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Updated: 21 सितम्बर, 2022 04:53 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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नाच-गानों और बेमतलब की नकली मारधाड़ की वजह से पॉपुलर धारा में बनी भारतीय फिल्मों को लगातार खारिज करते रहने वाला हॉलीवुड अगर किसी मसालेदार फिल्म की अचानक प्रशंसा करने लगे तो समझिए दाल में कुछ काला है. पॉपुलर धारा में देवआनंद, अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, मोहनलाल और ममूटी जैसे तमाम अभिनेताओं के काम और नाम से अंजान हॉलीवुड अचानक सिर्फ एक फिल्म 'आरआरआर' की वजह से एसएस राजमौली और जूनियर एनटीआर का मुरीद बन जाए तब तो यह मान ही लेना चाहिए- हां, दाल में कुछ काला ही है.

वह भी तब जबकि बॉलीवुड के सबसे ताकतवर धड़े और उसके समूचे प्रचारतंत्र एसएस राजमौली के सिनेमा को 'सर्कस' बताते आए हों. याद ही होगा कि कैसे दक्षिण बनाम बॉलीवुड की बहस में बाहुबली समेत राजमौली या ऐसे दूसरे मेकर्स की फिल्मों को हॉलीवुड की नक़ल बताया जाता रहा है. ऐसी बहसों के बीच अनुराग कश्यप जैसे फिल्ममेकर का अचानक ऑस्कर के लिए आरआरआर की 'अस्वाभाविक' तारीफ़ कई चीजों पर सोचने को विवश करने के लिए पर्याप्त है. रामगोपाल वर्मा के बहाने किसी बॉलीवुड फिल्ममेकर्स की आपबितियां भी सामने आती रहती हैं कि ना जाने कितने प्रयासों के बावजूद दक्षिण की बेसिर पैर की कहानी केजीएफ 2 को नहीं झेल पाए. भले ही यह समूचे देश में बराबर पसंद की गई हो और अभी तक साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली भारतीय फिल्म भी है. क्या आप भूल चुके हैं कि दक्षिण से अलग इलाकों में लंबे समय तक फिल्मों में रजनीकांत के स्टंट को लेकर मजाक बनाए जाते थे.

अगर ऐसे माहौल में हॉलीवुड के फिल्ममेकर, पश्चिम का मीडिया और तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और संगठनों का गिरोह- जिनका फिल्मों से दूर-दूर तक का वास्ता नहीं दिखता वे भी पॉपुलर धारा में बनी किसी भारतीय फिल्म के लिए आकर्षित हों और बॉलीवुड भी- तब चीजों पर ठहरकर सोचने के लिए ढेरों बिंदु मिलते हैं. न्यूयॉर्क में आरआरआर के बहाने कई प्रोग्राम्स के लिए आरआरआर के निर्देशक राजमौली के पहुंचने के बाद फिल्म फेडरेशन की तरफ से लगभग आनन फानन में ऑस्कर 2023 में भारत की आधिकारिक प्रवृष्टि की घोषणा हुई. इससे तीन दिन पहले आईचौक पर मौजूद विश्लेषण से कुछ चीजों को बेहतर समझ सकते हैं. चाहें तो यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं.

the kashmir filesअनुपम खेर.

ग्लोबल संवाद के मामले में द कश्मीर फाइल्स से बेहतर कोई फिल्म नहीं थी ज्यूरी के पास

खैर. इस साल ऑस्कर 2023 की रेस में भारतीय भाषा की कई फ़िल्में थीं. इसमें हिंदी, तेलुगु, मलयालम, तमिल गुजराती आदि तमाम भाषाओं की फ़िल्में थीं. इसमें एक गुजराती में बनी "छेल्लो शो" ने बाजी मारी है. छेल्लो शो अपनी बुनावट में अच्छी फिल्म है मगर एक दिन पहले तक उसकी चर्चा नहीं थी. असल में रिलीज के बाद 'द कश्मीर फाइल्स' को लेकर जिस तरह की डिबेट दुनियाभर के भारतवंशियों में खड़ी हुई- यह स्वाभाविक और तय माना जा रहा था कि प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए फिल्म फेडरेशन की ज्यूरी को शायद ही इससे बेहतर कोई दूसरी फिल्म नजर आए. कश्मीर फाइल्स ऑस्कर के पैमानों पर ही बनी फिल्म है. हर लिहाज से. अब तक ऑस्कर में गई कुछेक फ़िल्में ही 'ग्लोबल संवाद' के मामले में कश्मीर फाइल्स से ताकतवर हों. फिल्म के बैकड्रॉप में वह इलाका है जो पिछले आठ दशकों से भारतीय उपमहाद्वीप में अशांति की सबसे बड़ी वजह बना रहा.

आर्टिकल 370 के खात्मे के बाद फिलहाल भारत में कश्मीर कोई मुद्दा नहीं है. हो सकता है कि चुनाव होने के बावजूद भले ही राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा गुजरात ले जाने के इच्छुक नहीं हैं. मगर गुजरात चुनावों के बाद जब उनकी यात्रा कश्मीर में पहुंचकर ख़त्म होगी, वह एक बार फिर भारतीय राजनीति में एक अहम मुद्दा बन जाए. इस बारे में अब कुछ भी दावे से नहीं कहा जा सकता. लेकिन जहां तक कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय हलचलों का सवाल है, चीन के सहयोग से पाकिस्तान अभी भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने की भरसक कोशिशों में लगा हुआ है. उसे कूटनीति में माहिर अरब, मध्य एशिया और तमाम दूसरे ताकतवर पश्चिमी सहयोगियों और उनके गिरोह से अच्छा सपोर्ट मिल रहा है.

