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Updated: 12 मार्च, 2018 09:25 PM
मनीष जैसल
मनीष जैसल
  @jaisal123
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अपने पूरे फिल्मी कैरियर में सिर्फ दो फिल्में बनाने वालें करीमुद्दीन आसिफ़ का नाम भारतीय सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास में दर्ज है. उन्होंने आज़ादी से पहले फिल्म फूल (1945) और आज़ादी के बाद मुगल-ए-आजम बनाकर हिन्दी सिनेमा को वो नायाब तोहफा भेंट स्वरूप दिया, जिसके बल पर आज भी सिने इतिहास जगमगाता है. उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्में के. आसिफ ने भले ही सिर्फ आठवीं तक की पढ़ाई की हो, लेकिन उनकी बनाई फिल्म मुगल-ए-आजम आज सिनेमा के छात्रों के पाठ्यक्रम का जरूरी हिस्सा बन चुकी है. बताया जाता है कि कॉन्फ़िडेंस के धनी के. आसिफ 16 साल के अपने जुनूनी सफर को तय करते हुए इस फिल्म को थियेटर के पर्दे तक पहुंचाने में सफल हुए थे.

हिन्दी सिनेमा का एक ऐसा निर्देशक जिसकी जिद के आगे अच्छे अच्छों ने घुटने टेके थे, वह के. आसिफ ही थे. उन्होंने अपने कैरियर में भले ही दो फिल्में बनाई, पर उनमें से एक मुगल-ए-आजम को बनाने में लगी कीमत (1.5 करोड़) उन दिनों बन रही सामान्यतया फिल्मों के बजट (5 से 10 लाख ) से कहीं ज्यादा थी. ऐसे में अनुमान लगा सकते हैं कि निर्माता और निर्देशक का तालमेल किस कदर रहा होगा. पहले फिल्म की शूटिंग 1946 में बॉम्बे टाकीज़ स्टूडिओ में अभिनेत्री नरगिस, चन्द्र बाबू, डी. के. सप्रू के साथ शुरू हुई थी. लेकिन भारत पाक विभाजन में जहां कई बदलाव अन्य क्षेत्रों में देखे गए, वहीं इस विभाजन का असर के. आसिफ के इस गोल्डेन प्रोजेक्ट पर भी हुआ. फिल्म के पहले प्रोड्यूसर को इस विभाजन के बाद पाकिस्तान जाना पड़ा, पैसों के अभाव में इस फिल्म का काम रुक गया. बाद में 1952 में के. आसिफ ने शपूरजी पलौंजी मिस्त्री के साथ मिल कर इस फिल्म का काम दोबारा शुरू किया.

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हालांकि पलौंजी को सिनेमा माध्यम से एकदम लगाव नहीं था. लेकिन बाद में आसिफ की पहली फिल्म फूल में काम कर चुके पृथ्वीराज कपूर के कहने पर शपूरजी फिल्म के फाइनेंसर बने. 1952 में जब फिल्म दोबारा शुरू हुई तो के.आसिफ अभिनेता चन्द्र बाबू की जगह उस दौर के मशहूर अभिनेता चंद्रमोहन को लेने के मूड थे. लेकिन चन्द्र मोहन ने इसमें काम करने से मना किया तो के आसिफ फिर जिद पर अड़े रहे कि फिल्म का प्रोडक्शन भले ही और चार पांच साल रुक जाये, लेकिन यह फिल्म बनेगी तो चंद्रमोहन के साथ ही. हालांकि एक हादसे में चन्द्र मोहन की आंख चली गयी जिसके बाद फिर फिल्म की स्टार कास्ट का चयन दोबारा से किया गया. बाद में यह फिल्म पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार और मधुबाला के साथ आधी ब्लैक एंड व्हाइट और आधी रंगीन होकर प्रदर्शित हुई.

बदलते दौर में हमारा सिनेमा जहां हर तरह से बदल रहा था, उसका एक नायाब उदाहरण यह फिल्म पेश करती है. 1946 से लेकर 1960 तक के दशक में फिल्म प्रौद्योगिकी में मूलभूत अंतर आते रहे जिसे के. आसिफ ने वक्त रहते भांप लिया और उसका उपयोग अपनी इसी फिल्म में कर लिया. बीते सालों से जो फिल्म स्वेत-श्याम बन रही थी अब उसे आसिफ ने टेक्निकलर कर दिया. हालांकि के. आसिफ की चलती तो वे इसे पूरी रंगीन फॉर्मेट में प्रदर्शित कर देते. फिल्म से जुड़ी खबरों को देखने पर पता चलता है कि के. आसिफ अपनी इस फिल्म की एक एक बारीकी का ध्यान रख रहे थे.

