सरदार के सपने और नेहरू के संकल्प को मोदी ने दिया आयाम
1993-94 में एक स्वतंत्र एजेंसी ने अपनी जांच में सरदार सरोवर बांध को असफल बताया था. इसके पहले 1992 में विश्वबैंक ने भी अपनी जांच में बताया था कि बांध के निर्माण से बहुत नुकसान होगा और हजारो गांव पानी में डूब जाएंगे.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 67वें जन्मदिन पर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जल परियोजना सरदार सरोवर डैम देश को समर्पित किया. निश्चित तौर पर उन्होंने इतिहास का नया अध्याय लिखा है. 56 साल से जो महात्वाकांक्षी परियोजना तकनीकी और दूसरे गतिरोध की वजह से ठप पड़ी थी उसे उन्होंने मूर्तरुप दिया है. हलांकि इसके पीछे भाजपा और पीएम मोदी की छुपी राजनीतिक इच्छाओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता है.
परियोजना के शुभारंभ के मौके पर उन्होंने विरोधियों पर जमकर हमला बोला. कांग्रेस और पर्यावरणविदो को उन्होंने इसके लिए कटघरे में भी खड़ा किया. परियोजना के पूरा होने से जहां गुजरात और राजस्थान के कुछ इलाकों में पानी की समस्या का समाधान होगा. वहीं महाराष्ट, मध्यप्रदेश और गुजरात को पर्याप्त बिजली मिलेगी और पर्यटन का भी विकास होगा.
सरदार पटेल का सपना आखिर सच हो ही गया
लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने इस परियोजना का सपना 1945 में देखा था. पंडित जवाहर लाल नेहरु ने 05 अप्रैल 1961 में इसकी नींव रख उनके सपने को साकार किया था. लेकिन बाद में पर्यावरणविदो के पुरजोर विरोध और वित्तीय संकट की वजह से यह अधर में लटक गई. बांध के निर्माण में पर्यावरणीय और कानूनी अड़चनों की वजह से इसकी लागत 65 हजार करोड़ तक पहुंच गई.
देश में बनने वाला यह तीसरा सबसे उंचा और दुनिया का दूसरा बड़ा बांध है. इसकी ऊंचाई 138 मीटर से अधिक है. यह बांध अपनी गोद में 4.73 मिलियन क्यूबेक पानी जमा कर सकता है. यानी पूरे गुजरात को छह माह पीने योग्य पानी की आपूर्ति की जा सकती है. बांध पूरी तरह कंक्रीट से बना है. बांध में कुल 30 फाटक लगे हैं एक-एक का वजन 450 टन है.
तमाम विवादों के बाद 1979 में बांध का निर्माण फिर शुरु हुआ. 1993 में विश्वबैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया था. बाद में 2000 में सुप्रीमकोर्ट के आदेश के बाद रुका हुआ काम फिर से शुरु हुआ. लेकिन बांध के निर्माण से सिर्फ फायदा ही होगा ऐसा नहीं हैं, अभी इसमें तमाम अड़चने आएंगी. नर्मदा बचाओ अभियान को लेकर ही पर्यावरणविद मेधा पाटकर चर्चा में आयीं. वह आज भी बांध निर्माण और विस्थापन की समस्या को लेकर जल सत्याग्रह करती रहती हैं.
विस्थापितों की मांग लेकर मेधा पाटेकर लगातार आंदोलन कर रही हैं
कहा यह जा रहा है कि बांध से 6000 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा. उत्पादित होने वाली 57 फीसदी बिजली मध्यप्रदेश को मिलेगी. जबकि महाराष्ट को 27 और गुजरात को 16 फीसदी बिजली दी जाएगी. जबकि गुजरात के 15 जिलों के 3137 गांवों के 18.45 हेक्टेयर भूमि को सिंचाई की सुविधा मिलेगी. लेकिन इस बांध की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के तकरीबन 250 गांव की 50 हजार की आबादी विस्थापित हो जाएगी. सबसे बड़ा सवाल उनके विस्थापन का है. 56 सालों बाद भी उन्हें विस्थापित नहीं किया जा सका है. इसके अलाया पर्यावरणविदों की मानें तो बांध के निर्माण से नर्मदा नदी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा. बांध के निर्माण से सदा नीरा नर्मदा नदी प्रवाहहीन हो जाएगी. विस्थापन की सबसे बड़ी त्रासदी के साथ दूसरी समस्याएं भी पैदा होंगी.
