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Updated: 02 जून, 2019 03:08 PM
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Lok Sabha Election 2019 Results| लोकसभा चुनाव होने के बाद से ही जहां Narendra Modi Ahemdabad और Varanasi की यात्रा कर रहे हैं वहीं विपक्षी खेमें में चिंताएं बढ़ गई हैं. कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान में सरकारें गिरने की नौबत आ गई है. इन चुनावों की सबसे बड़ी बात ये थी कि इन्हें हिंदुत्व, राष्ट्रीय सुरक्षा और परिवारवाद को ध्यान में रखकर लड़ा गया था. दरअसल, राजनीति में परिवारवाद को लेकर कई बार भाजपा ने कांग्रेस को आड़े हाथों लिया है. 2019 की लोकसभा के सदस्यों में से 30% सांसद किसी न किसी राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखते थे. इसमें पंजाब, बिहार जैसे राज्यों में राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखने वाले सांसदों की संख्या ज्यादा है. इसमें कांग्रेस पार्टी का नंबर सबसे ऊपर है, लेकिन भाजपा भी पीछे नहीं है.

जहां एक ओर राहुल गांधी ने अपने पारिवारिक सीट अमेठी में खो दी है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के कई दिग्गज राजनीतिक परिवारों को हार का सामना करना पड़ा. इतना ही नहीं, सपा, बसपा और अन्य कई राजनीतिक पार्टियों में कई घराने धराशाई हो गए. जहां एक ओर इस तरह की बातें दिख रही हैं, वहीं ये भी नहीं कहा जा सकता कि परिवारवाद भारतीय राजनीति में हार गया बल्कि ये तो अन्य पार्टियों में बढ़ भी गया.

राजवंश या परिवारवाद की परिभाषा ही यही है कि कोई ऐसा व्यक्ति राजनीति में आए जिसके परिवार का कोई सदस्य पहले भी चुनाव जीत चुका हो या अभी किसी न किसी पद पर कार्यरत हो. इसमें रिश्तेदार भी शामिल होते हैं.

2016 में आई कंचन चंद्रा की एक किताब कहती है कि 2004 से 2014 के बीच लगभग एक चौथाई सांसद परिवारवाद की राजनीति से आए थे. ये आंकड़ा 2019 में और बढ़ा हो सकता है. IndianExpress की एक रिपोर्ट कहती है कि ये आंकड़ा अब 25% से बढ़कर 2019 में 30% पहुंच गया है.

जिन राज्यों में इसका असर ज्यादा है वो हैं राजस्थान (32%), ओड़ीसा (33%), तेलंगाना (35%), आंद्रप्रदेश (36%), तमिलनाडु (37%), कर्नाटक (39%), महाराष्ट्र (42%), बिहार (43%) और पंजाब (62%). पंजाब और बिहार उन दो राज्यों में शामिल हैं जहां सबसे ज्यादा सांसद किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े होते हैं.

परिवारवाद, राजनीति, लोकसभा चुनाव 2019, कांग्रेस, भाजपाबिहार और पंजाब में परिवारवाद की राजनीति बहुत गहरी है

ये लगभग हर राजनीतिक पार्टी के साथ है. लोगों को भले ही लगे कि ये सिर्फ राज्य आधारित पार्टियों के साथ है पर ऐसा नहीं है. अक्सर ऐसा सोचा जाता है कि क्योंकि राज्य की पार्टियां अक्सर प्राइवेट पार्टी की तरह काम करती हैं, लेकिन ऐसा नहीं है. राष्ट्रीय पार्टियों में परिवारवाद की मिसालें और भी बहुत ज्यादा हैं. राष्ट्रीय पार्टियां लगभग हर राज्य में इस तरह की मिसाल देती हैं.

बिहार में ये आंकड़ा बहुत ज्यादा है. राष्ट्रीय पार्टियों के 58% कैंडिडेट राजनीतिक परिवार से हैं और राज्य आधारित पार्टियों के 14% ही हैं. हरियाणा में 50% राष्ट्रीय पार्टियों का परिवारवाद तौ उसके एवज में 5% क्षेत्रीय पार्टियों का परिवारवाद. ये आंकड़ा कर्नाटक में 35% (राष्ट्रीय) और 13% (क्षेत्रीय) है. इसी के साथ, महाराष्ट्र में 35% (राष्ट्रीय) और 19% (क्षेत्रीय) है. ओड़ीसा में 33% राष्ट्रीय और 15% क्षेत्रीय है. तेलंगाना में 32% (राष्ट्रीय) और 22% (क्षेत्रीय). यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भी 28% (राष्ट्रीय) और 18% (क्षेत्रीय) है.

