हिंदी-विरोधी आंदोलन का खूनी इतिहास और उसके पॉलिटिकल फायदे
हिंदी को लेकर जो बातें अमित शाह ने कहीं हैं उसके बाद विरोध शुरू हो गया है. शायद अमित शाह भूल गए कि हिंदी विरोध का इतिहास न सिर्फ खून से लथपथ है बल्कि इसने सरकारें बनवाई और गिरा तक दी हैं.
-
Total Shares
हिंदी दिवस पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान के बाद मचा सियासी घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा. देश भर से विरोध के स्वर बुलंद हो गए है और हिंदी को लेकर राजनीति तेज हो गई है. ध्यान रहे कि 14 सितम्बर यानी हिंदी दिवस पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक देश एक भाषा की वकालत की थी. शाह ने कहा था कि पूरे देश की एक भाषा होना अत्यंत आवश्यक है जो दुनिया में भारत की पहचान बने. इसके आलवा गृह मंत्री ने ये भी कहा था कि आज देश को एकता की डोर में बांधने का काम अगर कोई भाषा कर सकती है तो वह सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी भाषा ही है. शाह के इस बयान के बाद AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, DMK चीफ स्टालिन. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी समेत कई नेताओं ने सत्ता पक्ष की तरफ से आए इस बयान की कड़ी आलोचना की थी और कहा था कि अब सरकार के द्वारा गैर हिंदी भाषी राज्यों तक में हिंदी को जबरन थोपा जा रहा है.
अमित शाह को याद रखना चाहिए हिंदी को लेकर देश में संघर्ष खूब हुआ है
बात वर्तमान की हो तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के ही वरिष्ठ नेताओं में शुमार शशि थरूर ने ट्वीट के जरिये सरकार को आड़े हाथों लिया है. राहुल गांधी ने कहा है कि भारत की कई भाषाएं उसकी कमजोरी नहीं हैं.
????????Oriya ???????? Marathi???????? Kannada ????????Hindi ????????Tamil????????English ????????Gujarati ????????Bengali ????????Urdu ????????Punjabi ???????? Konkani ????????Malayalam ????????Telugu ????????Assamese ????????Bodo ????????Dogri ????????Maithili ????????Nepali ????????Sanskrit ????????Kashmiri ????????Sindhi ????????Santhali ????????Manipuri...
India’s many languages are not her weakness.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) September 16, 2019
वहीं बात अगर शशि थरूर की हो तो उन्होंने अपने ट्विटर पर एक तस्वीर साझा की है. तस्वीर के माध्यम से थरूर ये कहना चाह रहे हैं कि भारत के प्रत्येक नागरिक की भाषा को हिंदी से रिप्लेस नहीं किया जा सकता.
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) September 15, 2019
बात हिंदी पर मच रहे विरोध की हो रही है तो हमारे लिए भी ये बताना बहुत जरूरी है कि ये कोई पहली बार नहीं है कि हिंदी को लेकर विरोध हुआ है. हिंदी विरोध के मद्देनजर इतिहास खूनी दास्तानों से भरा पड़ा है. कुछ और बात करने से पहले हमारे लिए ये समझना जरूरी है कि आखिर हिंदी को लेकर क्या कहता है संविधान.
राजभाषा को लेकर संवैधानिक/वैधानिक प्रावधान
संविधान की धारा 343(1) पर गौर करें तो मिलता है कि देवनागरी लिपि में हिन्दी संघ की राजभाषा होगी. धारा 343(2) में अंग्रेजी को आधिकारिक कार्य में उपयोग संविधान आंरभ होने की तिथि के 15 वर्ष (यानी 25 जनवरी 1965) की अवधि तक जारी रखने के लिए कहा गया है. धारा 343(3) में संसद को 25 जनवरी 1965 के बाद भी आधिकारिक प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के उपयोग को जारी करने के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया है. राजभाषा अधिनियम, 1963 (संशोधित 1967) की धारा 3(2) के अनुसार 25 जनवरी 1965 के बाद भी आधिकारिक कार्य में अंग्रेजी के उपयोग को जारी रखने के बात कही गई है.
इस अधिनियम में यह भी बताया गया है कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का उपयोग कुछ विशिष्ट प्रयोजनों के लिए अनिवार्य रूप से किया जाएगा जैसे कि प्रस्ताव, सामान्य आदेश, नियम, अधिसूचना, प्रशासनिक तथा अन्य रिपोर्ट, प्रेस सम्प्रेषण, प्रशासनिक और अन्य रिपोर्ट तथा संसद के सदनों या सदन में रखे जाने वाले आधिकारिक पत्र; संविदाएं, करार, लाइसेंस, अनुज्ञा पत्र, निविदा सूचनाएं और निविदा के प्रपत्र आदि.
इसके अलावा 1976 में राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 8(1) के प्रावधानों के तहत राजभाषा के कुछ प्रमुख नियम भी बनाए गए थे और निर्देशित किया गया था कि उन्हीं के मद्देनजर संघ को काम करना होगा.
