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Updated: 30 जून, 2018 04:51 PM
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देश के सबसे उर्जावान नेता की लाख कोशिशों के बावजूद अर्थव्यवस्था है कि पटरी पर आने का नाम ही नहीं ले रही है. कड़वी दवा से लेकर बिज़नेस डिप्लोमेसी सब आज़मा लिया लेकिन भारत की मुद्रा रुपया विश्व नेता बन चुके मोदी जी को लगातार चिढ़ा रही है और अब तो इसने हद ही कर दी. 1 डॉलर के मुकाबले 69 के आंकड़े को छू गई. जो कभी नहीं हुआ वो इस चुनावी साल में होने के कारण मोदी सरकार के आर्थिक नीतियों में दम नहीं होने का एहसास हो रहा है. झटका अगर एक मोर्चे पर लगे तो चिंता की कोई ख़ास बात नहीं होती है लेकिन यहां तो हर मोर्चे पर मोदीनॉमिक्स फेल हो रही है. बीते दिन आरबीआई की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आने वाले दिनों में बैंकों का एनपीए 12.2% से बढ़कर 13.3% तक हो सकता है.

कच्चे तेल के बढ़ते दाम ने रुपये में आग लगा रखी है. एयर इंडिया को कोई खरीदार नहीं मिल रहा है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी लगातार हिचकोले खा रहा है. बेरोज़गारी पर कुछ हद तक लगाम लगा है लेकिन देश की जनसँख्या उसमे लगातार असंतुलन बनाने का काम कर रही है. देश पहली बार सबसे ज़्यादा ग़रीब लोगों की सूची से बाहर तो निकला है लेकिन अभी भी 7 करोड़ से ज्यादा लोग भयंकर गरीबी में हैं. मोदी सरकार की कुछ योजनाओं ने ठीक ठाक हलचल मचाई है लेकिन उसका कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा ये अभी समय के अधीन है. भारत में किसानों के मुद्दे को सुलझाना अब इंसानों के वश में नहीं रहा इसलिए थोड़ा धैर्य रखिये और किसी दैवीय चमत्कार का इंतज़ार कीजिये.

नरेंद्र मोदी, अर्थव्यवस्था, नोटबंदी, जीएसटी, काला धन, बैंक, आरबीआई

भारत बहुत बड़ी मात्रा में ईरान से कच्चे तेल का आयात करता है. अमेरिका ने हाल ही में उन देशों को अपने चिर-परिचित अंदाज़ में धमकी दी है. जो ईरान से कच्चे तेल का आयात करते हैं और व्यापारिक संबंध रखते हैं, नवंबर तक इन देशों को ईरान से अपने ट्रेड को बंद करना होगा नहीं तो अमेरिका की नाराज़गी झेलनी पड़ सकती है. भारत ने हाल ही में चीन और पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट के मुकाबले में ईरान से चाबहार पोर्ट को विकसित करने के लिए समझौता किया है जो की सामरिक रूप से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत इस रूट के ज़रिये सीधे अफ़ग़ानिस्तान और यूरोप तक पहुँच जायेगा. लेकिन अमेरिका की अप्रत्यक्ष धमकी के बाद इस योजना के ऊपर भी संकट के बादल मंडरा सकते हैं. ऐसे में भारत अमेरिका को मनाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान कार्ड का इस्तेमाल कर सकता है लेकिन बहुत कठिन है डगर पनघट की.

नरेंद्र मोदी आर्थिक मोर्चों के साथ-साथ राजनीतिक मोर्चे पर भी चुनातियों का सामना कर रहे हैं. भारतीय राजनीति के सबसे बड़े अवसरवादी नेताओं में से एक नीतीश कुमार एक बार फिर अंतरात्मा की आवाज़ को सुनते हुए पलटी मार सकते हैं. कभी बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्ज़ा मांग रहे हैं तो कभी बिहार में लोकसभा की 25 सीटें. ऐसे में मोदी जी कंफ्यूज हो गए हैं की वास्तव में उनको चाहिए क्या? ऐसे भी ये नीतीश कुमार हैं जब इनके गुरू ज़ॉर्ज फर्नांडिस नहीं समझ पाए तो मोदी जी को लंघी मारने में इनको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी. शिवसेना पहले से ही बेवफा सनम की तरह व्यवहार कर रही है.

विपक्षी एकता ने नाक में दम कर रखा है. राहुल गाँधी की क्रिएटिविटी पहली बार उफान पर है. अखिलेश यादव अपनी बुआ के लिए और अपने बंगले का बदला लेने के लिए कुछ सीटों का बलिदान करने के लिए भी तैयार हैं. योगी आदित्यनाथ जातीय समीकरण तो छोड़िये हिंदुत्व को भी नहीं साध पा रहे हैं. संत समाज और प्रवीण तोगड़िया राम मंदिर का निर्माण नहीं होने से खफ़ा हैं. देश के सबसे बड़े राज्य में संगठन और पार्टी के बीच आंतरिक गुटबाज़ी चरम सीमा पर है. कांग्रेस की सरकार जाने का एक मात्र कारण अर्थव्यवस्था की नाकामी और तमाम घपले घोटाले थे. चुनावी साल में नरेंद्र मोदी के सामने ये मुद्दे विपक्षी एकता से ज्यादा चुनौतीपूर्ण हैं.

(ये आर्टिकल इंडिया टुडे के साथ इंटर्नशिप कर रहे विकास कुमार ने लिखा है)

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