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'एक देश-एक चुनाव' में नफा कम नुकसान ज्यादा है
'एक देश-एक चुनाव' आर्थिक तौर पर काफी फायदेमंद है. जो बचत हो उससे कल्याणकारी काम किये जा सकते हैं - लेकिन क्या ये सब लोकतंत्र को खतरे में डाल कर किया जाना चाहिये? ऊपर से तो फायदा नजर आ रहा है, लेकिन बड़ा नुकसान छिपा हुआ है.
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'One Nation, One Election' - कुछ बातें पहली नजर में ही भा जाती हैं. ये आइडिया भी बिलकुल वैसा ही है. प्रधानमंत्री Narendra Modi के पसंदीदा प्रोजेक्ट में से एक ये भी है.
'मोदी है तो मुमकिन है', स्लोगन के लिए ये भी अपवाद नहीं होता - अगर 2019 के आम चुनाव के साथ के साथ आंध्र प्रदेश और ओडिशा के अलावा कुछ और भी राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव हो गये होते. मगर, नहीं हो पाये. यहां तक कि हालात ऐसे न बने कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा के भी साथ कराये जा सकें.
समय और पैसे में से ज्यादा कीमत किसकी है ये तो बहस का विषय है लेकिन एक बात तो साफ है कि 'एक देश-एक चुनाव' कराये जाने की स्थिति में दोनों की बचत है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले भी कई बार कह भी चुके हैं कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इससे पैसे और समय की बचत होगी - क्योंकि बार बार चुनाव होने से प्रशासनिक कामकाज पर काफी असर पड़ता है.
सवाल ये है कि 'एक देश-एक चुनाव' भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए कितना फायदेमंद है? सिर्फ फायदेमंद ही है या नुकसानदेह भी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर से जो फायदा नजर आ रहे है, उसके पीछे बहुत बड़ा नुकसान छिपा हुआ है? फिर तो ये घाटे का सबसे बड़ा फायदा हो सकता है.
'एक देश-एक चुनाव' से कितना फायदा
निर्विरोध कुछ होता है तो बहुत अच्छा लगता है. लोक सभा के नये स्पीकर ओम बिड़ला का चुनाव भी ऐसा ही हुआ. शायद और अच्छा लगता अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी चुनाव निर्विरोध हुआ होता. देश में न सही, कम से कम बनारस में तो ऐसा हो ही सकता था. वैसे वाराणसी लोक सभा सीट पर हुए चुनाव में जैसे उम्मीदवार उतरे थे उससे बेहतर तो निर्विरोध ही चुनाव हो गया होता.
2018 में प्रधानमंत्री मोदी के कुछ बयानों के बाद ऐसे कयास लगाये जाने शुरू हो गये थे जिसमें माना जा रहा था कि आम चुनाव के साथ ही काफी राज्यों के चुनाव हो सकते हैं - लेकिन हुए नहीं. माना ये जा रहा था कि जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है वहां विधानसभा पहले भंग कर चुनाव कराये जाने पर सहमति बन सकती है - वो भी नहीं बनी. अब जबकि बीजेपी के ही मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के इस ड्रीम प्रोजेक्ट से श्रद्धा भाव से नहीं जुड़ पाते, तो बाकियों के बारे में क्या सोचा जाये.
मोदी सरकार 2.0 के लिए बड़ा राजनातिक फायदा ये भी है कि विपक्ष अब भी बिखरा हुआ है और चुनाव नतीजों से लेर अब तक विपक्षी नेताओं की एक रिव्यू मीटिंग भी नहीं हो पा रही है.
बताया तो यही गया था कि प्रधानमंत्री के साथ सभी राजनीतिक पार्टियों की मीटिंग से पहले भी विपक्ष की एक मीटिंग होगी. वो मीटिंग किन्हीं कारणों से नहीं हो सकी. नहीं जाने वालों में ममता बनर्जी का मैसेज तो आ ही गया था, अब आगे तक कौन विरोध में और कौन सपोर्ट में खड़ा हुआ रहता है. वैसे प्रधानमंत्री की मीटिंग नहीं अटेंड करने वालों में ममता बनर्जी के अलावा चंद्रबाबू नायडू, के. चंद्रशेखर राव और, एमके स्टालिन के नाम पहले ही चर्चा में शामिल हो चुके थे. अरविंद केजरीवाल भी खुद की जगह अपना प्रतिनिधि भेजने का फैसला किया. मीटिंग होते-होते राहुल गांधी, अखिलेश यादव और मायावती ने भी दूरी बना ही ली.
