संजय दत्त ने क्यों कहा था- पांच बार देखने पर समझ आएगी यश की KGF-2
यश की केजीएफ 2 (KGF 2) सफलता के परचम लहरा चुकी है. आइए जानते हैं क्यों संजय दत्त ने कहा कि इसे एक बार नहीं चार पांच बार देखने के बाद ही समझा जा सकता है.
-
Total Shares
प्रशांत नील के निर्देशन में यश और संजय दत्त की मुख्य भूमिकाओं से सजी एक्शन थ्रिलर केजीएफ 2 ने भारतीय बॉक्स ऑफिस पर महज पांच दिनों में ही पिछले कई सालों में आई अनगिनत फिल्मों का रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिया है. केजीएफ 2 (सभी भाषाओं) अब घरेलू बॉक्स ऑफिस पर सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में तीसरे नंबर पर है. उससे आगे सिर्फ बाहुबली 2 (1031 करोड़) और आरआरआर (747 करोड़ जारी) ही है. यश मसाला एंटरटेनर पर खूब बातें हो रही हैं. ढेरों इंटरव्यू सामने आ रहे हैं. फिल्म की अलग-अलग व्याखाएं दिख रही हैं. केजीएफ 2 की स्टारकास्ट की भी फिल्म को लेकर अपनी व्याख्याएं हैं. हालांकि व्याख्याओं को किसे ने बहुत डिकोड नहीं किया है.
केजीएफ 2 समेत साउथ की तमाम फिल्मों को लेकर एक व्याख्या तो यह भी है कि वहां की फ़िल्में भारतीय संकृति और उसके अनुकूल की राजनीतिक मान्यताओं को स्थापित करने की कोशिश करती हैं और इसे बाधित करने वाली ताकतों की पहचान बढ़ाती हैं. ये दूसरी बात है कि ज्यादातर दर्शक फिल्मों को 'मूक नजरिए' से देखते हैं. लेकिन वे किरदारों की अहमियत को बढ़िया से समझते हैं. हो सकता है कि वो सैद्धांतिक पक्ष गढ़ नहीं पाते मगर उससे सहमत रहते हैं. यह भी हो सकता है कि वे उन्हें परिभाषाओं में बांधने की कला में पारंगत नहीं होते हों. गौर से देखने पर समझने में बहुत मदद मिलती है कि आखिर दक्षिण की फ़िल्में या उसी धरातल पर खड़ी बॉलीवुड की फ़िल्में दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ने में क्यों कामयाब होती हैं. और दूसरी फ़िल्में क्यों बैठ जाती है.
अधीरा के किरदार में संजय दत्त का बैक लुक.
केजीएफ 2 को पांच बार देखने की जरूरत क्यों बता रहे संजय दत्त?
समाज के अंदर जो बहसें सालों से चल रही हैं उनकी अनुगूंज अलग-अलग ध्वनियों में अपने दौर की फिल्मों और उनके किरदारों के माध्यम से हमेशा व्यक्त होती रही है. भले ही कहानी का बैकड्राप आज का हो, दस बीस साल पुराना हो या हजार पांच सौ साल पुराना. हमें मौजूदा दौर की चीजों को समझने में दिक्कत होती है क्योंकि हम उसी दौर में रह रहे होते हैं और उस दौर में हजारों नैरेटिव रहते हैं. लेकिन जब हम पीरियड देखते हैं तो वहां एक नैरेटिव बहुत कम होते हैं और चीजों को समझने में ज्यादा आसानी होती है. हाल ही में बॉलीवुड हंगामा के साथ केजीएफ 2 के एक प्रमोशनल इंटरव्यू में संजय दत्त ने कहा था कि केजीएफ 2 का ओपनिंग शो जरूर देखिए. लेकिन यह वो फिल्म है जिसे चार पांच बार देखनी चाहिए. एक बार देखेंगे तो समझ नहीं आएगी. आखिर केजीएफ 2 को चार-पांच बार देखने की जरूरत क्या है?
