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Updated: 02 मार्च, 2020 10:42 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कन्हैया कुमार केस में दिल्ली सरकार के फैसले के बाद सवाल खड़ा हो गया है कि अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) ने मुकदमा चलाने की मंजूरी जनता के दबाव में दिया - या फिर ये उनकी नयी राजनीतिक लाइन की तरफ कोई इशारा है? अरविंद केजरीवाल की राजनीति अपनी राह बदल रही है इस बात के संकेत तो पहले ही मिलने लगे थे, लेकिन कन्हैया कुमार और जेएनयू विवाद से जुड़े बाकियों के मामलें में मुकदमा चलाने को हरी झंडी देकर अरविंद केजरीवाल संकेतों के सबूत भी देने लगे हैं.

अरविंद केजरीवाल के इस कदम पर बीजेपी तो सवाल उठा ही रही है, कांग्रेस के नेता भी ऐतराज भरी टिप्पणी कर रहे हैं. पी. चिदंबरम ने जहां देशद्रोह कानून की समझ को लेकर दिल्ली सरकार पर सवाल उठाया था, वहीं शशि थरूर ने यहां तक कह दिया है कि 'जीत कर जो हार जाये उसे केजरीवाल कहते हैं.' हालांकि, कांग्रेस की तरफ से आधिकारिक तौर पर केजरीवाल के फैसले पर कोई बयान नहीं आया है.

कन्हैया कुमार पर अरविंद केजरीवाल के फैसले का थोड़ा ही सही, तात्कालिक फायदा तो नीतीश कुमार को मिल ही सकता है. नीतीश कुमार ने दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल के खिलाफ अमित शाह के साथ चुनाव प्रचार भी किया था - लेकिन अरविंद केजरीवाल आज कल किसी को पहले की तरफ बुरा-भला कहते कहां हैं?

जिस राजनीतिक लाइन के साथ अरविंद केजरीवाल आगे बढ़ने लगे हैं और जिस हिसाब से केंद्र सरकार की हां में हां मिलाने लगे हैं, ऐसा ही कभी नीतीश कुमार भी किया करते थे - और ये बात उनकी एनडीए में री-एंट्री से ठीक पहले की है.

अब तो ऐसा लगने लगा है जैसे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की तरह उसी राह पर चल पड़े हैं जिसकी मंजिल को एनडीए (NDA) कहते हैं!

जैसे नीतीश ने पाला बदला और केजरीवाल भी बदल गये

ठीक पांच साल पहले अरविंद केजरीवाल और नीतीश कुमार राजनीति के उसी छोर पर खड़े थे जहां से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विरोध के मजबूत स्वर सियासी हवाओं में गूंजा करते थे. अब ऐसा दोनों ही नहीं करते - एक नेता खुलेआम PM मोदी की तारीफ करता है और दूसरा, दबी जबान मोदी सरकार 2.0 पर भरोसा जताने लगा है. नीतीश कुमार ने ये पहले से करना शुरू कर दिया था, अरविंद केजरीवाल अब ये करने लगे हैं.

अपने जन्म दिन के मौके पर जेडीयू कार्यकर्ताओं की रैली में नीतीश कुमार NDA की तारीफ में ऐसे कसीदे पढ़े कि खुद ही सवालों के कठघरे में खड़े हो गये. नीतीश बोले, 'NDA के शासन में कानून व्यवस्था बेहतर हुई है - और देश में आबादी के हिसाब से अपराध का अनुपात बिहार में कम हुआ है...'

क्या नीतीश कुमार ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि जब से वो बीजेपी के साथ मिल कर एनडीए की सरकार चला रहे हैं बिहार की कानून व्यवस्था में सुधार हुआ है. तो क्या उनके कहने के मतलब ये है कि उनके एनडीए में आने से पहले कानून व्यवस्था ऐसी नहीं थी. ऐसा कह कर क्या नीतीश कुमार अपनी एनडीए में आने से पहले वाली सरकार पर सवाल नहीं उठा रहे हैं? एनडीए की केंद्र सरकार को लेकर अरविंद केजरीवाल भी ऐसा ही भरोसा जता चुके हैं दिल्ली दंगों के मामले में. अरविंद केजरीवाल समझा चुके हैं कि केंद्र सरकार दिल्ली पुलिस की मदद से कानून व्यवस्था को सामान्य बना देगी. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद भी अरविंद केजरीवाल में वैसा ही भरोसा देखने को मिला था.

