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Updated: 09 जून, 2021 07:56 PM
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किसान नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) ने खुल कर राजनीतिक मदद लेने की कोशिश शुरू कर दी है. पहले तो संयुक्त किसान मोर्चा का साफ साफ स्टैंड था कि किसान आंदोलन का राजनीतिक दलों से कोई मतलब नहीं होना चाहिये. बाद में बदलते हालात और राकेश टिकैत की मंशा को भांप कर सयुंक्त मोर्चा ने नेताओं को किसानों के बीच बैठाने की अनुमति तो दे दी, लेकिन मंच से दूर ही रखने को कहा था.

किसान आंदोलन (Farmers Issue) को केंद्र की बीजेपी सरकार के खिलाफ विपक्षी राजनीतिक दलों का सपोर्ट तो पहले से ही मिलता रहा, लेकिन पहला मजबूत सपोर्ट राष्ट्रीय लोक दल के नेता अजीत सिंह की तरफ से आया, जब दिल्ली बॉर्डर पर टीवी इंटरव्यू के दौरान ही राकेश टिकैत सिसकते हुए आंसू नहीं रोक पाये. अजीत सिंह के निधन के बाद उनके बेटे जयंत चौधरी पर अब चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने की जिम्मेदारी आ पड़ी है, लेकिन ऐसा लगता है जैसे राकेश टिकैत को आरएलडी के नये नेतृत्व से ज्यादा उम्मीद नहीं है.

जयंत चौधरी ही क्यों राकेश टिकैत की कोलकाता जाकर ममता बनर्जी से मुलाकात के कार्यक्रम देख कर तो ऐसा लगता है, जैसे विपक्षी खेमे के सारे नेताओं से वो पूरी तरह नाउम्मीद हो चुके हैं - शायद उन सभी से भी जो मुजफ्फर नगर में आयोजित किसान महापंचायत तक उनका सपोर्ट करने पहुंचे थे और उनसे भी जो जगह जगह किसानों के सपोर्ट में किसान महापंचायत कराते रहे.

राकेश टिकैत पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान बीजेपी के खिलाफ घूम घूम कर वोट भी मांगे थे - और नंदीग्राम भी गये थे, लेकिन ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) वहां बीजेपी उम्मीदवार अपने ही पुरानी करीबी नेता शुभेंदु अधिकारी से चुनाव हार गयीं. अब उनके चुनाव लड़ने के लिए उनकी परंपरागत भवानीपुर सीट खाली कर दी गयी है.

पहले तो ये समझना जरूरी है कि राकेश टिकैत को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री में ऐसा क्या दिखायी दे रहा है कि किसान आंदोलन के लिए सपोर्ट हासिल करने खातिर वो कोलकाता पहुंच गये - और उससे भी महत्वपूर्ण ये समझना है कि ममता बनर्जी के पास राकेश टिकैत को देने के लिए क्या है?

टिकैत बाकी नेताओं से निराश क्यों?

अभी 26 मई को ही दिल्ली में किसान आंदोलन के छह महीने पूरे हुए हैं - और ठीक उसी दिन केंद्र की बीजेपी सरकार को भी सात साल पूरे हुए थे जिसे किसानों ने काला दिवस के तौर पर मनाया था. बीजेपी की तरफ से किसी तरह का जश्न न मनाने का फैसला पहले से ही कर लिया गया था.

किसानों के विरोध के छह महीने पूरे होने पर 12 राजनीतिक दलों की तरफ से आंदोलन के सपोर्ट में एक संयुक्त बयान भी जारी किया गया था और उनमें ममता बनर्जी भी शामिल थीं. ममता बनर्जी के अलावा बाकी नेता थे - सोनिया गांधी, एचडी देवगौड़ा, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, एमके स्टालिन, हेमंत सोरेन, फारूक अब्दुल्ला, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, डी राजा और सीताराम येचुरी.

rakesh tikat, mamata banerjee, priyanka gandhi vadraराकेश टिकैत को ममता बनर्जी से फायदा मिले न मिले, तृणमूल कांग्रेस के लिए ये मुलाकात फायदेमंद जरूर रहेगी.

