कि राजनीतिक दल करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल अपने राजनीतिक लाभ के लिए कर रहे हैं. किसी भी प्रकार की सब्सिडी गलत है. कुल मिलाकर राजनीतिक मकसद के लिए सब्सिडी जैसी चीज़ को अनावश्यक और धन की बर्बादी बताया जा रहा है. जाहिर बात है जिस पार्टी ने ये माफ की है वो इसे सही बता रही है. इस मामले में कुछ बिंदुओं पर कुछ कहना चाहता हूं-

1. करदाता का पैसा

ये एक जुमला पिछले करीब दस पंद्रह सालों से लगातार दोहराया जा रहा है. देश के पैसे को करदाताओं का पैसा जान बूझ कर कहा जा रहा है ताकि ये संदेश दिया जा सके कि देश के पैसे पर सरकार के खर्च पर देश के आम गरीब लोगों का कोई हक नहीं होता है. ये शब्द चलन में लेकर आने वाले कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे और खाद बीज से लेकर हर तरह की सब्सिडी खत्म करने का अमेरिकी, विश्वबैंक और आईएमएफ का विचार उन्होंने ही देश में प्रचलित किया.

कर्ज, किसान, मध्य प्रदेश, कर्ज माफी, कमलनाथ, कांग्रेस, राहुल गांधीसरकार के खजाने में पैसा सिर्फ नौकरीपेशा लोगों का ही नहीं बल्कि किसानों का भी होता है

2. करदाता कौन

कुछ लोग या कहें बड़ी संख्या में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कर यानी टैक्स का मतलब आयकर से समझते हैं और जो मानते हैं कि इनकम टैक्स देने वाला तो करदाता है और बाकी लोग टैक्स नहीं देते. ऐसे लोगों की धारणा है कि वही जो टैक्स भर रहे हैं उसी से देश चल रहा है. जबकि इनकम टैक्स तो छोड़िए हर तरह का डायरेक्ट टैक्स जोड़ लें तो प्रत्यक्ष कर से सरकार की आमदनी 8 लाख करोड़ से ज्यादा नहीं है.

इसमें प्रोफेशनल टैक्स ,कॉर्पोरेट टैक्स, शेयर पर लगने वाला टैक्स और तरह-तरह के सेस भी शामिल हैं. ये केन्द्र सरकार के बजट के इक्कीस लाख करोड़ रुपये का एक तिहाई भी नहीं है. जीएसटी वगैरह से होने वाली आय इससे कही अधिक है. और राशन, टूथब्रश, माचिस बीडी का बंडल. साबुन जैसी रोजमर्रा की चीज़ें खरीदने पर जो टैक्स देना होता है वो अप्रत्यक्ष कर है. जाहिर बात है ये टैक्स सभी लोग देते हैं. पेट्रोल डीजल वगैरह हर चीज़ पर कर आपको पता ही है किस तरह वसूला जाता है.

3. कौन ज्यादा देता है टैक्स

हम सब जीवन में जो भी खर्च करते हैं वो उस पर कर दे रहे होते हैं. लेकिन जो आयकर दाता हैं वो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर देने के बाद भी अपनी आमदनी का एक हिस्सा बचा लेने में कामयाब हो जाते हैं. इस पैसे से वो निवेश करते है और उस पर भी आमदनी करते हैं. या फिर मकान जैसी बड़ी संपत्तियां इकट्ठा कर लेते हैं. यानी अगर आप अपनी आमदनी का 25 फीसदी बचा पाते हैं तो उस रकम पर कोई कर आप नहीं देते क्योंकि उसे आप खर्च नहीं कर रहे हैं. जबकि गरीब लोग अपनी आमदनी का 95 फीसदी तक और कभी कभी पूरी ही कमाई खर्च करते हैं. जाहिर बात है वो जो कर चुकाते हैं वो कई बार 90 फीसदी तक होता है जबकि हम जो कर चुकाते हैं वो उससे कहीं कम.

सब्सिडी क्यों -

सब्सिडी देने की दो वजहें होती है. पहली वजह है सरकार का भय और दूसरी वजह है सरकार का मोह. पहले हम सरकार के मोह की बात करते हैं.