हां कुछ क्षेत्रीय पार्टियों में परिवारवाद वाले कैंडिडेट की संख्या काफी ज्यादा है जैसे JD(S) (66%), SAD (60%), TDP (52%), RJD (38%), BJD (38%), SP (30%). वो पार्टियां जो परिवारवाद के चक्कर में नहीं हैं वो हैं CPI और CPI(M). यहां ऐसे प्रत्याशियों की संख्या 5% से भी कम है. हालांकि, इन पार्टियों के सितारे अभी गर्दिश में हैं, लेकिन उसका कारण परिवारवाद कहीं से भी नहीं है.

राष्ट्रीय पार्टियों की बात की जाए तो कांग्रेस अभी भी सबसे ऊपर रही है. इस पार्टी में 31% ऐसे प्रत्याशी हैं जो किसी न किसी राजनीतिक परिवार का हिस्सा हैं. पर भाजपा भी पीछे नहीं है. उसमें भी 22% प्रत्याशी ऐसे ही हैं जो परिवारवाद के घेरे में आते हैं. ये बात दो कारणों से भाजपा के विरुद्ध जाती है. पहला क्योंकि भाजपा हमेशा से परिवारवाद के लिए विपक्षी पार्टियों को निशाने पर रखती रही है. भाजपा ने हमेशा कांग्रेस को गैर-लोकतांत्रिक कहा है क्योंकि वहां परिवारवाद चलता है.

परिवारवाद, राजनीति, लोकसभा चुनाव 2019, कांग्रेस, भाजपापरिवारवाद को लेकर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों में आंकड़े अलग हैं.

दूसरा क्योंकि भाजपा ने खास प्रयास किए थे कि उसके 282 सांसदों में से करीब 100 को टिकट न देकर ताकि परिवारवाद का ठप्पा उसपर न लग सके. पर इसके बाद भी भाजपा में परिवारवाद का प्रतिशत बहुत बढ़ गया है. इसका क्या कारण हो सकता है?

राजनीति में परिवारवाद के बढ़ने का कारण-

सबसे बड़ा कारण यही है कि पार्टियां अपने जीतने की गुंजाइश बढ़ाने की कोशिश करती हैं. जो कैंडिडेट पहले जीता था उससे जुड़े कैंडिडेट को अगर आगे मैदान में उतारेंगे तो लोग पहचानेंगे. ये क्षेत्रीय स्तर पर पार्टी के लिए फायदेमंद साबित होता है.

दूसरा ये कि महिला प्रतियाशियों के साथ ये फैक्टर ज्यादा बढ़ जाता है. पार्टियां चाहती हैं कि किसी राजनीतिक परिवार की महिला प्रतियाशी चुनी जाएं. हालांकि, ऐसे में रिस्क भी होता है, लेकिन फिर भी पार्टियां चुनती हैं ऐसी प्रत्याशी. नतीजा ये है कि सपा, टीडीपी, डीएमके, टीआरएस जैसे पार्टियों की 100% महिला उम्मीदवार किसी न किसी राजनीतिक परिवार का हिस्सा हैं. छोटी पार्टियों में ये और भी ज्यादा होता है और सीधे रिश्तेदार को ही उतारा जाता है जैसे RJD की तीन महिला उम्मीदवार पहले के ऐसे दबंग सांसदों/विधायकों की पत्नी हैं जिनपर आपराधिक मामले दर्ज हैं.

ये ट्रेंड कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा पर भी लागू होता है. कांग्रेस के 54% तो भाजपा की 53% महिला प्रत्याशी इसी तरह की राजनीति का हिस्सा हैं. यहां तक कि TMC जो सबसे ज्यादा महिला प्रत्याशियों को टिकट देती है वो भी इस ट्रेंड को फॉलो करती है. हालांकि, इस पार्टी में परिवारवाद कम है. लेकिन फिर भी महिला प्रत्याशियों में से 27% किसी न किसी राजनीतिक परिवार से हैं.

हालांकि, सबसे बड़ा कारण कि परिवारवाद पार्टियों में इतनी हद तक है वो ये कि राजनीतिक परिवारों का पार्टी के अंदर ही काफी दबदबा होता है. और साथ ही साथ ये फैक्ट भी है कि ऐसे प्रत्याशी बेहतर परफॉर्मेंस देते हैं. जहां प्रत्याशियों की बात करें तो भाजपा में 22% प्रत्याशी ऐसे थे, लेकिन चुनाव जीतने के बाद अगर सांसद कहें जाएं तो भाजपा के सभी सांसदों में से 25% ऐसे हो गए हैं जो परिवारवाद के घेरे में हैं. ये आंकड़ा कांग्रेस की तरफ और ज्यादा है. 31 % प्रत्याशी और 44% सांसद.

अब सवाल ये उठता है कि आखिर वोटर ऐसे लोगों के प्रति क्यों आकर्षित होते हैं जब वो किसी राजनीतिक बदलाव की उम्मीद करते हैं. इसका जवाब हो सकता है कि ये राष्ट्रीय स्तर पर तो काम नहीं करता लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर लोग उसे ही वोट देने की कोशिश करते हैं जो प्रत्याशी जाना पहचाना लगे.

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