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Updated: 11 जून, 2020 09:57 PM
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जब से राज्य सभा चुनाव (Rajya Sabha election) का चक्र चला है, कांग्रेस की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं. ये राज्य सभा चुनाव ही तो रहा जो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ले डूबा. गुजरात में भी कांग्रेस को अपने विधायक गंवाने पड़े - और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस को जो झटका दिया उसके बाद से कांग्रेस कदम कदम पर मुश्किलों से जूझ रही है.

राज्य सभा चुनाव के चलते ही फिलहाल राजस्थान में तनावपूर्ण माहौल बना हुआ है, हालांकि, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तरफ से बार बार स्थिति नियंत्रण में बतायी जा रही है. खुले तौर पर अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के निशाने पर नजर तो बीजेपी (Rajasthan BJP) ही आ रही है, लेकिन सचिन पायलट (Sachin Pilot) की तरफ भी कुछ कुछ संदेह की आंच और लपटें घूम रही हैं. ऐसे में सचिन पायलट को भी सफाई देनी पड़ रही है. अभी मध्य प्रदेश जैसी कोई खिचड़ी भले ही नहीं पक रही हो, लेकिन सचिन पायलट भी नपे तुले बयान वैसे ही दे रहे हैं जैसे लॉकडाउन से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुंह से बातें सुनने को मिल रही थीं.

अब ये तो है कि सचिन पायलट भी वैसी ही नाव पर सवार हैं, जैसी नाव लेकर सिंधिया कांग्रेसी भंवर में जूझ रहे थे - और जब किनारे पहुंचे तो सबसे करीब बीजेपी नजर आयी और उसी के होकर रह गये. सिंधिया के फैसला ले लेने के बाद सचिन पायलट पर भी निगाहें वैसे ही टिकी थीं, लेकिन सचिन पायलट अभी तक सिस्टम में रह कर ही हालात से जूझने के फैसले पर कायम हैं. इसमें तो कोई शक नहीं कि सचिन पायलट को अशोक गहलोत वैसे ही फूटी आंख भी नहीं सुहाते होंगे जैसे सिंधिया को कमलनाथ.

बहरहाल, राजस्थान के मामले में फिलहाल ये समझना ये जरूरी है कि अगर वास्तव में कोई खतरा है तो वो सिर्फ राज्यसभा सीटों तक ही सीमित है या फिर अशोक गहलोत सरकार पर भी है? एक जुड़ता और ज्यादा अहम सवाल ये भी है कि अगर अशोक गहलोत को लगा कि सरकार जा सकती है तो वो किस हद तक जा सकते हैं?

गहलोत सरकार खतरे में है, या नहीं है?

कांग्रेस ने 110 विधायकों को दिल्ली रोड पर जयपुर के एक रिसॉर्ट में ठहराया है. विधायकों में निर्दलीय भी हैं. विधायकों के साथ ऐसा व्यवहार हालिया राजनीति में कम से कम दो स्थितियों में जरूर हो रही है - एक, जब राज्य सभा के चुनाव होने वाले होते हैं और दो, जब किसी राज्य में सरकार बनने या बिगड़ने वाली होती है. सरकार बनने वाली स्थिति के लिए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से लेकर उद्धव ठाकरे के शपथग्रहण तक की अवधि को याद कर सकते हैं - और सरकार बिगड़ने की मिसाल कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी और मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार की कहानी को याद किया जा सकता है.

राजस्थान में मामला तो ऊपर से राज्य सभा चुनाव का लगता है, लेकिन क्या पता - मध्य प्रदेश में भी सारी राजनीतिक उठापटक की नींव राज्य सभा चुनाव को लेकर ही पड़ी थी. क्या हुआ और सब कैसे हुआ आपको एक एक वाकया याद होगा ही. अभी कितने दिन हुए ही. कुमारस्वामी तो शांत हो गये, लेकिन कमलनाथ तो पलटवार की तैयारी में जुटे हुए हैं. हाल ही में छिंदवाड़ा पहुंच कर भी अपने पुराने तेवर दिखाने की कोशिश कर ही रहे थे.

सवाल है कि राजस्थान की राजनीतिक गतिविधियां राज्य सभा चुनाव तक ही सीमित रह जाने वाली हैं या फिर अशोक गहलोत के हाथों की लकीर भी कमलनाथ की तरह कोई अंगड़ाई ले रही है?

gehlot-pilot-650_061120055109.jpgअशोक गहलोत की सारी सक्रियता का फोकस सचिन पायलट तो नहीं है?