1. सरकार का मोह

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि जितना जनता के बीच जाता है उतनी तरलता बढ़ती है. लोग सामान खरीदते हैं और उससे व्यापार और काम-धंधे बढ़ते हैं और देश की जीडीपी ऊपर जाती है. उसमें सुधार होता है. सरकार इसी वजह से कई आधारभूत ढांचे से जुड़े निर्माणकार्य चलाती है ताकि मजदूरी के रूप में बाज़ार की तरलता बढ़ाई जा सके. बड़ी-बड़ी कंपनियां और उद्योगपति जो मुनाफा कमाते है वो इस तरलता की कीमत पर होता है. धन इन लोगों के खज़ाने को बढ़ाता है और समाज में धन कम होने से जब इनके काम-धंधे कमज़ोर पड़ने लगते हैं तो ये तरलता बढ़ाने वाले उपाय सरकारें अपनाती हैं ताकि बाज़ार चलता रहे और फिरसे ये लोग कमा सकें.

2. सरकार का भय

इसमें कोई शक नहीं है कि देश की धरती पर और संसाधनों पर देश के नागरिकों का अधिकार होता है. ये भी सही है कि ये अधिकार देश के हर नागरिक का समान रूप से हैं. राजनीतिक स्वार्थ, पूंजी वादी व्यवस्था और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए सरकारें तरलता बढ़ाने के बजाय सीधे उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने लगती हैं. सब्सिडी पर सस्ते दाम में किसानों से लेकर ज़मीनें दी जाती हैं. टैक्स हॉलीडेज दिए जाते हैं. दुनिया भर की रियायतें दी जाती हैं. इससे जो धन जनता के हाथ से गुजरकर उद्योगपतियों के पास जाना चाहिए वो नहीं जाता जाहिर बात है जनता का अभाव बढ़ने लगता है.

यही वो वजह है कि किसान, मज़दूर और गरीब लोगों के पास रोज़गार कम हो जाते हैं और उनकी दशा बिगड़ती जाती है. जनता में इससे असंतोष न हो और हालात ऐसे न बनें कि अराजकता की स्थिति हो जाए तो सरकारें लोगों को झुनझुने पकड़ाती रहती है. कन्या धन योजना, सरकारी सस्ता इलाज़, सरकारी स्कूल, किसानों को सब्सिडी, गरीबों को सस्ता राशन ऐसे ही झुनझुने हैं. सरकारें गरीबों को अधिकार न देकर इस तरह के झुनझुने पकड़ाती रहती है. सवाल ये है कि वो कौन सी नीतियां हैं जिनके कारण किसान इस हाल में पहुंच जाता है कि उसे कर्ज लेकर काम चलाना पड़ता है जिसे वो चुका तक नहीं पाता.

3 किसान कर्ज की हकीकत.

सरकार खाद्य महंगाई से डरती है. खाने-पीने की चीज़ें महंगी न हों इसलिए लगातार उनकी कीमतें नियंत्रित रखी जाती हैं कल्पना कीजिए कि भोजन जैसी अति आवश्यक चीज़ का दाम कम बढ़ता है और औद्योगिक उत्पादों और आईफोन जैसी चीज़ों का दाम बढ़ता जाता है जबकि भोजन के बगैर कोई जीवित तक नहीं रह सकता. इसकी वजह ही सरकार की वो नीतियां हैं जिनसे किसान को उसकी मेहनत का पूरा फल नहीं मिल पाता. सभी वर्गों के प्रेशरग्रुप हैं. एविएशन ल़ॉबी है, ड्रग्स लॉबी है लेकिन किसानों की कोई लॉबी नहीं. सबसे बड़े उत्पादक होने, देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होने के बावजूद नीतियों के केन्द्र में उद्योग होता है. यही कारण है किसान पिछडृता जा रहा है. जाहिर बात है किसान जब टूटने लगता है, आत्म हत्या करने की कगार पर पहुंच जाता है तो उसे कुछ राहत के तौर पर सब्सिडी दे दी जाती है.

4. समझ-समझ का फेर

उम्मीद है आप समझ गए होंगे कि सब्सिडी तो उस हक का एक छोटा सा हिस्सा है जो किसान को मिलना चाहिए लेकिन उसे न देकर सब्सिडी दी जाती है लेकिन अगर आप ये भी छीन लेंगे तो आप भी नहीं बचेंगे. आपकी यानी मध्यमवर्ग की जो आमदनी है वो कुछ और न होकर उद्योगपतियों के खजाने भरने में सहयोग करने के लिए मिलने वाली राशि है और कुछ नहीं.

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लेखक

गिरिजेश वशिष्ठ गिरिजेश वशिष्ठ @girijeshv

लेखक दिल्ली आजतक से जुडे पत्रकार हैं

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