शायद यही भरोसा रहा होगा कि दिल्ली में दंगे शुरू हो जाने के तीन दिन बाद तक वो चुपचाप निश्चिंत होकर बैठे रहे - और बाकी लोग समझ रहे थे कि अरविंद केजरीवाल अपने पास दिल्ली पुलिस के न होने के चलते ऐसा कर रहे हैं ताकि उन पर कोई दोष न आ जाये.

arvind kejriwalअरविंद केजरीवाल भी नीतीश कुमार के रास्ते पर चल पड़े हैं

नीतीश कुमार को भी पहले उन सभी बातों से परहेज हुआ करता था जिनसे मुस्लिम वोट प्रभावित होता हो, लेकिन अब ऐसी बात नहीं रही. अब वो हर बात का क्रेडिट एनडीए शासन को देने लगे हैं - 'हमने भागलपुर दंगे के दोषियों को न्याय के कटघरे में लाकर पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित किया.'

नीतीश कुमार कहते हैं कि आरजेडी और कांग्रेस ने तो सिर्फ वोट लिया, मुसलमानों के लिए काम तो एनडीए शासन ने किया.

अरविंद कुमार अभी वहां तक तो नहीं पहुंचे हैं लेकिन देश की अर्थव्यवस्था पर सवाल उठाता है या जीडीपी गिरने पर शोर मचता है तो बड़े आराम से कहते हैं - वित्त मंत्री जी सब ठीक कर देंगी.

और ये तो ऐलान हो ही चुका है कि दिल्ली और केंद्र सरकार मिल कर दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाएंगे - और इसका नमूना भी अरविंद केजरीवाल के तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही नजर भी आने लगा है.

विचारधारा जैसी बाध्यता भी तो नहीं है

चुनावों के दौरान एक अंडर करंट देखा जाता है और ये हार जीत की लाइन तय करता है. अंडर करंट में कुछ बातें होतीं हैं जो महज दबी जबान चर्चाओं का हिस्सा हुआ करती हैं. ऐसी ही चर्चाओं में एक था - केंद्र में मोदी और दिल्ली में केजरीवाल. दिल्ली में भले ही काम बनाम पाकिस्तान का शोर सुनाई दिया हो, लेकिन अंडर करंट ऐसा ही था.

केजरीवाल भी अब उसी तरह की बातें करने लगे हैं जैसा पटना के गांधी मैदान में नीतीश कुमार का भाषण चल रहा था - CAA पर बीजेपी के साथ जरूर हूं, लेकिन NRC पर नहीं. नीतीश कुमार तकरीबन उन सभी मसलों पर बीजेपी के साथ हो चले हैं जिनसे विरोध के चलते वो एनडीए से अलग होकर राजनीति करना चाहते थे. नीतीश कुमार को समझ आ चुका है कि जातीय वोटों का इंतजाम तो वो पहले ही कर चुके हैं - रही बात मुस्लिम वोटों की तो मौजूदा माहौल में छोटे फायदे के लिए बड़े नुकसान उठाने का क्या मतलब रह जाता है. अरविंद केजरीवाल ने भी राजनीतिक की वही राह पकड़ ली है.

हिंदुत्व की राजनीतिक राह पर निकल पड़े अरविंद केजरीवाल कहीं से भी राहुल गांधी की तरह कन्फ्यूज नहीं हैं. केजरीवाल का स्टैंड बिलकुल साफ है - वो मंदिर जाने के बावजूद राहुल गांधी की तरह वंदे मातरम और भारत माता की जय बोलने से परहेज नहीं करते - बल्कि खुद ही ये नारे लगाने लगे हैं.

आम आदमी पार्टी हालात से उपजी राजनीतिक पार्टी है. अरविंद केजरीवाल ने एक गैप देखा. उसमें फिट होने की कोशिश की - और कामयाब भी हो गये.

आम आदमी पार्टी के साथ विचारधारा की भी कोई बाध्यता नहीं है - क्योंकि वहां कोई विचारधारा है ही नहीं. यहां तक कि शिवसेना और कांग्रेस के मिल कर गठबंधन बनाने में मुश्किलें आयी थीं - लेकिन केजरीवाल के साथ तो ऐसा कभी नहीं रहा.

2013 में कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन कर अरविंद केजरीवाल राजनीति में आये. शीला दीक्षित के खिलाफ चुनाव लड़ कर कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया - और फिर कांग्रेस के समर्थन से ही पहली सरकार भी बना ली. 2019 के आम चुनाव के दौरान कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए भी मामूली पैंतरेबाजी नहीं की.

चुनाव तो अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी लड़ चुके हैं - बस बीजेपी के साथ मिल कर सरकार बनाना बाकी रह गया है. जिस दिन बीजेपी की तरफ से ग्रीन सिग्नल मिला भगवा से भी परहेज का दिखावा खत्म हो जाएगा.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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