राज्य सभा की 3 सीटों के लिए 19 जून को चुनाव होने वाले हैं - और 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में जीत के लिए हर प्रत्याशी को 51 वोटों की जरूरत होगी. अगर मैदान में तीन ही उम्मीदवार होते तो कोई बात ही नहीं होती - सभी निर्विरोध जीत चुके होते. मामला फंस रहा है कि चार-चार उम्मीदवारों के मैदान में उतर जाने से. कांग्रेस ने संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल और नीरज डांगी को अपना उम्मीदवार बनाया है, जबकि बीजेपी ने राजेंद्र गहलोत के साथ साथ ओंकार सिंह लखावत को भी अपने दूसरे प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतार दिया है.

विधानसभा में संख्या बल के चलते सत्ता में होने और उसके नाते कांग्रेस का पलड़ा भारी है. वैसे कांग्रेस का तो दावा है कि उसे 123 विधायकों का समर्थन हासिल है. कांग्रेस निर्दलीयों और बीएसपी से कांग्रेस में शामिल हुए विधायकों को भी जोड़ कर पेश कर रही है. बीजेपी के पास 72 और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के तीन विधायक भी उसी का समर्थन कर रहे हैं. गणित के हिसाब से जो समीकरण बन रहे हैं उसमें कांग्रेस भी दो सीटें आराम से जीत जाएगी, लेकिन अगर बीजेपी ने ऑपरेशन कमल जैसा कोई कमल दिखाया तो कांग्रेस के लिए राज्य सभा की सीटें जीतनी मुश्किल तो होगी ही अशोक गहलोत के भी कमलनाथ गति को प्राप्त होते देर नहीं लगने वाली है.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कह रहे हैं, 'हमारे विधायक बहुत समझदार हैं... वे समझ गये. उन्हें खूब लोभ लालच देने की कोशिश की गयी, लेकिन ये हिंदुस्तान का एक मात्र राज्य है जहां एक पैसे का सौदा नहीं होता. ये इतिहास में कहीं नहीं मिलेगा. मुझे गर्व है कि मैं ऐसी धरती का मुख्यमंत्री हूं जिसके लाल बिना सौदे के बिना लोभ लालच के सरकार का साथ देते हैं कि सरकार स्थिर रहनी चाहिए राज्य में.'

और तभी लगे हाथ, अशोक गहलोत बीजेपी पर विधायकों की खरीद फरोख्त का इल्माज जड़ देते हैं. रिजॉर्ट में रखे गये कांग्रेस विधायकों लेकर कोई कह रहा है कि वे पॉलिटिकल क्वारंटीन में हैं तो कोई लॉक-अप रखा हुआ बता रहा है. तभी कांग्रेस सरकार में मंत्री विश्वेंद्र सिंह भरतपुर ट्विटर पर रणदीप सुरजेवाला के साथ एक तस्वीर में पेश होते हैं और समझाते हैं कि सब मजे में हैं.

अशोक गहलोत के हॉर्स ट्रेडिंग के आरोपों पर बीजेपी ने साफ साफ कह दिया है कि किसी को पैसे का कोई ऑफर दिया ही नहीं गया है. यहां तक कि राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट भी ऐसी कोई जानकारी होने से इंकार कर रहे हैं - फिर तो सवाल उठता है कि अशोक गहलोत सरकार बचाने के नाम पर किसी और पॉलिटिकल लाइन पर काम तो नहीं कर रहे हैं?

निशाने पर सचिन पायलट तो नहीं?

कांग्रेस पार्टी के हिसाब से देखें तो राजस्थान में राज्य सभा का ये चुनाव लगभग उतना ही महत्वपूर्ण हो चला है जितना 2017 में गुजरात में हुआ राज्य सभा का चुनाव. वो चुनाव कांग्रेस नेता अहमद पटेल के चलते अहम हो गया था और ये कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल के कारण.

