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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 30 अप्रिल, 2021 02:17 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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देश के चुनावी राजनीति के इतिहास में टीएन शेषन (TN Seshan) का नाम ऐसा हो गया है, जैसे - 'न भूतो, न भविष्यति'. चुनाव आयोग की अहमियत का देश के नेताओं और जनता को पहली बार एहसास कराने वाले टीएन शेषन की मिसाल मौजूदा हालात में देश की अदालत में भी दी जा रही है. ये बात भी कम मायने नहीं रखती है.

पश्चिम बंगाल में चुनावी रैलियों से बढ़ते कोरोना वायरस (Covid 19 Pandemic)से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान कलकत्ता हाई कोर्ट ने टीएन शेषन को शिद्दत से याद किया - और चुनाव आयोग (Election Commission) के मौजूदा अधिकारियों को नसीहत दी कि टीएन शेषन का 10 फीसदी भी वो काम करते तो हालात ऐसे न होते.

देश के 10वें मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन सख्त मिजाज थे, लिहाजा नियम के पक्के भी थे. मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर सरकारी सेवा की उनकी आखिरी पारी थी. उनको ये तो पता ही था कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, शायद इसलिए भी कि रिटायर होने के बाद उनको किसी सरकारी पद का मोह भी नहीं था - और जब तक उनको हटाने का तरीका खोजा जाता वो सब खेल कर चुके होते.

हरियाणा काडर के आईएएस अफसर अशोक खेमका भी वैसे ही नियमों के पक्के हैं, लेकिन ये बात किसी भी राजनीतिक नेतृत्व को पसंद नहीं आती. ऐसा तो नहीं होता कि उनको कोई जिम्मेदारी नहीं दी जाती, जैसी की यूपी के आईपीएस अफसर अमिताभ ठाकुर की शिकायत रही है, या फिर महाराष्ट्र के संजय पांडे की रही है. अमिताभ ठाकुर को तो जबरन रिटायर भी कर दिया गया, लेकिन सीनियर आईपीएस अफसर संजय पांडे को फिलहाल महाराष्ट्र के डीजीपी का प्रभार मिला हुआ है. पूर्व गृह मंत्री अनिल देशमुख पर जबरन वसूली के आरोप वाले परमवीर सिंह के पत्र से पहले संजय पांडे ने भी उद्धव ठाकरे को शिकायती लहजे में छुट्टी देने की गुजारिश की थी.

ऐसे और भी बहुत से अफसर देश में हैं, लेकिन सबको शेषन जैसा काम करने का मौका भी तो नहीं मिलता. ठीक वैसे ही जैसे न्यायपालिका के इतिहास में जजों की प्रेस कांफ्रेंस का नेतृत्व करने वाले जस्टिस जे. चेलामेश्वर और उनके साथ ही बगावती रुख दिखाने वाले रंजन गोगोई को एक ही प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर आगे बढ़ने के बाद भी उनके रिटायर होने के बाद अलग अलग वजहों से याद किया जाता है.

टीएन शेषन ऐसे दौर में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त बने और शोहरत हासिल की जो न तो इंदिरा गांधी के शासन का वक्त रहा - और न ही नरेंद्र मोदी का. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जहां देश पर इमरजेंसी थोपने के लिए याद किया जाता है, वहीं विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर देश की संस्थाओं को बर्बाद करने का आरोप लगाता है.

सवाल ये है कि क्या टीएन शेषन मौजूदा दौर में चुनाव आयोग की कमान संभाल रहे होते तो भी क्या उनके वही तेवर होते?

अगर शेषन आज चुनाव आयोग की कमान संभाल रहे होते

2017 में जब गुजरात में राज्य सभा के लिए चुनाव कराये जाने से बमुश्किल महीने भर पहले ही एके ज्योति मुख्य चुनाव आयुक्त बनाये गये थे. अचल कुमार ज्योति गुजरात काडर के 1975 बैच के आईएएस अफसर रहे.

