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Updated: 08 मार्च, 2017 11:40 AM
कुदरत सहगल
कुदरत सहगल
  @kudrat.sehgal
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एक रात, मैं बिना डर के बैंगलोर, गोवा या ला ला लैंड की सड़कों पर चलूंगी.

एक रात, मैं बिना घूरने वाली नज़रों के डर के बाहर घूम सकूंगी.

एक रात, मैं बिना सवालों के डर के सलवार कमीज, साड़ी या जींस पहन कर निकल सकूंगी.

एक रात, मेरे स्कर्ट की साइज से मेरे पैरों को घूरने वाली सारी आंखें अंधी हो जाएंगी.

एक रात, मैं बार, नाइट क्लब या सत्संग में दिल से नाचूंगी.

एक रात, मैं वाइन का ग्लास पकडूं तो लोग मुझ जज ना करें, जब नशे में मेरी हां का मतलब ना ही होगा.

एक रात, मैं अपने प्रेमी का हाथ थामें घूम रही होउंगी और लोग मुझे वेश्या नहीं कहेंगे. कोई संस्कृति का ठेकेदार सड़क पर मेरी शादी नहीं करा देगा.

एक रात, मैं खुलेआम अपने मन की बात बोलने के बाद भी फ्री रहूंगी. मैं फेमिनिस्ट होते हुए भी फेमिनाज़ी नहीं कहलाउंगी.

एक रात, मैं ट्वीट करुंगी और मुझे ट्रोल नहीं किया जाएगा.

एक रात, मैं भारत-पाक युद्द के खिलाफ बोलूंगी और फिर भी मुझे देशभक्त कहा जाएगा. मैं खुद में गुरमेहर को देखती हूं.

एक रात, मेरी ना का मतलब ना ही होगा.

एक रात, मुझे रेप का डर नहीं होगा, मेराइटल रेप भी नहीं.

एक रात, मैं उन हाथों को मरोड़ दूंगी जो तुमने मुझ पर उठाया था. मेरे आंसूओं के साथ मैं नहीं सोउंगी.

एक रात, मैं अपने शरीर से प्यार करुंगी, उसका जश्न मनाउंगी. ना मोटे होने की शर्मिंदगी होगी, ना पतले होने की चिंता, ना वेश्या कहे जाने का दुख या और किसी तरह की शर्मिंदगी.

एक रात, मैं काम से घर देर से वापस आउंगी, नौकरी में नए कीर्तिमान गढ़ुंगी और कोई मुझे पैसे का भूखा या पैसे के पीछे भागने वाली नहीं कहेगा.

एक रात, मैं फ्री होउंगी. एक रात, मैं सुरक्षित रहूंगी और वो रात वूमेन नाइट होगी. उस रात का जश्न मनाया जाएगा.

तब तक, मैं वूमेन्स डे (Women's Day) का कोई जश्न नहीं मनाने वाली. यही समय है जब महिलाएं को अपने विकल्पों और अपनी स्वतंत्रता का जश्न मनाना सीख लें. बिना घड़ी पर नज़र टिकाए खुद को जीना सीख लें. और इस स्वतंत्रता की शुरुआत रात के अंधेरे के डर को भगाने से किया जाना चाहिए. इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का नाम बदल कर वूमन नाइट करके श्रीगणेश होना चाहिए.

