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Updated: 08 जुलाई, 2018 07:39 PM
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सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पर अपने ऑर्डर में ज्यादातर बातें साफ कर दी है. दिल्ली न तो पूर्ण राज्य है न उसका स्टेटस फिलहाल बदलने वाला है. दिल्ली को न तो बाकी राज्यों जैसा रुतबा हासिल है न दूसरे केंद्र शासित प्रदेशों की तरह स्पेशल कैटेगरी का ठप्पा. दिल्ली तो दिल्ली है, सिर्फ दिल्ली.

दिल्ली के उप राज्यपाल का रोल भी अलग है. प्रशासक तो वो भी हैं लेकिन राज्यों के राज्यपाल की तरह रबर स्टाम्प तो बिलकुल नहीं. दिल्ली के एलजी के पास कुछ अधिकार ऐसे भी हैं जो विशेष परिस्थितियों में काम आ सकते हैं. ये बात अलग है कि विशेष परिस्थितियों को लेकर एलजी का विवेकाधिकार क्या कहता है. कुल मिलाकर कर कोर्ट का आशय यही है कि एलजी को अड़ंगे डालने की बजाये जनता द्वारा चुनी हुई दिल्ली सरकार को अपने फैसले लेने और काम करने के लिए उसकी हाल पर छोड़ देना चाहिये.

सारी बातें साफ होने के बावजूद दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर को अपने हिसाब से समझा रहे हैं - और दिल्ली के लोग चुपचाप नजारा देखने को मजबूर हैं.

झगड़ा नहीं, ये तो रगड़ा है

एक होता है झगड़ा - और दूसरा उससे बढ़कर होता है रगड़ा. दरअसल, दिल्ली में रगड़ा ही हो रहा है. झगड़ा तो सुप्रीम कोर्ट ने सुलझा दिया, लेकिन रगड़ा कौन सुलझाये? पहले भी ये रगड़ा ही था, जब दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े थे - 'खूंटा तो यहीं गड़ेगा.'

anil baijal, arvind kejriwalझगड़ा होता तो खत्म हो जाता, लेकिन रगड़ा...

अपनी तरफ से सुप्रीम कोर्ट ने तो लक्ष्मण रेखा खींच कर दोनों पक्षों की हदें साफ कर दी, लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया का लोचा बचा रह गया. यही लोचा दिल्ली के लोगों पर भारी पड़ रहा है. टीम केजरीवाल तो फैसले के बाद पूरे फॉर्म में आ चुकी है, केंद्र का रवैया जस की तस है, दलील है - "आखिर बदला क्या है?" एनडीटीवी से बातचीत में केंद्र के सीनियर लॉ ऑफिसर मनिन्दर सिंह का यही जवाब था.

लॉ अफसर समझाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ संविधान की व्याख्या की है जो एलजी को दिल्ली सरकार के हर फैसले से वाकिफ रहने और जहां कहीं भी तर्कपूर्ण मतभेद हों उसे सामने लाने की बात करता है. पहले भी तो यही बात रही. आप सरकार चाहे जितना भी जश्न क्यों न मनाये, लॉ अफसर के मुताबिक तो यथास्थिति ही बरकरार है.

ओवरएक्टिव आप सरकार को अफसरों ने दिखाया आईना

कामकाजी जीवन के रिश्ते सामाजिक जीवन से अलग होते हैं, लेकिन खराब संबंध कामकाज पर बहुत भारी पड़ते हैं. दिल्ली का प्रशासन इसकी मिसाल है. अगर आप नेताओं के रिश्ते नौकरशाहों से खराब न होते तो शायद बात इतनी जल्दी नहीं बिगड़ती. चीफ सेक्रेट्री के साथ हुई बदसलूकी के बाद से नौकरशाही तो खार खाये हुए है. जब केजरीवाल और उनके साथ अफसरों के हड़ताल के नाम पर एलजी के दफ्तर में धरने पर बैठे तो वे भी एकजुट होकर सामने आ गये. मीडिया के सामने आकर अफसरों ने बताया कि वे कतई हड़ताल पर नहीं है.

नेताओं से निपटना तो आसान होता है, नौकरशाही तो बड़े से बड़े तीसमार खां को ही निपटा देने का माद्दा रखती है. खुद भी ब्यूरोक्रेटिक बैकग्राउंट से आने वाले केजरीवाल ये बात अच्छी तरह जानते होंगे. जिसे काम करने के सौ तरीके आते हों, काम न करने के तो उसे हजार तरीके मालूम होंगे. दिल्ली के चीफ सेक्रेट्री का आरोप है कि मुख्यमंत्री की मौजूदगी में आप के दो विधायकों ने उनके साथ बदसलूकी की. दिल्ली के अफसर इसी बात से नाराज हैं. ऊपर से केजरीवाल के विरोधी खेमे का उन्हें मजबूत सपोर्ट भी हासिल है.

anil baijal, arvind kejriwalकुछ काम करो, कुछ काम...

सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर आने के बाद जैसे ही केजरीवाल और उनके साथी हरकत में आये अफसरों की जमात भी अलर्ट मोड में आ गयी. हुआ ये कि आप सरकार की ओर से सचिव (सेवा) को आधिकारिक सूचना दी गयी कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सीनियर अफसरों के तबादले और तैनाती का काम करेंगे. कुछ ही घंटे में पांच पेज का एक जवाबी नोट डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया के पास पहुंच गया. असल में, सिसोदिया के पास ही सेवाओं वाला महकमा है. जवाबी नोट में अफसरों ने बड़ी ही सहजता के साथ असमर्थता जता दी थी. नोट के सपोर्ट में केंद्रीय गृह मंत्रालय के नोटिफिकेशन की एक कॉपी भी लगी हुई थी.

सू्त्रों के हवाले से आई इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि अफसरों ने आप सरकार को साफ तौर पर बता दिया कि मई, 2015 का केंद्रीय गृह मंत्रालय का नोटिफिकेशन राष्ट्रपति की ओर से है और जब तक उसे खारिज नहीं किया जाता वो प्रभावी रहेगा.

सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर आने के बाद दिल्ली कैबिनेट ने तबादलों और तैनाती को लेकर एक सिस्टम भी बना लिया था. इसमें बताया गया कि मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और बाकी मंत्रियों के जिम्मे तबादले और तैनाती के क्या अधिकार होंगे.

कुछ काम करो, दिल्ली में रह कर कुछ नाम करो!

असल बात तो ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने केजरीवाल को ये मौका दिया है कि वो काम करें. दिल्ली में रुके पड़े कामों को पूरा करने का मौका है. लेकिन केजरीवाल ने इसे केंद्र की तरफ तानी हुई अपनी बंदूक के लिए कारतूस समझ लिया है.

अगर केजरीवाल को दिल्ली की वाकई फिक्र होती तो वो टकराव टालते हुए लोकहित में काम पर फोकस करते. आखिर मोहल्ला क्लिनिक कैसे शुरू हुए? दिल्ली के सरकारी स्कूलों का कायापलट कैसे हुआ?

बाकी कामों की तरह देखा जाये तो ये भी झगड़े की भेंट चढ़ जाने चाहिये, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अगर मोहल्ला क्लिनिक और सरकारी स्कूलों में सुधार हो सकता है तो बाकी कुछ जरूरी काम क्यों नहीं?

दिल्ली की ये स्थिति तो तब भी रही जब शीला दीक्षित मुख्यमंत्री रहीं. तब प्लस प्वाइंट ये था कि केंद्र में भी कांग्रेस के ही नेतृत्व वाली सरकार रही - फिर तो टकराव का मतलब ही नहीं बनता. यही कंडीशन तब भी हो सकती है जब केंद्र के साथ साथ दिल्ली में भी बीजेपी की सरकार होती. बैकडोर से बीजेपी ने कोशिश तो की ही थी, लेकिन कपिल मिश्रा के कंधे पर बंदूक चलाने में कुमार विश्वास फेल हो गये. वैसे इस इल्जाम का कॉपीराइट भी टीम केजरीवाल के पास ही है. मुमकिन है केजरीवाल की जगह कोई अन्य मुख्यमंत्री होता तो माजरा कुछ और भी हो सकता था.

फैसले का फायदा उठाते हुए केजरीवाल एंड कंपनी को तो ये करना चाहिये था कि छूटे पड़े काम पूरा करने में जुट जाते. विडंबना देखिये, कि शुरुआत ही ऐसी की कि टकराव न होने का स्कोप ही न रहे. पहले काम शुरू करते फिर ट्रांसफर पोस्टिंग होती रहती. काम करने पर केजरीवाल को लोगों का सपोर्ट भी बढ़ता. विरोधी पक्ष अपनेआप एक्सपोड होता. सुप्रीम कोर्ट ने बड़े ही सीधे शब्दों में समझाने की कोशिश की है कि अराजकता तो नहीं बिलकुल नहीं चलेगी. मगर, केजरीवाल एंड कंपनी जो कर रही है उसे क्या समझा जाये? केजरीवाल ने तो दुश्मनों को बैठे बिठाये मौका दे डाला है.

अव्वल तो ये होता कि केजरीवाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का फायदा उठाते हुए काम पर फोकस करते. मगर, अफसोस आंदोलनवादी राजनीति चालू है. बात पते की तो सिर्फ इतनी है कि अगर केजरीवाल अधिकारों की जंग की जगह कर्तव्यों पर ध्यान दें तो सारा झगड़ा ही खत्म हो जाये. मजे की बात ये है कि केजरीवाल भी इससे इत्तेफाक रखते लगते हैं, लेकिन चाहते हैं को अमल वो नहीं कोई और करे.

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