केजीएफ 2 असल में मसल पावर और अवैध तरीके से दासता की व्यवस्था को बनाए रखने की खिलाफत करती है. यह अमानवीयता के खिलाफ विद्रोह की कहानी है जो परिवार और समुदाय के सहजीवन की वकालत करती है. यह हर उस मजलूम को संकट में भरोसा देती है कि अधीरा (संजय दत्त) के रूप में दुष्ट, अमानवीय आक्रांता, असांस्कृतिक, बहुरंगी व्यवस्था के खिलाफ कोई है जो उसकी मदद के लिए खड़ा हो जाएगा. भले अधीरा अपने प्रभाव और लूट में हिस्सेदारी के वितरण से उन जिम्मेदार व्यवस्थाओं को मनमुताबिक हैंडल करता है- जिसकी जवाबदारी मजलूमों के प्रति ज्यादा है. लेकिन जब जवाबदार व्यवस्था मजलूमों के हित को नहीं देखता रॉकी (यश) के रूप में उसके आसपास मौजूद महानायक मोर्चा संभालता है. वह महानायक जो कई मायनों में अधीरा जैसा ही क्रूर है लेकिन मजलूमों यानी समाज के बड़े हिस्से हित रक्षक भी है.
खलनायकों की स्थापना से समाज, इतिहास और भविष्य तय करता है
आरआरआर में अधीरा का रूप अंग्रेजों में दिखता है, पुष्पा में वह सिस्टम का सिंडिकेट बनकर आता है. केजीएफ 2 में अधीरा क्रूरता और खौफ से बना सिंडिकेट ही तो है. अधीरा हजारों साल से दासता की व्यवस्था बनाए रखने का प्रतीक है. उसकी ड्रेसिंग, लुक और संवाद पर ध्यान दीजिए. वह कहता है- "तलवार चलाकर, खून बहाकर जंग लड़ना, तबाही नहीं तरक्की होती है." अधीरा के पहनने-ओढ़ने का अंदाज देखिए, उसकी बातचीत देखिए और उसकी हरकतें भी देखिए. अधीर के किरदार को दुनियाभर की अन्य प्रभावी पीरियड फिल्मों में आक्रांताओं के बाने से तुलना कीजिए. इस तरह देखने पर अधीरा कर्नाटक की एक गोल्ड माइन के स्थानीय माफिया से कहीं ज्यादा बड़ी पहचान लेकर हमारे समाने खड़ा हो जाता है. भारतीय संदर्भ में मानवीयता ही बड़ा पक्ष है जो अधीरा और रॉकी की छवियों को हिंसा की एक ही जमीन पर होने के बावजूद अलग-अलग कर देती हैं. और उसमें से एक महानायक निकलता है दूसरा खलनायक.
रॉकी का संवाद सुनिए- "वायलेंस वायलेंस वायलेंस. आई डोंट लाइक ईट. आई अवाइड. बट वायलेंस लाइक्स मी." यानी रॉकी की हिंसा में आस्था तो नहीं है. वह इससे बचना भी चाहता है, मगर दौर-ए-गुनाह ही कुछ ऐसा है कि ना चाहते हुए बार-बार उसका साबका हिंसा से ही पड़ता रहता है. भारतीय परंपरा में अहिंसा को परम धर्म जरूर माना गया है. लेकिन हमारी परंपरा की स्थापना यह भी है कि कई बार सामूहिक कल्याण के लिए उसे जायज ही नहीं तार्किक और बौद्धिक भी माना गया है. महाभारत में व्यापक लोककल्याण की इसी भावना के लिए कृष्ण, पांडवों को अपने ही कुल वंश के खिलाफ महान युद्ध के लिए ललकारते हैं. केजीएफ 2 में लोक कल्याण, अहिंसा और हिंसा में फर्क, सहजीवन की खासियत और भविष्य की दृष्टि का संकेत भारतीय परंपरा और दर्शन से उठाया गया है.
दुनिया का कोई भी सभ्य समाज खलनायकों के जरिए ही वर्तमान को मकसद देता है और भविष्य को सुरक्षित करता है. सिनेमा से पहले यह कार्य दार्शनिक, लेखक कहानियों के जरिए करते थे. कवि कविताओं से. सिनेमा भी वैसे अपनी तरह से वही बात करता है. उसकी सफलता उसके विचार पर मुहर है.
शायद संजय दत्त केजीएफ 2 को बार-बार देखने के बाद जिस समझाइश के हासिल होने का हवाला दे रहे हैं- वह यही भारतीय दर्शन है.
आपकी राय