हिंदी विरोध का जन्म
गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को लेकर सबसे पहला विरोध दक्षिण भारत के तमिलनाडु में 1937 में हुआ. तब इसे मद्रास प्रान्त के रूप में जाना जाता था. मद्रास प्रान्त के लोग बिलकुल भी नहीं चाहते थे कि हिंदी को उनपर थोपा जाए. इस आंदोलन में राज्य में हिंदी की आधिकारिक स्थिति को लेकर कई बड़े विरोध प्रदर्शन, दंगे, छात्र और राजनीतिक आंदोलन शामिल थे. वर्तमान की तरह तब भी लोग यही चाहते थे कि उन्हें हिंदी से दूर रखा जाए.
हिंदी विरोधी राजनीति से पार्टियां बन गईं
पहली बार हिंदी को लेकर विरोध तब शुरू हुआ जब 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी के स्कूलों में कांग्रेसी नेता सी राजगोपालाचारी के नेतृत्व में हिंदी की अनिवार्य शिक्षा को लागू किया गया. एक तमिल बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण ये बात स्थानीय लोगों को बिलकुल भी पसंद नहीं आई और ई वी रामास्वामी (पेरियार) और विपक्ष की जस्टिस पार्टी (जो बाद में द्रविड़ कझागम के नाम से जानी गई ) ने इसका कड़ा विरोध किया. बताया जाता है कि राज्य में ये विरोध तब 3 वर्षों तक चला.
हिंदी विरोध के नाम पर बहा खून
हिंदी विरोध के नाम पर पेरियार और विपक्ष की जस्टिस पार्टी ने मोर्चा संभाल रखा था. इस आन्दोलन को एक बहुमुखी आंदोलन भी माना जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस आंदोलन में जहां एक तरफ भूख हड़तालें, मार्च, सम्मलेन हुए तो वहीं इसमें खून तक बहा. तब की कांग्रेस सरकार किसी भी सूरत में मद्रास प्रान्त में हिंदी को लागू करना चाहती थी और विरोध बदस्तूर जारी था. सरकार ने इसपर क्रैकडाउन किया नतीजा ये निकला कि इसमें 2 लोगों की मौत हुई और 1198 लोग जिसमें औरतें और बच्चे तक शामिल थे उन्हें गिरफ्तार किया गया.
तब इस मुद्दे पर कांग्रेस को भी अपनी गलती का नुकसान हुआ और 1939 में कांग्रेस सरकार के इस्तीफे के बाद, फरवरी 1940 में अनिवार्य हिंदी शिक्षा को ब्रिटिश गवर्नर लॉर्ड एर्स्किन ने वापस ले लिया. आपको बताते चलें कि आज़ादी के बाद हिंदी विरोध के नाम पर सबसे पहला बवाल 25 जनवरी 1965 को तमिलनाडु के मदुरई में हुआ जहां कुछ स्थानीय छात्रों और कांग्रेस के लोगों के बीच टक्कर हुई. इस मामले ने कैसी आग पकड़ी इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि ये बवाल तब दो महीने तक चला और इसमें आगजनी, गोलीबारी, लूट जैसे मामले तक देखने को मिले.
इस विरोध को देखकर सरकार की हालत भी खूब ख़राब हुई और स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पैरामिलिट्री तक की मदद लेनी पड़ी और इसमें करीब 70 लोगों की मौत हुई जिसमें 2 पुलिसवाले भी शामिल थे. तनावपूर्ण स्थिति संभालने के लिए लाल बहादुर शास्त्री सामने आए और उन्होंने लोगों को विश्वास दिलाया कि अंग्रेजी का इस्तेमाल आधिकारिक भाषा के रूप में किया जाए और ये तब तक हो जब तक गैर हिंदी भाषी राज्य चाहें.
DMK ने हिंदी के नाम पर जीता चुनाव बनाई सरकार
1965 के इस आंदोलन ने अगर किसी को सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाया है तो वो और कोई नहीं DMK हैं. 1967 के चुनाव में DMK ने हिंदी को एक बड़ा मुद्दा बनाया और इसके दम पर चुनाव जीता और इसके बाद बरसों तक तमिलनाडु में शासन किया.
बहरहाल हिंदी विरोध पहले ही इतने बवाल झेल चुका है और अब जबकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने फिर से एक बार सारे देश को भाषा के नामपर एक ही धागे में पिरोने की वकालत की है. देखना दिलचस्प रहेगा कि इसका आगे असर क्या होता है. जिस हिसाब से सारे गैर हिंदी भाषी नेता इस मुद्दे को लेकर एकमंच पर आए हैं कहा जा सकता है कि जैसे जैसे दिन बढ़ेंगे हिंदी विरोध की आग तेज होगी जो भाजपा और खुद गृहमंत्री के लिए चिंता का कारण बनेगी.
ये भी पढ़ें-
साहित्य के शौकीनों को 'न्यू हिन्दी' से खौफ कैसा? वह एक पुल ही तो है...
विदेश विभाग में धर्म के बाद अब भाषा पर बवाल
आपकी राय