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Updated: 08 मई, 2021 03:49 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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ऑक्सीजन को लेकर चीख पुकार मची हो और खाली सिलिंडर के लिए 40-60 हजार तक वसूला जाने लगे. महज चार किलोमीटर के लिए एंबुलेंस वाला 10 हजार रुपये मांगने लगे. ज्यादा दूरी के लिए 20 हजार मांगे, लेकिन रसीद सिर्फ 9 हजार की देने को तैयार हो - सबका अपना अपना धंधा है. गंदा भी है पर धंधा है.

ठीक वैसे ही सबकी अपनी अपनी राजनीति है - लॉकडाउन की तो अलग ही राजनीति है और उसमें भी अपने निजी हित हैं, लिहाजा लॉकडाउन पर वैसी ही पॉलिटिकल लाइन भी गढ़ ली जाती है.

अब राहुल गांधी की लाइन देखिये - पहले वो लॉकडाउन के कट्टर विरोधी लगते थे. 2020 में पूरे साल बार बार यही कहते रहे कि लॉकडाउन से कुछ नहीं होने वाला है. तब कांग्रेस नेता का पूरा जोर टेस्टिंग और दूसरी चीजों पर हुआ करता था.

असल में लॉकडाउन पर राहुल गांधी के तब के स्टैंड की राजनीतिक मजबूरी भी रही होगी. मार्च, 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने एक शाम अचानक टीवी पर आकर पूरे देश में 21 दिन के लिए संपूर्ण लॉकडाउन (Complete Lockdown) की घोषणा कर दी थी, जिसे धीरे धीरे केंद्र सरकार आगे बढ़ाती गयी - और महीनों बाद अनलॉक की प्रक्रिया शुरू की गयी.

2021 में राहुल गांधी लॉकडाउन के हिमायती बन गये हैं. लॉकडाउन पर उनकी धारणा यू टर्न ले चुकी है. जितना जोर तक राहुल गांधी पिछली बार लॉकडाउन का मजाक उड़ाया करते थे, इस बार उसे लागू किये जाने की वकालत करने लगे हैं.

क्या राहुल गांधी के नजरिये में बदलाव किसी खास वजह से आया है या मोदी सरकार के स्टैंड के खिलाफ बने रहने की कोई रणनीति है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के मुख्यमंत्रियों के साथ मीटिंग के बाद टीवी पर राष्ट्र के नाम संबोधन में कहा था कि लॉकडाउन आखिरी विकल्प होना चाहिये. प्रधानमंत्री मोदी की सलाह के बाद लॉकडाउन पर एक बार फिर बीजेपी या एनडीए के मुख्यमंत्री एक तरफ और विरोधी दलों के मुख्यमंत्री दूसरी तरफ हो गये हैं.

राहुल गांधी डिमांड को आगे बढ़ाते हुए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) भी अब पूरे देश में संपूर्ण लॉकडाउन की मांग करने लगे हैं. ध्यान रहे, 2020 में अशोक गहलोत किसी भी प्रदेश में लॉकडाउन लागू करने वाले देश के पहले मुख्यमंत्री रहे.

अशोक गहलोत के संपूर्ण लॉकडाउन की मांग की वजह भले ही घोर राजनीतिक हो, लेकिन जो मसले राजस्थान के मुख्यमंत्री ने उठाये हैं, वे काफी गंभीर हैं और देश हित में ध्यान दिया जाना जरूरी है - फिर भी लाख टके का सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या बिना संपूर्ण लॉकडाउन लागू किये कोरोना वायरस को फैलने से रोका नहीं जा सकता?

कांग्रेस मुख्यमंत्री की चिंता वाजिब लगती है

कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और फिर कैप्टन अमरिंदर सिंह के 2020 में फटाफट लॉकडाउन लागू करने के बावजूद राहुल गांधी मोदी सरकार पर लगातार हमलावर बने रहे. तब ये भी देखने को मिला था कि केंद्र सरकार के फैसले के सामने आने से पहले ही विपक्षी दलों के मुख्यमंत्री अपने अपने राज्यों में लॉकडाउन की तारीख आगे बढ़ा देने की घोषणा करते रहे - फिर भी राहुल गांधी का इल्जाम अपनी जगह कायम रहता कि हड़बड़ी में लॉकडाउन लागू करने का फैसला लिया गया और देश भर में गरीब और मजदूर मुश्किलों से जूझते रहे.