राज्य सभा चुनाव तो गुजरात में था, लेकिन अमित शाह और सोनिया गांधी की दिलचस्पी के कारण अचानक प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गया था. ऐसा भी नहीं कि बीजेपी उम्मीदवार अमित शाह और स्मृति ईरानी का कांग्रेस के अहमद पटेल के साथ एक ही सीट के लिए आमने सामने की लड़ाई थी. अमित शाह और स्मृति ईरानी की सीटें तो निकल ही चुकी थीं, असली लड़ाई तो उस सीट पर थी जिसके लिए सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव रहे अहमद पटेल ने नामांकन भरे थे.

कांग्रेस विधायकों को क्रॉस वोटिंग से बचाने के लिए उनको कर्नाटक भेजा गया क्योंकि तब वहां कांग्रेस के सिद्धारमैया मुख्यमंत्री थे और मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार ऐसे मामलों में हर तरह से सक्षम माने जाते रहे. इसकी वजह से डीके शिवकुमार के करीबियों के ठिकानों पर आयकर अधिकारियों ने छापेमारी भी की, लेकिन कुछ खास हाथ नहीं लगा. बाद में डीके शिवकुमार को ईडी ने गिरफ्तार कर जेल जरूर भेज दिया था.

mamata banerjee, tn seshan, narendra modiचुनाव आयोग के सामने साख बनाये रखने की चुनौती तो आ ही गयी है!

पहले तो अहमद पटेल अपने बूते चुनाव जीतने की कवायद में जुटे रहे, लेकिन फिर सोनिया गांधी को लगा कि कांग्रेस के ही नेता निजी वजहों से अहमद पटेल का साथ नहीं दे रहे हैं. तब सोनिया गांधी ने तय किया कि अहमद पटेल को हर हाल में जीतना ही चाहिये - और कांग्रेस के नेताओं को दिल्ली से स्थिति संभालने के लिए भेजा गया. अहमद पटेल की स्थिति थोड़ी सुधर तो गयी ही.

अहमद पटेल की सारी मशक्कत के बाद भी शिकस्त हो सकती थी, अगर कांग्रेस के एक सीनियर नेता ने पार्टी के बागी विधायक की गलती पकड़ कर शिकायत न की होती और चुनाव आयोग भी शिकायत को अनसुना कर देता - लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

हुआ ये था कि कांग्रेस के ही बागी विधायक ने बीजेपी नेता के सामने अपनी निष्ठा का प्रदर्शन करते हुए दिखा दिया था कि वो किसे वोट दे रहा है - और ऐसा करना नियमों के खिलाफ था. कांग्रेस की तरफ से यही शिकायत फटाफट दिल्ली में चुनाव आयोग में दर्ज करायी गयी. सोनिया गांधी के कहने पर पहले से ही सक्रिय कांग्रेस के वकील नेताओं ने आयोग के दफ्तर पहुंच कर नियमों की बारीकियां अपने तरीके से मुख्य चुनाव आयुक्त के सामने रखी.

कांग्रेस नेताओं की कोशिशों को काउंटर करने के लिए अमित शाह ने भी गुजरात में ही बैठे बैठे मोदी सरकार के मंत्रियों का एक मजबूत जत्था भी चुनाव आयोग भेज दिया - दोनों तरफ से खूब जोर आजमाइश हुई.

मुख्य चुनाव आयुक्त एके ज्योति के लिए वास्तव में मुश्किल घड़ी रही होगी, खासकर अगर राजनीतिक निष्ठा के हिसाब से समझने की कोशिश की जाये तो. माना जाता रहा कि उनके CEC बनने में उनके गुजरात काडर की पृष्ठभूमि की भी खास भूमिका रही होगी.

जब चुनाव आयोग ने फैसला सुनाया तो लगा कि दूध का दूध और पानी का पानी हुआ है - अहमद पटेल को राज्य सभा के लिए विजयी घोषित कर दिया गया और बीजेपी नेता अमित शाह को मन मसोस कर हार स्वीकार करनी पड़ी.

साफ है ये सारी चीजें अलग अलग दौर में भी अफसर विशेष की निष्ठा पर ही निर्भर करती हैं. अगर अफसर विशेष देश के संविधान और अपने पद और गोपनीयता को लेकर ली गयी शपथ के प्रति निष्ठावान है तो वो अपने मन से ही फैसला लेगा जो भी लेना हो, लेकिन अगर उसकी कोई राजनीतिक निष्ठा या भविष्य को लेकर कोई अभिलाषा है, तो जाहिर है फैसले स्वाभाविक तौर पर प्रभावित तो होंगे ही.

