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Updated: 04 जनवरी, 2017 01:34 PM
आलोक रंजन
आलोक रंजन
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समाजवादी पार्टी में साइकिल के चुनाव चिन्ह को लेकर हंगामा मचा हुआ है. जहां मामले को लेकर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव चुनाव आयोग से मिल चुके हैं और साइकिल चुनाव चिन्ह पर दावा ठोक रहे हैं वहीं, आज अखिलेश खेमे से रामगोपाल यादव ने चुनाव आयोग पहुंचकर साइकिल पर अपना दावा पेश किया. उन्होंने चुनाव आयोग के सामने दावा पेश करते हुए ये बताया की 90 प्रतिशत से ज्यादा विधायक, सांसद और एमएलसी उनके साथ हैं और इसलिए अखिलेश यादव के अगुवाई वाली पार्टी ही असली समाजवादी पार्टी है और इसलिए साइकिल चुनाव चिन्ह पर पहला अधिकार उनका ही है. अब गेंद चुनाव आयोग के पाले में है, देखना ये है कि वो किसके पक्ष में निर्णय लेते हैं.

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 किसके हाथ आएगा साइकल का हैंडल

जानकारों और समीक्षकों का मानें तो दोनों गुटों के दावे की जांच में चुनाव आयोग को महीनों लग सकते हैं. जबकि यूपी में चुनाव का समय सिर पर है. आयोग कभी भी चुनाव का एलान कर सकता है. ऐसे में संकट ये है कि अगर आयोग, चुनाव से पहले कोई नतीजे में नहीं पहुँचता है तो दोनों गुटों को अलग-अलग चुनाव चिन्हों में चुनाव लड़ना पड़ेगा.

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सूत्रों की मानें तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में कई विकल्प खुले रखे हैं. एक अख़बार के अनुसार अगर उनके उम्मीदवारों को साइकिल चुनाव चिन्ह नहीं मिलता, तो वह स्वर्गीय चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) का चिन्ह ले सकते हैं और आगामी विधान सभा चुनाव इसी चिन्ह से लड़ सकते है. एक और खबर आ रही है कि यदि अखिलेश को साइकिल नहीं मिली तो वो मोटरसाइकिल चुनाव चिन्ह ले सकते हैं.

समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) की स्थापना चंद्रशेखर ने की थी और अपनी मृत्यु तक यानि 8 जुलाई, 2007 तक पार्टी का नेतृत्व किया. उनके निधन के वक्त तक वे इस पार्टी के इकलौते लोकसभा सांसद थे. इस पार्टी का गठन 5 नवंबर, 1990 को हुआ था, जब चंद्रशेखर और हरियाणा के नेता देवी लाल जनता दल से अपने 60 सांसदों के साथ अलग हो गए थे और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी. ये सरकार सिर्फ सात महीने चली थी और जिसके प्रधानमंत्री चंद्रशेखर थे. चंद्रशेखर सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे कमल मोर्राका फिलहाल पार्टी के अध्यक्ष हैं. अप्रैल 2015 में कमल मोर्राका भी उस मीटिंग में मौजूद थे जिसमे 'जनता परिवार' को अमली जामा पहनाया जाना था. मुलायम यादव के घर में हुई इस मीटिंग का मुख्य मकसद एंटी- बीजेपी फ्रंट का गठन करना था, लेकिन ऐन वक़्त में मुलायम पीछे हट गए और पूरा प्लान ठन्डे बस्ते में चला गया.

कितना समय लग सकता है इस मामले मे ---

चुनाव से पहले चुनाव चिन्ह का मामला सुलझ जाए इसकी संभावना काफी कम लगती है, क्योंकि चुनाव आयोग की सुनवाई काफी लंबी और विस्तृत होती है. समीक्षकों और चुनावी प्रक्रिया के जानकारों के अनुसार कम से कम 6 महीने का वक्त लग सकता है चुनाव चिन्ह अलॉट करने में और साथ ही इस दौरान चुनाव आयोग समाजवादी पार्टी के चिन्ह को फ्रीज कर सकता है और हो सकता है की दोनों गुटों को एक ही नाम से अस्थायी चुनाव चिन्ह दे दिया जाए. उदहारण के तौर पर 1979 में कांग्रेस (I) और कांग्रेस (U) जैसे दो गुटों और 1980 में बीजेपी और जनता पार्टी को चुनाव आयोग ने अस्थायी ऑर्डर के तहत मान्यता दी थी. लिहाजा समाजवादी पार्टी के दोनों गुटों को मान्यता मिल सकती है.

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 इलेक्शन कमिशन के आदेश पर ही साइकल को सवारी मिलेगी

आपको बता दें कि विधायिका के बाहर जब कोई पार्टी में विभाजन की स्थिति बनती है तो इलेक्शन कमीशन, सिंबल आर्डर, 1968 की पैरा 15 के तहत निर्णय लेता है. चुनाव आयोग सारे तथ्यों, साक्ष्य, प्रतिनिधियों से मिलने के बाद ही कुछ निर्णय में पहुँचता है और उसके बाद ही चुनाव चिन्ह किसी गुट को अलॉट करता है.

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साइकिल चिन्ह पर टकराव पहले भी हो चुका है --

साइकिल चुनाव चिन्ह को लेकर चल रही ऐसी ही जंग 20 साल पहले, 1995- 1996  भी हो चुकी है. यह जंग आंध्र प्रदेश में देखने को मिली थी जब चंद्रबाबू नायडू और टीडीपी प्रमुख एनटीआर आमने-सामने आ गए थे. उस समय 1995 में एनटीआर आंध्र प्रदेश के सीएम थे. 1994 में चुनाव जीतकर सीएम बने एनटीआर की सेहत ख़राब होने लगी थी. उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती के बढ़ते हस्तक्षेप से पार्टी में अंतर्कलह बढ़ने लगे थे. 1995 में चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर और टीडीपी पार्टी प्रमुख एनटीआर को सत्ता से बेदखल कर दिया था. उस समय परिवार के अधिकतर मेंबर और विधायकों का समर्थन नायडू को मिला था. अगस्त 1995 में शुरू हुई ये जंग दिसम्बर 1995 में सुलझी जब उस समय के इलेक्शन कमिश्नर टी एन शेषन ने काफी इन्क्वायरी के बाद साइकिल चुनाव चिन्ह नायडू गुट को अलॉट किया.

आपको यहाँ पर ये बताना बेहद जरुरी है की मई 1996 लोक सभा चुनाव के पहले इस मसले को निपटा लिया गया था. परंतु उत्तर प्रदेश के मामले में परिस्थति अलग है क्योंकि चुनाव फरवरी- मार्च में होने वाले हैं और इतने कम समय में निर्णय आना बहुत मुश्किल प्रतीत होता है.

लेखक

आलोक रंजन आलोक रंजन @alok.ranjan.92754

लेखक आज तक में सीनियर प्रोड्यूसर हैं.

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