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Updated: 17 जून, 2015 06:41 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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दिल्ली के दूध से जली बीजेपी पटना में मट्ठा भी फूंक फूंक कर पी रही है. बीजेपी के बिहार प्रभारी अनंत कुमार का ताजा बयान भी उसी तरफ इशारा कर रहा है. बिहार बीजेपी के नेता जोर जोर से सीएम उम्मीदवार घोषित करने की मांग कर रहे हैं. विरोधी ताने मार रहे हैं. पर बीजेपी कोई भी जोखिम उठाने के मूड में नहीं लगती. मालूम नहीं कैसे कुछ विरोधी दल मांझी में बिहार का किरण बेदी का अक्स देखने लगे थे.

वोट फॉर 'मोदी'

नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ताल ठोक कर बीजेपी को सीएम उम्मीदवार घोषित करने की चुनौती दे रहे हैं. लालू ने तो तंज यहां तक कसा है की बीजेपी के पास बिहार में सीएम उम्मीदवार लायक कोई नेता ही नहीं है.

बिहार प्रभारी अनंत कुमार के बयान से भी साफ हो गया है. बीजेपी में एक ही नेता है - नरेंद्र दामोदरदास मोदी. 'वोट फॉर मोदी'. नारा भी यही होगा. अगर इस नारे में कुछ लोगों ने नरेंद्र की जगह सुशील समझ लिया तो दोहरा फायदा हो सकता है. बशर्ते, वो विरोधी खेमे के न हों.

यहां तो नेता ही नेता

अगर बीजेपी नेताओं की लिस्ट बनाएं तो पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी सबसे सीएम की कुर्सी के बड़े दावेदार हैं. उनके अलावा नंद किशोर यादव, रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूडी, गिरिराज सिंह, सीपी ठाकुर, मंगल पांडे, चंद्रमोहन राय जैसे नेताओं की एक लंबी सूची है. इन सारे नेताओं की दावेदारी का अपना अलग अलग आधार है.

बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को अगर ये डर है कि किसी एक नेता का नाम आगे किया गया तो बाकी चुनाव प्रचार में दिलचस्पी लेना छोड़ देंगे, तो काफी हद तक जायज है. ऐसी गुटबाजी दिल्ली में भी देखने को मिली थी. हालांकि, उसकी बड़ी वजह ये थी कि किरण बेदी को ऊपर से एंट्री दे दी गई थी. खैर, बिहार में ऐसा करना भी मुश्किल है. दिल्ली में भले ही एक बड़ी आबादी बिहार से हो लेकिन डेमोग्राफी के मामले में दोनों जगहों में बुनियादी फर्क है.

सबकी पसंद - कोई एक नहीं

सीएम उम्मीदवार को लेकर हिचकिचाहट की एक बड़ी वजह नेताओं की सर्वमान्य स्वीकार्यता भी है. बीजेपी के पास राज्य में ऐसा कोई नेता तो नहीं ही है जिसकी हर तबके में स्वीकार्यता हो. एक नाम से किसी को चिढ़ है तो दूसरे से किसी और को. बीजेपी अगर अगड़े तबके से उम्मीदवार बनाती है तो पिछड़े नाराज हो जाएंगे. अगर वो यादव, कुशवाहा या पिछड़े वर्ग से सीएम उम्मीदवार उतारती है तो अगड़े नाराज हो जाएंगे.

सत्ता तक पहुंचने के लिए बीजेपी हर तबके का वोट चाहती है. खासकर, लालू नीतीश गठबंधन बन जाने के बाद से. उसे ज्यादा से ज्यादा दलित वोट अपनी झोली में डालने हैं. इसीलिए उसने अंबेडकर जयंती मनाने से लेकर मांझी तक को भी जोड़ रखा है. रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा पहले से ही कदम कदम मिला कर चल रहे हैं.

अब बीजेपी अगर पिछड़े वर्ग के किसी नेता को उम्मीदवार बनाती है तो भूमिहार, ब्राह्मण और अन्य सवर्ण बिदक जाएंगे. इस वोट बैंक में एक तबका ऐसा है जिसकी संख्या से ज्यादा उसकी गतिविधियां मायने रखती हैं. माना जाता है कि वोट शेयर उनके भले ही कम हों लेकिन गली-मोहल्लों में माहौल वो जबर्दस्त बनाते हैं.

क्या बीजेपी की मुसीबत ये है कि उसके पास जरूरत से ज्यादा सीएम दावेदार हो गए हैं? क्या बीजेपी ने इन नेताओं की दावेदारी के विवाद से बचने के लिये ये नुस्खा अपनाया है? काफी हद तक.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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