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Updated: 23 अक्टूबर, 2017 04:05 PM
सुजीत कुमार झा
सुजीत कुमार झा
  @suj.jha
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बिहार कांग्रेस में फूट की चर्चा आजकल जोरों पर है. लेकिन उससे ज्यादा चर्चा अब इस बात को लेकर होने लगी है कि क्या बिहार कांग्रेस को लालू प्रसाद यादव चला रहें हैं. ये बात इसलिए उठी क्योंकि बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की जयंती के अवसर पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था, जिसके मुख्य अतिथि आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव थे. इस कार्यक्रम को प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने सपोर्ट किया था.

मुख्य अतिथि के तौर पर बोलते हुए लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस के नेताओं से कहा कि वो आपस में झगड़ना छोड़ें और पार्टी के लिए मिलजुल कर काम करें. लालू यादव ने बात तो अच्छी कही लेकिन कुछ कांग्रेसी नेताओं को ये अच्छा नहीं लगा. उन्होंने कहा कि, लालू प्रसाद यादव को क्या जरूरत कि वो कांग्रेस के अंदरूदी मामलों में दखल दें.

लालू प्रसाद यादव, बिहार, कांग्रेसबिहार में, लालू और कांग्रेस का साथ कोई आज का नहीं बल्कि बहुत पुराना है

लेकिन ये कहने वाले शायद ये नहीं जानते कि बिहार कांग्रेस में आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव का दखल आज से नहीं बल्कि 20 सालों से लगातार चल रहा है. अगर पिछला इतिहास देखा जाये तो बिहार में कांग्रेस के पतन का यह प्रमुख कारण भी रहा है. 1990 में लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस से लड़ कर उससे सत्ता छिनी थी. लेकिन कांग्रेस की तरफ से उस सत्ता के गौरव को पाने की एक भी कोशिश इन 27 सालों में नही हुई. यही वजह है की कांग्रेस यहां लगभग पंगु बन के रह गई है.

इस मामले को समझने के लिए हमें 27 साल पहले जाना पड़ेगा. 1990 में कांग्रेस बिहार में विधानसभा चुनाव हार गई थी. पूर्व मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व में एक मजबूत विपक्ष के तौर पर कांग्रेस, विधानसभा में 72 विधायकों के साथ मौजूद थी. लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे. 1990 से 1995 का दौर बिहार में सामाजिक परिवर्तन का दौर माना जाता है. क्योंकि पहली बार पिछड़ी जातियों की भागदारी सत्ता में प्रचुर मात्रा में थी. लेकिन इस दौरान कांग्रेस ने अपनी खोई हुई गरिमा को वापस पाने का कोई प्रयास ही नहीं किया. इस दौर में देखा जाये तो शुरू में कमजोर मुख्यमंत्री के तौर पर आंके जाने वाले लालू प्रसाद यादव दिन-प्रतिदिन मजबूत होते गए और कांग्रेस कमजोर.

कांग्रेस की कमजोरी का आलम ये हो गया कि अब उसे बिहार में राजनीति करने के लिए सहारे की जरूरत पड़ने लगी. 1995 के विधानसभा में सीट घट कर 29 हो गई. और 1996 में समता पार्टी और बीजेपी के मजबूती से उभरने की वजह से लोकसभा में भी पार्टी की हालत पतली होने लगी. कांग्रेस 1996 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 54 सीटों में से केवल 3 सीटें ही जीत पाई थी. यह पार्टी के लिए बेहद शर्मनाक स्थिति थी. लेकिन 1998 में कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी ने पार्टी की स्थिति सुधारने के लिए लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. 1998 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस और आरजेडी ने मिलकर लड़ा.

लालू प्रसाद यादव, बिहार, कांग्रेसबिहार में लालू और कांग्रेस दोनों ने मुश्किल समय में एक दूसरे का साथ दिया है

संयुक्त बिहार की 54 सीटों में लालू प्रसाद यादव ने केवल 8 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी. इन 8 सीटों में से कांग्रेस को चार पर जीत मिली. लेकिन 1999 के लोकसभा चुनाव में तो हद ही हो गई. कांग्रेस ने 13 सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें से 8 पर आरजेडी से समझौते के तहत और 5 पर फ्रेंडली लड़ाई हुई. लेकिन जीत मिली सिर्फ 2 पर. अब इससे कांग्रेस की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता था. अब तक लालू प्रसाद यादव पर चारा घोटाले का आरोप लग चुका था और सीबीआई ने जांच शुरू कर दी थी.