ऑस्कर के लिए जो फ़िल्में रेस में थीं ऐसा नहीं है कि उनका कंटेट कमजोर हो. ऐसा भी नहीं है कि रेस में मौजूद फ़िल्में 'द कश्मीर फाइल्स' को रोकने में स्वाभाविक रूप से सक्षम ही थीं. और ऐसा भी नहीं कि आरआरआर पॉपुलरधारा में मसालेदार फिल्म होने भर की वजह से कमजोर हो. ऑस्कर में भारत की परंपरा बताती है कि जब रेशमा और शेरा, हिना, गुरु, देवदास (शाहरुख खान वाली), एकलव्य: द रॉयल गार्ड, और गली बॉय जैसी बॉलीवुड की फ़िल्में जो ऑस्कर के लिए कूड़ा से कुछ कम नहीं हैं- जा सकती हैं तो फिर आरआरआर कहीं-कहीं ज्यादा दमदार और बहुत बेहतर फिल्म है. सिनेमाई आधारों पर द कश्मीर फाइल्स को लेकर कोई बाधा नहीं थी. बाधाएं राजनीतिक थीं और संकट ज्यूरी का नहीं बल्कि राजनीति और सरकार का था. यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए कि सरकार बैकफुट पर है. कोविड, रूस यूक्रेन युद्ध और तमाम अंतर्राष्ट्रीय वजहों से उपजे विपरीत हालात में उसमें जूझने की क्षमता दिखती है, मगर राजनीति की स्थानीय मजबूरियों ने उसे विवश कर दिया.

दक्षिण की मजबूरियों ने रोकी कश्मीर फाइल्स की राह

असल में द कश्मीर फाइल्स को रोकने के लिए आरआरआर के पक्ष में दिखा माहौल साबुन का झाग था. राजमौली एंड टीम उसमें फंस गई. वे जबरदस्ती पेश की गई दावेदारी के साथ आगे बढ़े. उसे लेकर चलाए जा रहे कैम्पेन में शामिल हुए. शायद उन्हें ऑस्कर से अलग दूसरे मकसदों के बारे में ज्यादा जानकारी ना रही हो. अब भला कोई निर्देशक और पॉपुलर धारा का कोई एक्टर ऑस्कर में नॉमिनेट किया जाए- उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तारीफें मिले तो वह क्यों नहीं जाना चाहेगा? कई बार व्यक्तिगत उपलब्धियों का आकर्षण समाज की सामूहिक उपलब्धियों पर भारी पड़ जाता है. द कश्मीर फाइल्स और आरआरआर के मामले में वही हुआ. मुझे लगता है कि हैदराबाद में जूनियर एनटीआर समेत तेलुगुस्टार्स से अमित शाह जब मिले होंगे उनके बीच बातचीत का एक बड़ा मुद्दा यह भी रहा होगा. लेकिन अचानक से गुजराती फिल्म का चुना जाना साफ़ कर देता है कि तब शाह और एनटीआर या अन्य के बीच बात नहीं बन पाई. छेल्लो शो उसी का नतीजा है.

ज्यूरी और सरकार द कश्मीर फाइल्स को भी भेज सकती थी. मगर जिस तरह से उसके सामने आरआरआर को खड़ा किया गया उससे राजनीतिक नुकसान की आशंका ज्यादा थी. उत्तर-दक्षिण में संघर्ष का नैरेटिव आजतक ख़त्म नहीं हुआ. भाजपा वैसे भी दक्षिण में पांव जमाने के लिए दशकों से संघर्ष कर रही है. सिर्फ एक दक्षिणी राज्य कर्नाटक में उसकी जड़ें मजबूत दिखती हैं. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के लिए उसकी कोशिशें जारी हैं. ऐसे में आरआरआर को खारिज करने से तेलुगु अस्मिता को भाजपा के खिलाफ खड़े किए जाने की आशंका मोदी एंड शाह टीम को जरूर रही होगी.

द कश्मीर फाइल्स को चुनने के बाद बिल्कुल यही होता. राजनीतिक नैरेटिव तो यही कहता है. भाजपा के राष्ट्रवाद की बहस को उत्तर-दक्षिण की बहस में उलझाकर भोथरा कर दिया जाता. अपने विषय और कंटेंट की वजह से आरआरआर को उत्तर से भी सपोर्ट मिलता. क्योंकि द कश्मीर फाइल्स और आरआरआर के दर्शक लगभग एक ही जमीन पर खड़े दिखते हैं. स्वाभाविक रूप से यह हर तरह से भाजपा की राजनीति को ना सिर्फ दक्षिण बल्कि उत्तर के भी तमाम क्षेत्रों में नुकसानदेह साबित होती. एक तबके को द कश्मीर फाइल्स के सामने आरआरआर को ना चुने जाने के बाद तमाम विकल्प मिलते. अब चूंकि कश्मीर फाइल्स नहीं चुनी गई और अलोकप्रिय धारा से एक अन्य क्षेत्रीय भाषा की फिल्म (जिसका कंटेंट बेहतरीन है) चुनी गई है तो आरआरआर के बहाने ऐसी कोई बहस खड़ी करने का सवाल ही नहीं है.

और कोई यह भी नहीं कह सकता कि गुजराती मोदी की सरकार ने छेल्लो शो का चयन गुजरात विधानसभा चुनावों की वजह से किया है. क्योंकि फिलहाल भाजपा को गुजरात जीतने के लिए किसी छेल्लो शो की जरूरत नहीं दिखाई दे रही.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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