ममता बनर्जी ने बैठक में आने से ये कहते हुए इनकार कर दिया था कि इसे लेकर पहले सरकार को श्वेतपत्र लाना चाहिए, कानूनी जानकारों से बात करनी चाहिए और किसी तरह की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. प्रधानमंत्री की मीटिंग में राष्ट्रीय के साथ साथ क्षेत्रीय दलों को भी न्योता रहा, इसलिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी, ओडिशा से मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, केसीआर की तरफ से उनके बेटे केटीआर और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल ने अपनी जगह राघव चड्ढा को भेजने का फैसला किया.
GST और नोटबंदी जैसा ही लगता है एक देश-एक चुनाव का आइडिया!
आम चुनाव पर अभी साढ़े तीन हजार करोड़ से ऊपर की रकम खर्च हो जाती है. जाहिर है विधानसभा चुनावों में भी यही हाल रहता होगा. माना जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराये जाने से करीब 5500 करोड़ रुपये हर पांचवें साल बचाये जा सकते हैं. एक साथ चुनाव होने पर ये खर्च आधा तो हो सकता है, लेकिन इसके आजमाया जाने वाला नोटबंदी के बाद दूसरा नुस्खा लगता है.
मोटे तौर पर तो यही लगता है - हर रोज चुनाव न हो तो सरकार काम पर फोकस कर पाएगी. अभी तो हाल ये है कि जिस काम के लिए देश में सरकार चुनी जाती है वो काम प्राथमिकता सूची में आखिरी पायदान पर पहुंच जाता है. मुश्किल भी तो है, अभी एक चुनाव से उबर कर विकास के काम पर मीटिंग भर होती है कि कोई न कोई चुनाव या उपचुनाव आ जाता है.
क्या और कैसे कैसे नुकसान?
चुनावी व्यस्तता सरकारी कामकाज पर कितना असर डालती है ये 2018 में कर्नाटक चुनाव के वक्त देखने को मिला था. तब प्रधानमंत्री को ईस्टर्न एक्सप्रेस वे का उद्घाटन करना था, लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनावों के चलते वक्त नहीं मिल रहा था. उससे पहले नॉर्थ ईस्ट में त्रिपुरा, मिजोरम और मेघालय विधानसभाओं के चुनावों ने भी प्रधानमंत्री का काफी वक्त ले लिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने NHAI यानी नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया से पूछा कि जब एक्सप्रेस वे बनकर तैयार हो गया है तो जनता के लिए क्यों नहीं खोला जा रहा है? प्रधानमंत्री को इसका उद्घाटन अप्रैल में ही करना था. मई में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हुक्म दिया कि अगर महीने के अंत तक प्रधानमंत्री मोदी एक्सप्रेस वे का उद्घाटन नहीं करते तो 1 जून को उसे जनता के लिए खोल दिया जाये.
सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, 'पिछली सुनवाई में हमें कहा गया था कि अप्रैल में प्रधानमंत्री मोदी एक्सप्रेस वे का शुभारंभ करेंगे, लेकिन अब तक यह उद्घाटन नहीं हो पाया. इसमें ज्यादा देरी दिल्ली की जनता के हित में नहीं है.'
फिर बड़े ही सख्त लहजे में टिप्पणी की, 'प्रधानमंत्री का इंतजार क्यों किया जा रहा है, सरकार की ओर से कोर्ट में पेश हुए ASG भी तो उद्घाटन कर सकते हैं.'
28 मई को यूपी के कैराना में उपचुनाव होना था - और ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने एक्सप्रेस वे का उद्घाटन और बागपत में रैली की. ये रैली उपचुनाव को ध्यान में रख कर ही आयोजित हुई थी, लेकिन बीजेपी को इसका कोई फायदा नहीं मिला - बीजेपी उम्मीदवार मृगांका सिंह विपक्ष की संयुक्त कैंडिडेट तबस्सुम हसन से चुनाव हार गयीं.