मायावती के साथ साथ आरएलडी नेता जयंत चौधरी का भी नाम बयान पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल नहीं था - वजह जो भी हो. मायावती के साथ साथ अरविंद केजरीवाल का नाम भी नहीं था. अरविंद केजरीवाल को विपक्षी खेमे से ममता बनर्जी की जबरदस्त पैरवी के बावजूद कांग्रेस के चलते अलग ही रखा जाता है. हालांकि, ममता बनर्जी के नये अवतार में सामने आने के बाद अरविंद केजरीवाल भी विपक्षी खेमे के करीब लगने लगे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित हाल की अरविंद केजरीवाल की प्रेस कांफ्रेंस में तो ऐसा ही नजर आया था.

जहां तक किसान आंदोलन के सपोर्ट का सवाल है, अरविंद केजरीवाल खुल खासी दिलचस्पी ले रहे थे ताकि दिल्ली की सीमा पर किसानों को किसी तरह की दिक्कत न हो. अरविंद केजरीवाल की कोशिशों में कोई कमी न रह जाये, इसका जायजा लेने मनीष सिसोदिया मौके पर पहुंच कर मुआयना भी कर आये थे. और तो और आम आदमी पार्टी सांसद संजय सिंह तो किसानों के समर्थन में मुजफ्फरनगर तक महापंचायत में हिस्सा लेने भी पहुंचे थे.

किसानों की महापंचायत तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की तरफ से भी करायी गयी थी - और राकेश टिकैत से फोन पर बात होने की भी खबरआयी थी. राहुल गांधी ने तो दो-दो बार राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति भवन जाकर तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने को लेकर ज्ञापन भी सौंप आये थे. राष्ट्रपति भवन तक मार्च करने की कोशिश में प्रियंका गांधी ने गिरफ्तारी भी दी थी. किसानों के सपोर्ट में काफी दिनों तक कांग्रेस सांसदों ने जंतर मंतर पर धरना भी दिया था.

कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने तो किसान आंदोलन को सपोर्ट कर एक्सचेंज ऑफर में पंजाब में हुए पंचायत चुनाव में जीत भी हासिल कर ली - और कुछ ही दिन बाद यूपी पंचायत चुनावों में अपने गढ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीजेपी और योगी आदित्यनाथ सरकार को सबक सिखाने की कोशिश भी की, चुनाव नतीजों से तो ऐसा ही लगता है.

पंचायत चुनावों में बीजेपी के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन का दावा करने वाले अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी अब भी जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी का ही सपोर्ट करती है - स्वराज आंदोलन वाले योगेंद्र यादव भी शुरू से ही किसान आंदोलन से जुड़े हुए हैं और 26 जनवरी के ट्रैक्टर रैली को लेकर वो पहले से ही काफी उत्साहित नजर आ रहे थे, लेकिन दिल्ली हिंसा के बाद उनको भी बैकफुट पर जाना पड़ा.

हरसिमरत कौर बादल ने तो किसानों के सपोर्ट में केंद्र की मोदी सरकार की कैबिनेट से भी इस्तीफा दे दिया था और अकाली दल ने भी एनडीए से नाता तोड़ लिया - लेकिन किसानों की तरफ से ऐसा लगा जैसे किसी ने पूरे वाकये को गंभीरता से लिया तक नहीं.

ऐसे में जबकि उत्तर भारत, खासकर हिंदी पट्टी के ज्यादातर नेता किसानों के साथ खड़े हैं या फिर आंदोलन में सीधी भागीतारी के लिए तत्पर दिखते हैं - आखिर क्या वजह हो सकती है कि ममता बनर्जी की तरफ राकेश टिकैत खिंचे चले जा रहे हैं.

ममता के पास किसानों के लिए क्या है?

बेशक ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मोदी-शाह के नाम से मशहूर जोड़ी को चुनावी राजनीति में भारी शिकस्त दी है.

निश्चित तौर पर ममता बनर्जी ने बहुत बड़ा जोखिम लेते हुए खुद अपनी सीट हार कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को 2016 के मुकाबले ज्यादा सीटें दिलायी है.

ये भी सही है कि ममता बनर्जी राष्ट्रीय फलक पर मोदी-शाह विरोध की विपक्षी राजनीति में ताकतवर चेहरा बन कर उभरी हैं - और कांग्रेस को छोड़ कर विपक्षी खेमे के नेता उनको बंगाल की शेरनी के रूप में देखने लगे हैं, लेकिन क्या ये किसानों के आंदोलन को आगे बढ़ाने में भी उतना ही मददगार साबित हो सकता है?