वैसे तो केंद्र सरकार ने 2020 में ही लॉकडाउन लागू करने का फैसला राज्य सरकारों पर ही छोड़ दिया था, लेकिन इस बार प्रधानमंत्री ने ये भी सलाह दी है कि लॉकडाउन आखिरी विकल्प होना चाहिये. लॉकडाउन को लेकर सबसे पहले महाराष्ट्र और दिल्ली की सरकारों ने तत्परता दिखायी और उसकी वजह भी रही क्योंकि दोनों ही जगह कोरोना वायरस के मामले तेजी से बढ़ते जा रहे थे - और मौतें भी होने लगी थीं.

अब तो ना-ना करते यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी दो-दो तीन-तीन दिन करके लॉकडाउन बढ़ाते ही जा रहे हैं - वैसे भी देखा जाये तो थोड़े बहुत अंतर को छोड़ दें तो देश के ज्यादातर हिस्सों में लॉकडाउन लगा ही हुआ है - हां, वैसी पाबंदियां नहीं हैं. एक राज्य से दूसरे राज्य में आने जाने पर कोई पाबंदी नहीं है या फिर कोरोना निगेटिव सर्टिफिकेट लेकर आने की कोई बाध्यता नहीं है. स्थानीय स्तर पर अपवाद हो सकते हैं.

ashok gehlot, narendra modi, rahul gandhiअगर सत्ता पक्ष और विपक्ष कोरोना संकट के दौर में राजनीति छोड़ कर लोगों के बारे में सोचें और मिल कर काम करें तो बगैर संपूर्ण लॉकडाउन के भी महामारी पर काबू पाया जा सकता है और लोगों की जान बचायी जा सकती है

देश में संपूर्ण लॉकडाउन की वकालत करने से पहले ही अशोक गहलोत राजस्थान में कोरोना वायरस संक्रमण की रफ्तार को रोकने के लिए 'महामारी रेड अलर्ट जन अनुशासन पखवाड़ा चला रखा है. आदेश के तहत पूरे राज्य में बेवजह घूमने, कहीं भी थूक देने वालों पर फाइन लगाने के अलावा पुलिस को इंस्टिट्यूशनल क्वारंटीन के भी आदेश दिये गये हैं.

अब ये भी सुनने में आया है कि कांग्रेस सरकार राजस्थान में संपूर्ण लॉकडाउन लागू करने का भी फैसला ले सकती है. हाल ही में गहलोत कैबिनेट की एक मीटिंग में कोरोना कंट्रोल के लिए 5 मंत्रियों की एक कमेटी बनायी गयी है - और कमेटी को ही लॉकडाउन पर फैसला लेने के लिए छोड़ा गया है. वैसे भी राजस्थान में पहले से भी कई तरह की पाबंदी तो लागू कर ही दी गयी है.

विचारधारा और आंख मूंद कर विरोध किये जाने की बात अलग है, लेकिन अशोक गहलोत ने कोरोना फैलने की गति को देखते हुए जैसी आशंका जतायी है, वो कोई अनर्गल प्रलाप नहीं कहा जा सकता.

ये तो देश के तमाम हिस्सों में देखने को मिल ही रहा है कि किस तरह लोग ऑक्सीजन सिलिंडर और जरूरी दवाइयों से लेकर मरीजों को लेकर अस्पतालों में बेड के लिए दर दर की ठोकरें खाते फिर रहे हैं. कहीं लोगों के अपनी गाड़ियों में ही दम तोड़ देने की खबरे आ रही हैं, तो वाराणसी में देखा ही गया कि कैसे एक युवक ने एक ई-रिक्शा पर ही दम तोड़ दिया और इलाज के लिए 50 किलोमीटर का सफर कर बनारस पहुंची युवक की मां को बेटे की लाश के साथ लौटना पड़ा.

ऐसे में अशोक गहलोत की चिंता कहीं से ही भी गैरजरूरी नहीं लगती. अशोक गहलोत कहते हैं, 'पहले से ही देश में ऑक्सीजन, दवाओं और दूसरे उपकरणों की कमी है - और देश को जल्द ही डॉक्टर, मेडिकल स्टाफ की कमी का सामना करना पड़ सकता है.'