साल दर साल हम वूमन्स डे मनाते आ रहे हैं. वूमन्स डे और कुछ नहीं बल्कि महिलाओं के दमन और अपने अधिकारों के लिए बिना किसी परिणाम पर पहुंचने वाली उनकी लड़ाई, जन्म के साथ ही शुरु हुई और अंतिम सांस तक झेलने वाले भेदभाव, सांस लेने पर भी पाबंदी वाले नियम और कायदे, घर से लेकर बाहर तक खुद की पहचान बचाने और बनाने की लड़ाई का एक सिम्बल है.

girl_650_030317082609.jpgआजादी इनकी भी होनी चाहिएहम लड़कियों में पैदा होते ही इस रात का खौफ और उससे जुड़ा कलंक दिमाग में भर दिया जाता है. और इसी रात के डर को खत्म करके ही दुनिया की हर औरत आज़ाद होगी. इस खौफनाक सच से आंखें फेर लेने से समस्या का हल नहीं होगा. निर्भया और उसकी तरह की कई लड़कियों के लिए चाहे जितने भी कैंडल मार्च निकाल लो कुछ बदलने वाला नहीं है. उस रात निर्भया भी उतनी ही डरी हुई होगी जितना कि हर रात आप और मैं घर से बाहर निकलते समय डरते हैं.

इसलिए निर्भया, आपके और मेरे जैसी लड़की के लिए जब तक अपराधियों को सज़ा नहीं दी जाएगी. कुछ नहीं बदलेगा. कानून की देवी जब तक अपने आंखों पर पड़ी पट्टी को नहीं हटाएगी और अपराधियों को जल्द से जल्द सजा नहीं दी जाएगी कुछ नहीं बदलने वाला.

मैं तब तक वूमन डे सेलिब्रेट नहीं करुंगी जब तक की हर औरत दूसरी औरत के लिए खड़े होने का प्रण लेती है. जब तक की हर औरत अपने बेटों को उसके स्कूल, पड़ोस, देश और दुनिया की हर लड़की का सम्मान करने की सीख देकर बड़ा नहीं करती. और इसके लिए हमें कोई पिंक चड्डी कैंपेन की भी जरुरत नहीं है.

ना ही हमें अपनी इन बातों को बहरे कानों तक पहुंचाने के लिए सड़कों को रौंद देने, विरोध प्रदर्शनों में अपना खून-पसीना बहाने, गला फाड़-फाड़कर नारे लगाने, छातियां पीटने, ब्रा और पैंटी जलाने की कोई जरुरत है. और ना ही हमें तनिष्क, लैक्मे, फेयर एंड लवली जैसे प्रचारों की जरुरत है जो हमें बताएं कि महिला होने का मतलब खुबसूरत होना होता है. ना ही हमें किसी रणवीर सिंह की जरूरत है जो ये बताए कि कंडोम के विज्ञापन में पुरुषों को ऑब्जेक्टिफाई किया जा सकता है. सशक्तिकरण का मतलब जानने के लिए मुझे ना तो आपकी जरुरत है ना ही आपके डेफिनेशन की जरुरत है.

अगर आप सोच रहे हैं कि हमें आपसे रिवर्स ऑब्जेक्टिफिकेशन चाहिए या रिवर्स सेक्सिम की जरुरत है तो आप गलत सोच रहे हैं. ना ही हमें किसी गर्लियापे की जरुरत है जो हमें बताए कि पुरुषों को चिढ़ाना मजेदार हो सकता है साथ ही अपराधियों से लड़ने मुझे आत्मरक्षा की टिप्स लेने की भी जरुरत महसूस नहीं होती. हम सिर्फ एक सभ्य समाज चाहते हैं. जहां किसी को दूसरे पर चीखने चिल्लाने की जरुरत ना हो, जहां हर किसी को स्वतंत्रता का अधिकार हो.

हमें ऐसा समाज चाहिए जो इंसानों का बना हो, इंसानों के लिए हो. हमें ऐसा समय चाहिए जब हमें बहादुर नहीं बनना पड़े. ना रात को घर से निकलते वक्त, ना रात को, ना दिन को, ना अकेले में, ना ही भीड़ में. उस दिन मैं भी वूमन डे सेलिब्रेट करुंगी.

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लेखक

कुदरत सहगल कुदरत सहगल @kudrat.sehgal

डिजिटल कंटेंट को लेकर रणनीति बनाती हैं. विचारों से घोर फेमिनिस्ट.

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