आम चुनाव की बात अलग है. याद कीजिए 2017 के आखिर में गुजरात विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. राहुल गांधी ने गुजरात के युवा नेताओं को साथ लेकर बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी थी. आखिर में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को अहमदाबाद में डेरा डालना पड़ा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कैबिनेट सहयोगियों के पूरे लाव लश्कर के साथ पहुंचे. मंत्रियों को गुजरात के छोटे छोटे शहरों में गली-मोहल्लों में प्रचार और भी मीडिया को बुलाकर बातचीत करने को कहा गया था. ये ठीक है कि चुनाव भी तो लड़ना जरूरी है, लेकिन वे सारे मंत्री अगर दिल्ली में होते तो क्या काम ज्यादा नहीं हुआ होता.
नीतीश कुमार एक देश-एक चुनाव को मानते तो ठीक हैं लेकिन 2018 में उनका कहना रहा कि अभी जल्दबाजी होगी. बीजेडी नेता नवीन पटनायक भी इस प्रस्ताव के पक्षधर हैं - वैसे उनके साथ तो ऐसा ही होता आ रहा है. 2014 में भी और 2019 में भी और वो चुनाव जीतते भी जा रहे हैं.
बीबीसी से बातचीत में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर सुहास पलशिकर ये मानने को तैयार नहीं हैं कि ऐसा करने से पैसा बचेगा. सुहास पलशिकर का कहना है - मान लीजिए अगर पैसा बच भी रहा है तो क्या पैसा बचाने के लिए लोकतंत्र को खत्म कर दिया जाएगा?
वो पूछते हैं - 'सवाल ये है कि क्या हम अपनी अपने गणतंत्र से समझौता करने के लिए तैयार हैं?'
बड़ा ही वाजिब सवाल है. वैसे दलील ये भी दी जा रही है कि लोकतंत्र में देश कौन चलाये इसका फैसला जनता करती है. अब अगर जनता ही विपक्ष को नकार रही है तो क्या किया जा सकता है? आखिर जनता ने ही तो प्रधानमंत्री को पहले के मुकाबले ज्यादा समर्थन के साथ मैंडेट दिया है - अब अगर मैंडेट विपक्ष विहीन मजबूत सरकार के पक्ष में है तो सवाल क्यों उठना चाहिये?
विपक्षी दल खासकर कांग्रेस उन मुद्दों की ओर इशारा कर रहे हैं जो इस श्रृंखला में संभावित प्रतीत हो रही हैं - पहले एक देश एक टैक्स की बात हुई, फिर एक चुनाव की बात हो रही है - फिर तो आगे चल कर एक धर्म, खान-पान और पहनावे तक मामला पहुंच जाएगा.
पूरी कवायद घूम-फिर कर वहीं आ पहुंचती है - आखिर लोग क्या चाहते हैं? जब लोगों को ऐसी चीजों की परवाह नहीं तो बाकियों की क्या बिसात या फिक्र करने वाले वे क्यों होते हैं?
हालांकि, सवाल खत्म नहीं होते. जनता तो कोई कायदा कानून भी नहीं चाहती. अगर कानून का डर न हो तो कैसी भयावह स्थिति होगी, कल्पना से परे है. अगर जनता के मन की बात ही सुननी है तो भीड़ भी तो उसी का हिस्सा है - और मॉब लिंचिंग? तो क्या लोकतंत्र के भी मॉब-लिंचिंग की छूट दे दी जानी चाहिये? देश में संविधान और कानून जनता के लिए ही बनाये गये हैं, ताकि लोग अमन चैन से जिंदगी गुजार सकें - अगर वो भी न मिले फिर तो ह्यूमन राइट्स खतरे में पड़ जाएगा. तो क्या ये यूं ही चलने दिया जा सकता है?
नहीं. बिलकुल नहीं. जिस तरह कुदरत ने इकोसिस्टम और फूड चेन बना रखे हैं, उसी तरह समाज भी सभ्यताओं के विकास के साथ तरक्की करते हुए तकनीक के इस युग में पहुंचा है - ये सब यूं ही बर्बाद नहीं होने दिया जा सकता. हरगिज नहीं.
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