के आसिफ, मुगल-ए-आजम- बॉलीवुड, फिल्म    हर निर्देशक का ये सपना होता है कि वो अपने जीवन में एक बार मुगल-ए-आज़म जैसी फिल्म बनाए

ऐसा करते हुए उन्होने नवाबी शान-ओ शौकत को पर्दे पर चित्रित करने के लिए तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन से इजाजत लेते हुए सेना द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले 2 हजार ऊंट और 4 हजार घोडों का इस्तेमाल किया था. और तो और इस फिल्म में काम करने वाले सैनिक कोई अभिनेता नहीं बल्कि असल के सैनिक थे. आपको जानकर हैरानी होगी कि यह वही फिल्म है जब दिलीप कुमार और मधुबाला का आपसी प्रेम प्रसंग ब्रेक हुआ, तो उसी दौरान के. आसिफ ने दिलीप कुमार की बहन से शादी रचा ली. बताया जाता है कि इससे दिलीप इतना खफा हुए कि अपनी खुद द्वारा अभिनीत फिल्म के प्रीमियर में नहीं गए. उन्होंने यह फिल्म 10 साल बाद देखी थी.

के. आसिफ की इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष उसके गाने थे. फिल्म में लगभग 72 गाने रखे गए थे. प्यार किया तो डरना क्या वाले गाने को ही देखा जाए तो उसमें लगभग 10 लाख का अनुमानित खर्च बताया जाता है. लेकिन इस गाने की सबसे खास बात या यह भी है कि इसी गाने के साथ फिल्म की स्टोरी आगे बढ़ती हुई हमें दिखती है. हिन्दी सिनेमा के बदलते संगीत के दौर को याद करते हुए इस गीत को एक वैचारिक तत्व के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

मौजूदा दौर में जहां फिल्म के गीतों का उसकी कहानी से दूर दूर तक कोई नाता नहीं होता वहां के. आसिफ का 10 लाख का यह गीत मिसाल पेश करता है. नौशाद साहब से लेकर गुलाम अली साहब को मनाने के लिए के आसिफ ने उस दौर में क्या क्या नहीं किया होगा. जबकि उसी दौर में मोहम्मद रफी और लता जैसे गायक 300 से 400 रुपये में गीत गाया करते थे, वहां 25000 रुपये देकर गुलाम साहब को मनाना आसिफ के जुनून को बयां करता है.

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दरअसल आज हम जिस क्लासिक दौर को याद करते हैं, उसकी शुरुआत के आसिफ की ही देन है. फिल्म के सेट से लेकर हर सीन में क्या और क्यों रखना है इसका जवाब सिर्फ और सिर्फ आसिफ को ही मालूम रहता था. उसी का ही नतीजा है कि फिल्म में शीश महल का सेट हो, या फिर फिल्म के लिए छपे स्पेशल टिकट, मोतियों की बारिश वाले सीन में असली मोती का इस्तेमाल हो, या क्लासिक संगीत से सजे गीत, या फिर शूटिंग के दौरान रास्ते पर पड़ने वाले बिजली के सारे खंभों को हटवा देने की जिद, सभी में सिर्फ और सिर्फ के. आसिफ ही नज़र आते हैं.

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कोई एक फिल्म भले ही टीम वर्क पर बनती है, लेकिन के.आसिफ नहीं होते तो हिन्दी सिनेमा की ब्लॉक बॉस्टर मुगल-ए-आजम को कोई दूसरा निर्देशक नहीं बना पाता. फिल्म जब रिलीज हुई तो भारत ही नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्कों पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, से भी फिल्म देखने लोग आते और तीन-तीन दिन तक सिर्फ टिकेट लेने की लाइनों में ही लगे रहते.

के आसिफ की बनाई यह फिल्म पूरे हिन्दी सिनेमा के इतिहास में बनी फिल्मों को एक तरफ और खुद एक तरफ रखने को तैयार खड़ी रहती है. नमन है ऐसे कालजयी निर्देशक को जिसने हमें एक ऐसा अनमोल उपहार दिया जिसे हम चाह कर भी खो नहीं सकते.

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लेखक

मनीष जैसल मनीष जैसल @jaisal123

लेखक सिनेमा और फिल्म मेकिंग में पीएचडी कर रहे हैं, और समसामयिक मुद्दों के अलावा सिनेमा पर लिखते हैं.

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