विधानसभा चुनावों की तारीख आने से लेकर अब तक का जो पीरियड रहा है, उसमें फैसले दो CEC ने लिये हैं. चुनाव की तारीखों का ऐलान सुनील अरोड़ा ने किया था जिसमें पश्चिम बंगाल में 8 चरणों में मतदान कराये जाने को लेकर सवाल उठाये गये. ममता बनर्जी तो 8 चरणों में चुनाव कराये जाने को लेकर चुनाव आयोग पर बीजेपी के लिए काम करने का आरोप लगा ही चुकी हैं, कलकत्ता हाई कोर्ट ने भी इस बात सवाल उठाये हैं.

सुनील अरोड़ा के रिटायर हो जाने के बाद, सुशील चंद्रा नये सीईसी बनाये गये - और उनको लेकर भी एक चर्चा ये तो चल रही रही है कि जब केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में अपनी रैलियां रद्द कर दी तो चुनाव आयोग ने भी पाबंदियां लगानी शुरू कर दी. रैलियों पर रोक के साथ साथ नतीजे आने के बाद विजय जुलूस पर भी अब रोक लगायी जा चुकी है.

क्या आयोग भी पिंजरे का तोता बन गया है?

सीबीआई को लेकर एक बार सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी रही - पिंजरे के तोता जैसा. आशय ये कि केंद्र की सत्ता पर काबिज लोगों के इशारे पर काम करने का इल्जाम!

क्या चुनाव आयोग भी फिलहाल ऐसे ही किसी अघोषित इल्जाम के दौर से गुजर रहा है? क्या चुनाव आयोग को भी उसी नजरिये से पिंजरे के तोते जैसा समझ लेना चाहिये?

तस्वीर का अगर एक ही पहलू देखें तो बिलकुल ऐसा ही लगता है, लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहानी अलग ही समझ में आती है. जो चुनाव आयोग फिलहाल बीजेपी को छोड़ कर सबके निशाने पर है, ये वही चुनाव आयोग है जो कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने पर महाराष्ट्र में विधान परिषद की 9 सीटों के लिए होने वाले चुनाव को अनिश्चित काल के लिए टाल दिया था.

चुनाव आयोग को लेकर फिलहाल देश के तीन उच्च न्यायालयों की टिप्पणी और आदेश महत्वपूर्ण लगते हैं. इनमें दो टिप्पणियां तो करीब करीब मिलती जुलती हैं, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक आदेश अलग है.

मद्रास हाई कोर्ट की नजर में हाल फिलहाल कोरोना फैलाने के लिए चुनाव आयोग अकेले जिम्मेदार है. चुनावी रैलियों से कोरोना विस्फोट को लेकर कलकत्ता हाई कोर्ट ने पश्चिम बंगाल में 8 चरणों में चुनाव कराने की जरूरत पर सवाल उठाये थे.

लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट के कहने पर ही चुनाव आयोग ने पंचायत चुनाव कराये. हाई कोर्ट ने चुनाव प्रक्रिया से लेकर आरक्षित सीटों पर फैसला लेने तक के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी थी. यूपी में पंचायतों के ये चुनाव दिसंबर, 2020 में ही होने थे, लेकिन हाई कोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग आगे बढ़ा.

अब त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव को लेकर चुनाव आयोग ही सबके निशाने पर है - क्योंकि यूपी में पंचायत चुनाव कराने वाले 135 कर्मचारी ड्यूटी पर रहते कोरोना के शिकार होकर दम तोड़ चुके हैं और जो बचे हैं वे आगे के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे - कर्मचारी संगठनों ने वोटों की गिनती टाल देने की डिमांड रखी, लेकिन कौन सुने वे तो आखिरी दौर का मतदान कराने निकल पड़ने को मजबूर हैं.

अब जरा याद कीजिये कोरोना काल में चुनाव कराये का सिलसिला कब शुरू हुआ? ये चुनाव आयोग ही है जिसने महाराष्ट्र में विधान परिषद की 9 सीटों पर चुनाव अनिश्चित काल के लिए टाल दिया था - लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि चुनाव आयोग को मीटिंग बुलाकर चुनाव कराने का फैसला करना पड़ा.