वास्तव में जो हालात हैं, जब से कोरोना संकट आया है, न तो डॉक्टर और न ही कोई मेडिकल स्टाफ छुट्टी ले पाया है. वे लगातार काम करते आ रहे हैं. पीपीई किट में होने का क्या मतलब होता है, हाल ही में एक डॉक्टर के वायरल वीडियो में लोगों ने देखा ही. ऐसे डॉक्टरों की भी खासी तादाद है जो कोरोना वायरस संक्रमण होने के बाद ठीक होकर फिर से ड्यूटी पर आ डटे हैं.

लेकिन डॉक्टर भी तो इंसान ही हैं - आखिर कितने लंबे समय तक वे लगातार ऐसे ही काम करते रहेंगे? सेवा भाव और आत्मविश्वास के बल पर डटे रहना और बात है, लेकिन लगातार काम करने से थकावट तो होगी ही और बर्दाश्त के बाहर हुआ तो क्या होगा?

डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ की ही कौन कहे, बाकी आवश्यक सेवाओं के लोगों के सामने भी ऐसी ही चुनौती है. अभी एक पुलिस अफसर के नौकरी छोड़ देने की खबर आयी थी क्योंकि उसे छुट्टी नहीं मिली. जिन परिस्थितियों में अफसर को छुट्टी की जरूरत थी, मामला बड़ा ही नाजुक था. अफसर की पत्नी कोरोना संक्रमण के चलते अस्पताल में थी और घर पर छोटी बच्ची को देखने वाला कोई नहीं था. ये सही है कि ड्यूटी सर्वोपरि होती है, लेकिन भला एक छोटी सी बच्ची को वो कैसे उसके हाल पर अकेले छोड़ देता भला?

संपूर्ण लॉकडाउन की कितनी जरूरत है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ताजा स्टैंड भले ही लॉकडाउन लागू करने के खिलाफ होने की कुछ खास वजहें हों - ये राजनीतिक भी हो सकती हैं और उनके सलाहकारों की राय भी. ये भी हो सकता है कि पिछली बार के लॉकडाउन में देश भर में लोगों को हुई परेशानी भी एक बड़ी वजह हो. ये तो सभी ने देखा कि किस तरह प्रवासी मजदूर सड़कों पर कदम कदम पर मुश्किलों से जूझते हुए शहरों से अपने अपने घरों की ओर निकल पड़े थे - कई तो सकुशल पहुंच भी गये लेकिन कुछ ऐसे भी दुर्भाग्यशाली रहे कि रास्ते में भी दम तोड़ दिये.

अशोक गहलोत की लॉकडाउन की मांग कोई अपनी नहीं है, बल्कि कांग्रेस नेता ने राहुल गांधी की बात को ही एनडोर्स किया है. अशोक गहलोत ने ट्विटर पर लिखा है कि वो कांग्रेस नेता राहुल गांधी के राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लागू करने की मांग का पूरी तरह समर्थन करते हैं - क्योंकि अब राष्ट्रीय लॉकडाउन ही एकमात्र विकल्प बचा है.

क्या वास्तव में ऐसा ही है - क्या लॉकडाउन लागू करने के अलावा वास्तव में कोई और विकल्प नहीं बचा है?

जो आशंका अशोक गहलोत जता रहे हैं और जिस तरह का दावा बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी ने कोविड 19 की तीसरी लहर को लेकर किया है - फिक्र की बात तो है ही.

केंद्र सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार के. विजय राघवन ने भी तीसरी लहर को लेकर आशंका तो जतायी ही है, लेकिन वो स्वामी की तरह कोई बात नहीं कह रहे हैं. विजय राघवन का कहना है कि जिस तरीके से ये वायरस फैल रहा है, उसे देखते हुए तीसरी लहर निश्चित लगती है - लेकिन वो ये नहीं बता रहे हैं कि तीसरी लहर कब आएगी या किस हद तक खतरनाक हो सकती है या कोई असर नहीं होने वाला.

सुब्रह्मण्यन स्वामी ने अपने दावे के पीछे कोई रिसर्ज ये विशेषज्ञों की राय का हवाला तो नहीं दिया है, लेकिन कह रहे हैं कि कोविड की तीसरी लहर में बच्चों पर ज्यादा असर हो सकता है. वैसे भी ये तो देखने को मिला ही है कि दूसरी लहर में भी बच्चे थोड़े बहुत प्रभावित हो रहे हैं.