पर्यावरणविदों के अनुसार भूकंप के खतरे को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है. हालांकि गुजरात के कुछ इलाकों को बाढ़ से बचाया जा सकता है. वैसे यह परियोजना सौराष्ट्र, कच्छ और गुजरात के उत्तरी इलाकों के जो सूखा प्रभावित हिस्सों पर जलापूर्ति के लिए बनी थी. लेकिन दुर्भाग्य से आज तक वहां पानी नहीं पहुंच पाया. जबकि गुजरात के बड़े शहरों को नर्मदा के पानी की आपूर्ति की गयी.
कहा तो यह भी जाता है कि साबरमती में बहने वाला पानी भी नर्मदा का है. इसके अलावा नर्मदा के पानी से हजारों मछुवारे अपनी आजीविका चलाते हैं. पर्यावरणविदों की मानें तो बांध के निर्माण से वह बेजार हो जाएंगे. विस्थापन संकट की वजह से कभी जापान भी इस परियोजना से अपना हाथ खींच चुका है. यह वही जापान है जो आज हमारे साथ मिलकर बुलेट रेल का सपना साकार करने में लगा है.
1993-94 में एक स्वतंत्र एजेंसी से जांच कराई गयी जिसमें इसे असफल बताया गया था. जबकि इसके पहले 1992 में विश्वबैंक भी एक जांच बैठाई थी. जिसमें यह बात सामने आयी थी कि इसके निर्माण से बहुत नुकसान होगा और हजारो गांव पानी में डूब जाएंगे. लोग बेघर हो जाएंगे. जिसकी वजह से यह परियोजना विलंबित होती रही.
निश्चित तौर पर परियोजना अपने आप में बड़ा उद्देश्य रखती है. लेकिन कई सवाल खड़े भी करती है. इसकी कल्पना देश के दो महापुरुषों लौहपुरुष सरदार वल्लभाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरु ने देखी थी. उस समय देश आजाद भी नहीं हुआ था. लेकिन आजादी के बाद जब पंडित जवाहर लाल नेहरु ने इसकी आधारशिला रखी. फिर 56 सालों तक यह अधर में क्यों लटकी रही? अपने आप में यह बड़ा सवाल है.
इससे यह साफ जाहिर होता है कि राजनीतिक तौर पर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं रही. जिसकी वजह से वह अपने ही बड़े नेताओं की परिकल्पना को साकार नहीं कर पायी. लेकिन पीएम मोदी ने इसे साकार कर यह दिखा दिया कि कोई भी कार्य असंभव नहीं है. उसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति और संकल्प की आवश्यकता होती है. मोदी सरकार ने 56 साल से लंबित पड़ी परियोजना पर 56 इंच का सीना दिखाया है. लेकिन इसकी गहराई में जाना भी आवश्यक है.
चारो राज्यों की बिजली, सिंचाई और पानी की समस्या का समाधान होगा. लेकिन सरकार को इसके दूसरे पहलू को भी देखना चाहिए. सरकार को परियोजनाओं और उससे प्रभावित होने वाले लोगों का विशेष ख्याल रखते हुए विस्थापन पर अदालत की तरफ से दिए गए आदेश का भी अनुपालन करना चाहिए. विकास बुरा नहीं है.
लेकिन हमें मानवीय अधिकारों और उनकी आवश्यकताओं को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए. क्योंकि ऐसे लोग हमारे अपने हैं और उनकी जरुरतों और उनकी समस्याओं का ध्यान रखना सरकार और समाज का दायित्व है. हमारी प्रगति के मूल में सबका साथ सबका विकास है. फिर हम हजारों परिवारों को विस्थापन का दंश झेलने के लिए क्यों मजबूर करते हैं. उनके लिए बीच का रास्ता निकलना चाहिए.
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