आखिर क्या वजह है कि राकेश टिकैत को ममता बनर्जी में इतनी उम्मीद नजर आने लगी है - क्या सिर्फ इसलिए कि वो मोदी-शाह को बंगाल में शिकस्त दे चुकी हैं?

और बंगाल के बाद अब ममता बनर्जी की नजर दिल्ली पर जा टिकी है, राकेश टिकैत को मालूम होना चाहिये कि विपक्षी राजनीति में इतने लोचे हैं कि ममता बनर्जी के लिए ये सब इतना आसान नहीं है.

राकेश टिकैत अगर बीजेपी पर दबाव बनाने की इच्छा रखते हैं तो मालूम होना चाहिये कि ममता बनर्जी को यूपी में कोई भी नहीं पूछने वाला, भले ही टीएमसी की यूपी यूनिट 2005 से एक्टिव क्यों रही है.

ये तो राकेश टिकैत को भी याद होगा कि बिहार चुनाव में मोदी-शाह को ममता बनर्जी की ही तरह शिकस्त देने के बाद नीतीश कुमार भी चुनाव नजदीक आते देख यूपी का लगातार दौरा कर रहे थे. जहां कहीं भी नीतीश कुमार की बिरादरी के लोगों की आबादी ज्यादा होती, उनका सम्मेलन जरूर कराया जाता. नीतीश कुमार यूपी के छोटे छोटे दलों को मिलाकर मोर्चा भी खड़ा करना चाहते थे और उसमें आरएलडी की तरफ से जयंत चौधरी को सत्ता में आने पर डिप्टी सीएम बनाने तक की शर्त रखी गयी थी - लेकिन ये सब ज्यादा नहीं चला और थक हार कर नीतीश कुमार पटना लौट कर शांत हो गये. यूपी चुनाव खत्म होने के कुछ दिन बाद ही नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ कर बीजेपी से हाथ मिलाते हुए एनडीए में घर वापसी करा ली.

बिहार के साथ साथ यूपी, पंजाब और हरियाणा जैसे हिंदी बोले जाने वाले राज्यों में तो ममता बनर्जी के मुकाबले नीतीश कुमार को ज्यादा ही पसंद किया जाएगा. राजनीति में क्रिकेट की तरह कुछ भी संभव होता है और जैसी चर्चाएं चलती रहती हैं, हो सकता है ममता बनर्जी भी अरविंद केजरीवाल की तरह वाराणसी सीट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनावी चैलेंज देने को तैयार हो जायें, लेकिन ये भी तो संभव है कि एक बार फिर उनको शुभेंदु अधिकारी जैसी ही शिकस्त मिले. ये जरूरी तो नहीं कि बंगाल फॉर्मूला पूरे देश में चल भी जाये और ममता बनर्जी मोदी से चुनावी मैदान में हार कर विपक्षी मोर्चे को देश भर में बहुमत दिला दें - काफी कुछ संभव होता तो है, लेकिन सबकुछ तो नहीं ही होता.

असल बात तो ये है कि जैसे ममता बनर्जी मोदी-शाह को पश्चिम बंगाल में बाहरी कह कर बुला रही थीं - अगर किसानों के सपोर्ट में यूपी के मैदान में पहुंचीं तो वे भी बाहरी होने के तमगे से ही नवाजी जाएंगी और किसानों को उसकी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है.

बड़ा सवाल ये है कि जितनी बड़ी उम्मीद लेकर राकेश टिकैत कोलकाता जाकर ममता बनर्जी से मिल रहे हैं - क्या ममता बनर्जी के पास वास्तव में राकेश टिकैत को देने के लिए कुछ हो सकता है? ऐसा जरूर लगता है कि ममता बनर्जी को बंगाल से बाहर पांव जमाने में किसान आंदोलन से मदद जरूर मिल सकती है - क्योंकि किसान आंदोलन का व्यापक राष्ट्रीय स्वरूप है और यूपी, हरियाणा, पंजाब जैसे राज्यों में किसानों का सीधा दखल भी है.

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