जिस दिन बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी ने ये दावा किया था, कुछ ही देर बाद स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रेस कॉन्फ्रेंस मे भी थर्ड वेव की आशंका जतायी गयी, लेकिन स्वामी की तरह ऐसा कुछ नहीं बताया गया कि कौन ज्यादा प्रभावित हो सकता है.

रही बात कोरोना वायरस से मुकाबले की तो, देर से ही सही चुनाव आयोग को भी स्थिति की गंभीरता की समझ हो चली है. तभी तो आयोग ने कई चुनाव टाल दिये हैं. पश्चिम बंगाल की दो सीटों पर उम्मीदवारों की मौत के कारण चुनाव नहीं हो सका था. आयोग ने पहले उसके लिए 13 मई की तारीख तय की थी, जिसका ईद के त्योहार को देखते हुए विरोध भी हुआ था.

अगर चुनाव आयोग की ही तरह सरकारे भी कोरोना के पिछले दौर की गलतियों को सुधार लें और देश के आम लोग भी तो कोविड 19 से मुकाबले के साथ साथ उस पर काबू पाना काफी आसान हो जाएगा.

कोरोना वायरस की लहरें और वैरिएंट तो अपनी जगह हैं ही, लोगों की लापरवाही भी बहुत भारी पड़ रही है. अगर हरिद्वार में कुंभ का आयोजन टाल दिया गया होता या कम से कम कोविड 19 नेगेटिव रिपोर्ट के साथ ही एंट्री की अनिवार्यता नहीं खत्म की गयी होती तो शायद कोरोना फैलने से कुछ हद तक रोका जा सकता था.

चुनाव आयोग ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में कोरोना खतरे को देखते हुए यूपी में पंचायत चुनाव न कराने की दलील पेश की होती और केस की पैरवी ढंग से हुई होती, कोई दो राय नहीं कि अदालत अपने फैसले पर पुनर्विचार के बारे में नहीं सोचती. आखिर ये हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ही तो ऑक्सीजन के इंतजाम से लेकर कोरोना संकट से लोगों को उबारने को लेकर सरकार के खिलाफ सख्ती दिखा रहा है. चुनाव आयोग पश्चिम बंगाल में अगर चुनाव नहीं टाल सकता था तो रैलियों में कोविड प्रोटोकॉल सख्ती के साथ लागू तो करा ही सकता था. बहरहाल, अब तो यही कहना पड़ेगा कि जो हुआ सो हुआ - अब लकीर पीटने की जगह आगे के बारे में सोचने का वक्त है.

बेहतर तो ये होता कि उन कारकों की सूची बनायी जाती जिनकी वजह से कोरोना वायरस फैल रहा है - और उन उपायों पर भी गौर किया जाता जो कोरोना वायरस फैलने से रोक सकते हैं.

लोगों का मास्क न लगाना, सैनिटाइजर का इस्तेमाल लगभग बंद कर देना और सोशल डिस्टैंसिंग को नजरअंदाज करना ही कोरोना वायरस के फैलने में मददगार साबित हुआ है. केंद्र सरकार की तरफ से भी कोरोना के मामले कम होने पर बीमारी पर काबू पा लेने की बात करना और जीत का जश्न मनाना खतरनाक साबित हुआ है.

लगता तो ऐसा है कि संपूर्ण लॉकडाउन की जगह सार्वजनिक स्थानों पर मास्क की अनिवार्यता, सैनिटाइजर का इस्तेमाल और सोशल डिस्टैंसिंग पर सख्ती से अमल करा लेने से भी काफी हद तक कोरोना पर काबू पाया जा सकता है. जो लोग बेवजह इधर उधर घूम रहे हैं या बगैर मास्क लगाये नजर आते हैं उन पर फाइन के साथ ही राजस्थान की तरह ही संस्थागत क्वारंटीन कर देने जैसे उपाय काफी कारगर हो सकते हैं.

संपूर्ण लॉकडाउन की जगह अगर केंद्र सरकार ऐसे ही सख्त गाइडलाइन तैयार कर दे - और उसे तब तक लागू रखा जाये जब तक कि कोरोना से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिल जाता या फिर लोग कोरोना के साथ एड्स की तरह जीने की आदत को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर लेते.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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