New

होम -> सियासत

 |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 05 जुलाई, 2021 08:21 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
  • Total Shares

यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP assembly elections 2022) से पहले सूबे की सियासत में हर रोज नए समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं. छोटे दलों का भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाने से लेकर जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भाजपा (BJP) के रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन तक उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में सियासी बयार लगातार अपनी दिशा बदल रही है. इन सबके बीच आम आदमी पार्टी (AAP) के सांसद संजय सिंह (Sanjay Singh) और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के बीच हुई मुलाकात ने उत्तर प्रदेश में एक नए राजनीतिक समीकरण की सुगबुगाहट को हवा दे दी है.

हालांकि, संजय सिंह ने अखिलेश यादव से हुई मुलाकात को 'शिष्टाचार भेंट' के तौर पर पेश किया. लेकिन, ये भी माना कि सूबे की हालिया राजनीतिक परिस्थितियों पर चर्चा की गई. 'आजतक' के दिए एक इंटरव्यू में AAP सांसद ने गठबंधन को लेकर किसी भी चर्चा से इनकार किया है. लेकिन, ये कहने से नहीं चूके कि उत्तर प्रदेश के 'हित' में जो होगा, हम वो फैसला लेंगे. दरअसल, यूपी विधानसभा चुनाव 2022 का सेमीफाइनल माने जा रहे जिला पंचायत चुनाव में पंचायत सदस्यों के मामले में भले सपा (SP) आगे रही हो. लेकिन, जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भाजपा ने चुनावी प्रबंधन में सपा के 'नाकों चने चबवा' दिए.

जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के नतीजों ने निश्चित तौर पर सपा समेत पूरे विपक्ष को बेचैन कर दिया होगा.जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के नतीजों ने निश्चित तौर पर सपा समेत पूरे विपक्ष को बेचैन कर दिया होगा.

जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के नतीजों ने निश्चित तौर पर सपा समेत पूरे विपक्ष को बेचैन कर दिया होगा. विपक्षी दल पहले ही मानकर चल रहे हैं कि भाजपा के साथ कड़ा मुकाबला होना तय है. कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा के सामने एक मजबूत सियासी विकल्प ही कड़ी चुनौती पेश कर सकता है. बड़े दलों से गठबंधन के नाम पर किनारा कर चुके अखिलेश यादव भाजपा के सामने खुद को सबसे मजबूत सियासी विकल्प दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि मजबूत सियासी विकल्प तैयार करने के लिए अगर यूपी में AAP और सपा के बीच गठबंधन होता है, तो इसके क्या मायने होंगे?

सपा के साथ AAP आई, तो 'खेला होई'

उत्तर प्रदेश में कहने को तो चुनाव बहुकोणीय होना वाला है. लेकिन, यूपी विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक परिस्थितियां बदलेंगी, ये तय है. संजय सिंह और अखिलेश यादव की मुलाकात इसका सबसे ताजा उदाहरण कहा जा सकता है. प्रदेश में बसपा (BSP) और कांग्रेस फिलहाल हाशिये पर हैं. हालांकि, कांग्रेस (Congress) को लेकर फिर भी कहा जा सकता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा के चेहरे के सहारे पार्टी कुछ बेहतर प्रदर्शन कर सकती है. लेकिन, बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने को उतारू नजर आ रही हैं. सत्ताधारी भाजपा को निशाने पर लेने की जगह मायावती लगातार सपा पर ही हमलावर दिखती हैं. बसपा सुप्रीमो के बयानों से लगता है कि वो अपनी पार्टी के सियासी समीकरण सुधारने से ज्यादा भाजपा के खिलाफ सपा को प्रमोट कर रही हैं.

वहीं, आम आदमी पार्टी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में पदार्पण तो कर दिया है. लेकिन, अभी भी पार्टी की भूमिका 'वोटकटवा' से ऊपर नहीं बन सकी है. भाजपा के सामने एक मजबूत छवि वाले गठबंधन के तौर सपा और आप का साथ आना बेहतर सियासी विकल्प हो सकता है. अगर ये गठबंधन वास्तविकता को प्राप्त कर लेता है, तो केवल AAP को ही नहीं सपा को भी काफी हद तक फायदा होगा. दरअसल, सपा और आप दोनों ही भाजपाविरोधी विरोधी वोटों को अपने साथ लाने की कवायद में हैं. वहीं, कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने भाजपा को काफी हद तक बैकफुट पर डाल दिया है. भाजपा से छिटके इन वोटों में बिखराव को कम करने में दोनों पार्टियों का गठजोड़ काफी हद तक प्रभावी कहा जा सकता है.

वहीं, राम मंदिर निर्माण में कथित जमीन घोटाले के आरोपों पर मुखर होकर सामने आई AAP के सपा के साथ आने पर मुस्लिम वोटरों का भरोसा और ज्यादा बढ़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. अखिलेश यादव ने इस कथित घोटाले को लेकर ज्यादा बयानबाजी नहीं की है, जो मुस्लिम वोटों को उनसे छिटका सकती है. वहीं, सपा और आप का ये गठजोड़ AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी के संभावित प्रभाव को पूरी तरह से कमजोर करने की ताकत रखता है. इन दोनों पार्टियों के एक साथ आने से कांग्रेस और बसपा के अपने काडर वोट तक ही सीमित हो जाने की संभावना भी बढ़ जाएगी. कहा जा सकता है कि सपा और आप के साथ आने से 'खेला होई' का चुनावी नारा काम कर सकता है.

अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भाजपा को दो विधानसभा चुनाव में सीधे तौर पर मात दे चुके हैं. केजरीवाल ने दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक, मुफ्त बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के सहारे लोगों के बीच अपनी छवि को चमकाया है. केजरीवाल की 'झाड़ू' बीते पंजाब विधानसभा चुनाव से लेकर हाल ही में हुए गुजरात निकाय चुनाव में चलता रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों के खिलाफ मुखरता से आवाज उठाने वालों में भी अरविंद केजरीवाल का नाम शुमार है. वहीं, उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद से ही अखिलेश यादव कहते रहे हैं कि सपा सरकार के कामों का फीता काटने के लिए ही ये भाजपा सरकार सत्ता में आई है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अखिलेश यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में कई बड़े प्रोजेक्ट्स को हरी झंडी दिखाई थी. अखिलेश यादव ने खुद को काम करने वाला नेता साबित करने में काफी मेहनत की है.

बसपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन के सियासी समीकरण आजमा चुके अखिलेश यादव चुनावी बिसात पर हर चाल सोच-समझकर चल रहे हैं. यूपी के बड़े शहरों को छोड़ दें, तो आम आदमी पार्टी प्रदेश में अपना बड़ा संगठन तैयार नहीं कर पाई है. सपा का साथ लेना काफी हद तक उसकी मजबूरी है. अगर AAP अकेले चुनाव में जाने का मन बनाती है, तो उस पर वोटकटवा होने का ठप्पा लग जाएगा. जिसका असर पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों पर भी पड़ेगा. कहना गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश में अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव का सियासी गठजोड़ फायदे से ज्यादा राजनीतिक मजबूरी है. लेकिन, इसका सियासी फायदा सपा और आम आदमी पार्टी दोनों को ही हो सकता है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय