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Updated: 06 अगस्त, 2017 08:17 PM
सुजीत कुमार झा
सुजीत कुमार झा
  @suj.jha
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बिहार में सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस की स्थिति चाय में डूबे बिस्किट की तरह हो गई है. हालात ऐसे हैं कि उसकी कोई भूमिका ही नहीं रह गई है. मजबूरन उसे आरजेडी के साथ ही रहना पडेगा. भले ही आरजेडी पर भ्रष्टाचार के आरोप हों लेकिन कांग्रेस के पास उसके साथ रहने के अलावे कोई चारा नहीं है. आरजेडी की दोस्ती की वजह से ही उसे सत्ता भी गंवानी पड़ी. उसे आरजेडी के साथ दोस्ती की कुर्बानी सत्ता गवांकर देनी पड़ी. लेकिन अभी भी यह तय नहीं है कि कांग्रेस की बिहार में क्या भूमिका होगी.

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कांग्रेस सूत्रों की मानें तो बिहार में भले ही आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाला करने वाले भ्रष्टाचार के आरोपी और परिवारवाद के आईने से देखा जाता हो, लेकिन राष्ट्रीय सत्र पर धर्मनिरपेक्षक ताकतों को एक साथ करने में लालू की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. राष्ट्रीय स्तर पर भविष्य में कोई महागठजोड़ की कवायद होती है वो भी लालू के बिना संभव नहीं है. शायद इसलिए कांग्रेस हाईकमान लालू प्रसाद यादव को अलग रखकर कोई राजनैतिक समीकरण बनाने की बात नही सोचता. हांलाकि इसका खामियाजा पार्टी को बिहार में भुगतना पड़ रहा है. कांग्रेस के अधिकांश नेता आरजेडी और कांग्रेस के इस गठजोड़ से उब चूके हैं, लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं है.

आरजेडी और कांग्रेस के साथ संबंधों की शुरूआत 1997 से तब शुरू होती है जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे. 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनती हैं. तमाम हमले झेल रहीं सोनिया गांधी को लालू प्रसाद यादव का साथ मिला. तब ये संबंध और मजबूत हो गया. चारा घोटाले में फंसने के बाद लालू प्रसाद यादव की सरकार की स्थिति जब जब डांवाडोल हुई, कांग्रेस ने समर्थन दिया. 2000 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और आरजेडी अलग-अलग चुनाव लड़े लेकिन बाद में कांग्रेस लालू प्रसाद यादव की सरकार में शामिल भी हुई तब मुख्यमंत्री राबडी देवी थीं. लेकिन 2005 का चुनाव कांग्रेस ने अकेले लड़ा और 54 सीटों में से मात्र 10 सीटों पर उसे जीत मिली. लेकिन उसी साल नवंबर में हुए चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और इतनी सीट पर समझौता हुआ तब कांग्रेस को मात्र 9 सीटें मिलीं.

2004 का लोकसभा चुनाव दोनों ने मिलकर लड़ा तब आरजेडी को 22 और कांग्रेस को चार सीटें मिलीं. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में दोनों का समझौता टूट गया और दोनों पार्टियां धाराशाही हो गईं. 2010 का विधानसभा चुनाव दोनों ने अलग-अलग चुनाव लडकर मुंह की खाई. पर 2014 के लोकसभा में दोनों ने मिलकर फिर चुनाव लड़ा तब भी कांग्रेस को दो और आरजेडी को चार सीटें मिलीं. पर 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू के साथ कांग्रेस और आरजेडी ने मिलकर महागठबंधन बनाया तब उन्हें भारी सफलता मिली और 10 वर्षों बाद कांग्रेस को सत्ता का स्वाद मिला.

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लेकिन महागठबंधन टूटने के बाद बिहार मे कांग्रेस काफी बुरी स्थिति में है. उसके नेता विधायक हताश हैं, उन्हें आगे का रास्ता नहीं दिख रहा है. उसे समझ नहीं आ रहा है कि आगे का रास्ता कैसे तय होगा. उनका भविष्य क्या होगा. भ्रष्ट्राचार का आरोप झेल रही आरजेडी के साथ वो अपनी नैय्या कैसे पार लगाएंगे. सबसे ज्यादा नाराजगी कांग्रेस आलाकमान की चुप्पी से है. कांग्रेस के अधिकांश नेताओं का मानना है कि तेजस्वी यादव के मामले में अगर आलाकमान नीतीश कुमार के साथ रहने का निर्णय ले लेती तो शायाद यह दिन न देखना पड़ता. सत्ता से हाथ धोने के बाद कांग्रेस के नेता विकल्प की तलाश में हैं, क्योंकि कांग्रेस आलाकमान की अनिर्णय की स्थिति ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है ऐसे में अगर पार्टी टूटती भी है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

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लेखक

सुजीत कुमार झा सुजीत कुमार झा @suj.jha

लेखक आजतक में पत्रकार हैं

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