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Updated: 12 मई, 2019 05:49 PM
अनुज मौर्या
अनुज मौर्या
  @anujkumarmaurya87
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लोकसभा चुनाव के छठे चरण की वोटिंग जारी है. आज के इस चुनाव में सबकी निगाहें दिल्ली पर टिकी हुई हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि देश की राजधानी दिल्ली ही राजनीति का केंद्र है. यहीं पर सरकार बैठती है और यहीं से पूरा देश चलता है. तो क्या ये कहा जा सकता है कि राजनीति का केंद्र होने की वजह से दिल्ली की जनता भी राजनीति में सक्रिय है? शायद ये कहना गलत होगा. कम से कम वोटिंग टर्नआउट तो यही इशारा कर रहे हैं कि दिल्ली के लोग राजनीति में उतने सक्रिय नहीं हैं, जितना यूपी-बिहार या अन्य राज्यों के लोग हैं.

दरअसल, देखा जाए तो मेट्रो शहरों में लोग बात तो हर मुद्दे पर उठाते हुए मिल जाएंगे, लेकिन जब बारी आती है वोटिंग की तो ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों का टर्नआउट ही अधिक होता है. अब दिल्ली को ही ले लीजिए. 11 बजे तक दिल्ली में सिर्फ 16 फीसदी वोटिंग हुई. यूं तो अभी आधे से ज्यादा दिन बचा हुआ है, लेकिन गर्मी के इस समय में अधिकर लोग सुबह-सुबह ही वोट दे दिया करते हैं. यानी यूं लग रहा है मानो लोग अपने घरों से वोट देने निकल ही नहीं रहे. अब सवाल ये उठता है कि आखिर दिल्ली या यूं कहें कि मेट्रो सिटीज में रहने वाले वोट देने के लिए निकलते क्यों नहीं?

लोकसभा चुनाव 2019, दिल्ली, चुनावदिल्ली में वोटिंग टर्नआउट देखकर ये साफ होता है कि यहां को लोग मतदान के लिए नहीं निकल रहे.

मेट्रो शहरों के वोटर राजनीति में सक्रिय नहीं

राजनीति में सक्रिय होने का मतलब ये नहीं होता कि आप सिर्फ घर में बैठकर या फिर सोशल मीडिया पर किसी नेता को भला-बुरा कहते रहें. आपकी असली सक्रियता तब दिखती है जब चुनावों का दौर आता है. तब पता चलता है कि कौन बरसने वाले बादल हैं और कौन सिर्फ गरजने वाले. अक्सर ही टीवी मेट्रो शहरों के लोगों से चुनावों पर राय लेने की तस्वीरें सामने आती हैं. लोग अपनी राय देते भी हैं. कभी बेरोजगारी के मुद्दे पर, कभी महिला सुरक्षा को लेकर तो कभी राष्ट्रीय सुरक्षा पर. लेकिन जब वोट देकर सरकार बनाने का वक्त आता है तो मेट्रो शहर के बहुत से लोग अपने घरों में दुबके नजर आते हैं.

आंकड़े दे रहे हैं गवाही

2009 में दिल्ली में वोटिंग टर्नआउट महज 51.8 फीसदी था. यानी करीब आधे लोगों ने वोट दिया ही नहीं. हालांकि, 2014 के चुनावों तक ये टर्नआउट 13.3 फीसदी बढ़कर 65.1 फीसदी पर पहुंच गया. यहां एक दिलचस्प बात ये है कि नेशनल लेवल पर भी वोटिंग टर्नआउट बढ़ा था. 2014 में पूरे देश का वोटिंग टर्नआउट 2009 में 58.2 फीसदी था, जबकि 2014 में ये बढ़कर 66.4 फीसदी हो गया. यानी हो सकता है कि पिछली बार दिल्ली में वोटिंग टर्नआउट बढ़ने की वजह मोदी लहर रही हो, ना कि जागरुकता. ऐसे में इस बार के लोकसभा चुनाव में दिल्ली के वोटर्स का टर्नआउट कितना रहेगा, ये देखना वाकई दिलचस्प होगा.

लगभग सभी मेट्रो शहरों की तस्वीर एक जैसी !

बात भले ही दिल्ली की हो या चेन्नई की, हर मेट्रो शहर की तस्वीर लगभग एक जैसी ही है. चुनाव वाले दिन मेट्रो शहरों में बहुत से लोग घरों से नहीं निकलते. अगर बात की जाए चेन्नई की तो इस बार वहां का वोटिंग टर्नआउट महज 59.01 फीसदी रहा. यानी करीब 41 फीसदी लोगों ने तो वोट ही नहीं दिया. आपको बता दें कि चेन्नई में 18 अप्रैल को दूसरे ही चरण में वोटिंग हो चुकी है.

बात अगर मुंबई की करें तो पिछले तीन दशकों में सबसे अधिक वोटिंग इस बार हुई है. हैरान होने से पहले ये जान लीजिए कि ये वोटिंग महज 55.11 फीसदी है. यहां आपको बता दें कि 2009 में तो ये आंकड़ा महज 41.4 फीसदी था, जो 2014 तक बढ़कर 51.59 फीसदी पर पहुंच गया.

गांव और छोटे शहरों के लोग राजनीति में सक्रिय

यूं तो मेट्रो शहरों के ही विशेषज्ञ होते हैं, इन्हीं शहरों में अधिकतर लोग सर्वे करते हैं और अनुमान लगाते हैं, गांव के और छोटे शहर के लोगों की बात नहीं होती है. यहां दिलचस्प ये है कि इन्हीं जगहों के लोग राजनीति में अपनी सक्रियता दिखाते हैं और सरकार बनाते-गिराते हैं. अब पश्चिम बंगाल को ही ले लीजिए. यूं तो यहां गुंडाराज बहुत है, हर चरण के चुनाव में हिंसा या कम से कम मारपीट की खबरें तो आ ही जाती हैं. इस बार तो हत्या तक की खबर आ चुकी है. लेकिन अगर वोटिंग टर्नआउट देखें तो पता चलता है कि अपने घरों से लोग वोट देने भी सबसे अधिक पश्चिम बंगाल में ही निकलते हैं. इस बार 1 बजे तक के चुनाव में सबसे अधिक 52.31 फीसदी वोटिंग पश्चिम बंगाल में ही हुई है और 28.69 फीसदी के साथ दिल्ली सबसे पीछे है.

रोजी-रोटी VS वोटिंग

दिल्ली में बहुत सारे लोग बाहरी राज्यों के हैं, जो रोजी-रोटी कमाने यहां आए हैं. इनमें बहुत से ऐसे भी हैं जो रोजाना के हिसाब से पैसे कमाते हैं. यानी एक दिन काम नहीं किया तो उस दिन पैसे नहीं मिलेंगे. ऐसे में कई लोग ये भी सोचते हैं कि एक दिन वोटिंग में बर्बाद करने से अच्छा है काम कर के पैसे कमा लें. वहीं दूसरी ओर, बहुत से दफ्तरों में भी चुनाव के दिन वोटिंग के लिए छुट्टी नहीं दी जाती है, जिसकी वजह से भी वोटिंग कम होती है. खैर, आंकड़ों को देखकर एक बात तो साफ होती है कि हर शहर का अपना एक मिजाज होता है. इसमें मेट्रो शहरों का मिजाज कमोबेश एक जैसा होता है, कि लोग बहुत कम ही अपने घरों से वोट डालने के लिए बाहर निकलते हैं. हां, ग्रामीण इलाकों से अधिक वोटिंग होती रही है और इस बार भी ऐसा ही होने की संभावना है.

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