हुआ ये था कि उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बने छह महीने होने जा रहे थे. अगर छह महीने बीत जाते और वो महाराष्ट्र के किसी भी सदन के सदस्य नहीं होते तो मुख्यमंत्री की कुर्सी अपनेआप चली जाती. गठबंधन सरकार की कैबिनेट की तरफ से कई बार सिफारिश की गयी कि राज्यपाल उद्धव ठाकरे को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत कर दें, लेकिन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी फाइल लौटा देते रहे. ऐसा दो बार हुआ और इस दौरान शिवसेना प्रवक्ता भगत सिंह कोश्यारी को खूब खरी खोटी सुनाते भी रहे.

राज भवन के व्यवहार से निराशा हाथ लगने पर उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मदद लेने का फैसला किया. ऐसा भी नहीं था कि उद्धव ठाकरे के पास कुर्सी बचाने का कोई और रास्ता नहीं बचा था, लेकिन दूसरा रास्ता काफी जोखिम भरा था और गठबंधन पार्टनर एनसीपी नेता शरद पवार पर निर्भरता हद से ज्यादा बढ़ाने वाला था. उद्धव ठाकरे चाहते तो इस्तीफा दे देते. फिर गठबंधन उनको विधायक दल का नेता चुन लेता और वो फिर से सरकार बनाने का दावा पेश करते - और फिर से कुर्सी पर बैठ सकते थे, लेकिन इसमें किसी भी कदम पर चूक हो जाती तो ऑपरेशन लोटस का खतरा तलवार की तरह सिर पर लटक रहा था.

उद्धव ठाकरे के फोन पर बात करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई ठोस आश्वासन तो नहीं दिया था, लेकिन ये जरूर बोला था कि 'देखता हूं...' प्रधानमंत्री मोदी का ये छोटा सा आश्वासन ही उद्धव ठाकरे के लिए तिनके के सहारे जैसा था - और सही भी साबित हुआ.

अब अंदर अंदर सरकारी कामकाज की जो भी प्रक्रिया हुई हो, सामने तो यही आया कि जो राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने चुनाव आयोग को एमएलसी चुनाव कराने के लिए पत्र लिखा - और दलीलें दी कि चूंकि लॉकडाउन में छूट दी जा रही है, ऐसे में सावधानी और सख्ती बरतते हुए चुनाव कराया जाये ताकि महाराष्ट्र में राजनीतिक स्थिति संभाली जा सके.

फिर क्या था - चुनाव आयोग एक्शन मोड में आ गया. चुनाव हुआ प्रक्रिया शुरू हो गयी. बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस को भी बहती गंगा में हाथ धोने जैसी राजनीति का भरपूर मौका मिल गया. टिकट बंटवारे के बहाने विरोधियों को ठिकाने लगाने में कामयाब हुए - और उद्धव ठाकरे की कुर्सी भी बच गयी.

अब जब एक बार चुनाव कराने का सिलसिला शुरू हुआ तो बिहार चुनाव की भी घड़ी आ गयी. कोविड 19 प्रोटोकॉल के तहत बिहार विधानसभा के लिए पहली बार चुनाव हुए.

कोविड प्रोटोकॉल तो बिहार चुनाव के वक्त भी लागू रहे और अभी हो रहे पांच राज्यों की विधानसभा चुनावों के दौरान भी, लेकिन कोरोना वायरस की दूसरी लहर इसी बीच आयी और चुनावी रैलियों के साथ विकराल रूप लेती गयी. हरिद्वार के कुंभ की भी भूमिका रही ही.

तीन राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनाव तो पहले तीन चरणों तक पूरे हो गये, लेकिन पश्चिम बंगाल में चुनाव जारी रहने के साथ साथ कोरोना पांव पसारता रहा और रैलियां भी होती रहीं.

ऐसे कई वाकये मिल जाएंगे जब लगेगा कि एके ज्योति जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त भी होते हैं जो टीएन शेषन की याद दिलाते हैं और बाकी भी होते हैं जिनके लिए कलकत्ता हाई कोर्ट की नसीहत है कि टीएन शेषन का 10 फीसदी भी वे अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करें तो हालात काबू में रह सकते हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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