केसी वेणुगोपाल, राहुल गांधी के उतने ही भरोसेमंद हैं जितने सोनिया गांधी के लिए अहमद पटेल. जैसे अहमद पटेल सोनिया गांधी के बरसों पुराने राजनीतिक सलाहकार रहे हैं, वैसे केसी वेणुगोपाल तो नहीं हैं, लेकिन याद रहे अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने पर केसी वेणुगोपाल को ही संगठन में वो पद दिया गया. ये वही पद है जिस पर लंबे अरसे तक जनार्दन द्विवेदी हुआ करते थे और एक दिन ऐसा आया जब अपने ही हस्ताक्षर से जारी पत्र के जरिये अपनी जगह अशोक गहलोत की नियुक्ति की सूचना जारी करनी पड़ी.

सचिन पायलट फिलहाल अशोक गहलोत सरकार में ही डिप्टी सीएम हैं और साथ में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी, ऐसे में विधायकों की खरीद फरोख्त की उनके पास कोई जानकारी न होना काफी अजीब लगता है. ये ऐसी कौन सी एक्सक्लूसिव जानकारी है जो सिर्फ मुख्यमंत्री मंत्री अशोक गहलोत के पास है और उनकी सरकार में साथी डिप्टी सीएम को उसकी भनक तक नहीं लग रही है?

पूछे जाने पर सचिन पायलट का जवाब होता है - पता नहीं किस विधायक को कौन ऑफर कर रहा है? फिर कहते हैं, अगर ऐसा है तो उसकी जांच होनी चाहिए. साथ में, ये दावा भी कि कांग्रेस एकजुट है.

याद कीजिये जब कमलनाथ सरकार के खिलाफ साजिशें चल रही थीं तो ज्योतिरादित्य सिंधिया भी ऐसे ही अनभिज्ञ बने हुए थे. सचिन पायलट भी बिलकुल वैसी स्थिति में तो नहीं लगते क्योंकि बीजेपी की तरफ से वैसी कोई हरकत नजर नहीं आयी है जैसी तब देखने को मिली थी.

राजस्थान और मध्य प्रदेश में एक बड़ा फर्क भी है - मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दोनों कमलनाथ ही थे - राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैं तो पीसीसी अध्यक्ष सचिन पायलट हैं - और दोनों को ही उस दिन का इंतजार है जब लोह गर्म हो और अपने तरीके से ऐसा वार करें कि सब कुछ एक झटके में हाथ में आ जाये.

ऐसा कैसे मुमकिन है कि विधायकों के खरीद फरोख्त की पूरी गोपनीय जानकारी अशोक गहलोत के पास हो और सचिन पायलट के पास बिलकुल न हो. ऐसा तभी हो सकता है जब सचिन पायलट का अपने विधायकों से कोई संपर्क न रह गया हो और सारे के सारे अशोक गहलोत के साथ हो गये हों. ये भी संभव नहीं लगता क्योंकि ऐसी सूरत में अशोक गहलोत बहुत पहले ही सचिन पायलट को बाहर का रास्ता दिखा चुके होते.

एक सवाल और जरूर उठता है - कहीं अशोक गहलोत के मन में सचिन पायलट को प्रदेश कांग्रेस की कुर्सी से बेदखल करने का कोई आइडिया तो आ रहा है - और वो अपने तरीके से रास्ते के कांटे को सरकार बचाने के नाम पर कांग्रेस आलाकमान को सचिन पायलट की बलि देने की सलाह देने का माहौल तैयार कर रहे हों - बिलकुल वैसे ही जैसे कोई भी तांत्रिक जब किसी को झांसे में ले लेता है तो डरा-धमका कर बलि दिलाने की कोशिश करता है. अशोक गहलोत तांत्रिक तो नहीं है, लेकिन पेशेवर और खानदानी जादूगर जरूर रहे हैं.

अशोक गहलोत के लिए ये सब जरा भी आसान नहीं होगा क्योंकि दोनों ही गांधी परिवार के करीबी हैं. ऊपर से सिंधिया एपिसो़ड के बाद कांग्रेस सचिन पायलट को लेकर कोई रिस्क नहीं लेना तो नहीं ही चाहेगी. ये ठीक है कि अशोक गहलोत को समर्पित और करीबी होने के कारण कांग्रेस बहुत नाराज भी नहीं करेगी, लेकिन सचिन पायलट लंबी रेस के घोड़े हैं - ये भी ध्यान तो रहेगा ही. कम से कम तब तक जब तक विनाश काले विपरीत बुद्धि का प्रभाव न हो.

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