इस अपमानजनक स्थिति के बाद कांग्रेस में फिर से स्वाभिमान जागा और 2000 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया. उस समय तर्क ये दिया गया कि, लालू प्रसाद यादव भ्रष्ट हैं उन पर घोटाले का आरोप है. इससे पहले कांग्रेस ने चारा घोटाले का आरोप लगने के बावजूद 1998 और 1999 का लोकसभा चुनाव लालू प्रसाद यादव के साथ मिल कर लड़ा था. खैर 2000 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 23 सीटें जीती. राबड़ी देवी के नेतृत्व में सरकार बनी तो फिर कांग्रेस उसी सरकार में शामिल हो गई जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर वो चुनाव लड़ चुकी थी.

2004 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस ने आरजेडी और राम विलास पासवान के साथ मिलकर लड़ा था. जिसमें कांग्रेस ने 4 सीटें जीती. इसके मद्देनजर केन्द्र में यूपीए की सरकार बनी. बिहार से आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव का ही वर्चस्व रहा. 2005 में बिहार में दो बार विधानसभा के चुनाव हुए लेकिन कांग्रेस की रणनीति देखिये उसने दोनों बार अलग-अलग गठबंधन से चुनाव लड़ा. एक बार रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति के साथ गठबंधन किया तो दूसरी बार लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी से. जिसमें 10 सीटें कांग्रेस के हिस्से आई. नीतीश कुमार ने बीजेपी के सहयोग से बिहार में एनडीए की सरकार बनाई.

लालू प्रसाद यादव, बिहार, कांग्रेस   बिहार की राजनीति में सारी चीजें एक तरफ हैं और लालू प्रसाद यादव एक तरफ

उसके बाद की कहानी का क्या कहना. 2009 के लोकसभा चुनाव में यूपीए सरकार में रहते हुए लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान ने कांग्रेस को केवल 4 सीटें दी. इससे कांग्रेस में थोड़ा स्वाभिमान जागा उसने उसे लेने से इंकार कर दिया. कांग्रेस ने उस चुनाव को अपने अकेले के दम पर लड़ा और 2 सीटें पाई. 2010 का विधानसभा चुनाव भी कांग्रेस ने अकेले लड़ा. तब उसे 4 सीटें मिली थी. लेकिन फिर 2014 में कांग्रेस आलाकमान को लगा कि इस तरह अकेले नहीं चला जा सकता उसने फिर लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. 

इस बार गठबंधन के तौर पर कांग्रेस को 12 सीटे मिली, जिनमें 2 सीटों पर कांग्रेस ने विजय पाई. 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी कांग्रेस के साथ-साथ नीतीश कुमार की पार्टी भी महागठबंधन में शामिल हुई. तब कांग्रेस को 41 सीटें लड़ने को मिली. इनमें से 27 सीटों पर पार्टी को जीत मिली. ये आंकड़ा 1995 के बाद सबसे ज्यादा था.

ये कांग्रेस के पिछले 27 सालों का लेखा जोखा है. इसमें ये जानना मुश्किल नहीं है कि कांग्रेस पर लालू प्रसाद यादव का कितना प्रभाव रहा है. लालू प्रसाद यादव ने जब जब चाहा जैसे चाहा कांग्रेस का इस्तेमाल किया. कोशिश कांग्रेस की तरफ से भी हुई. लेकिन उन कोशिशों की वजह से कांग्रेस कई मुद्दों पर एक्सपोज हो गई. जैसे 2000 का विधानसभा चुनाव.

1990 से लेकर 1995 तक कांग्रेस बिहार में प्रमुख विपक्षी दल थी. लेकिन उस दौरान कांग्रेस ने लालू प्रसाद यादव के खिलाफ कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया. वो मंडल-कमंडल के दौर पर कहीं एक कोने में पड़ी रही. कांग्रेस ने विरोध प्रदर्शन तक नहीं किया. न ही किसी मुद्दे पर बिहार बंद का एलान किया. नतीजा ये हुआ कि 1995 में बीजेपी बिहार में प्रमुख विपक्ष बन के उभरी और बाद में नीतीश कुमार के साथ सत्ता पर काबिज हुई. ऐसे में ये सवाल तो बिल्कुल बेमानी है कि लालू प्रसाद यादव, बिहार कांग्रेस को चला रहे हैं.

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लेखक

सुजीत कुमार झा सुजीत कुमार झा @suj.jha

लेखक आजतक में पत्रकार हैं

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