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Updated: 20 सितम्बर, 2016 05:36 PM
सुरभि सप्रू
सुरभि सप्रू
  @surbhi-sapru
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आज सुबह-सुबह लगे हाथ अपने एक प्रोफेसर से पूछ ही लिया कि उरी में हुए आतंकी हमले पर ना लिखकर आप जेएनयू छात्र संघ की बातें कर रहे हैं? तो जनाब भड़क गए, कहने लगे आप कश्मीरी पंडित हैं तो क्या आपको हक मिल जाता है किसी से कुछ भी कहने का ? मैंने कहा साहब क्यों नहीं कह सकते, आखिर 'आजादी की अभिव्यक्ति' सिर्फ आपके प्रिय कन्हैया को ही थोड़ी न भेंट में दी गई है?

ले देकर ये भी मैंने उनसे पूछ लिया कि ये बताइए कि ये कन्हैया 28 साल की उम्र में जेएनयू में क्या कर रहा है, फिर मैंने कहा लगता है आप इसे ठीक से पढ़ा नहीं रहे. हमें दिल्ली विश्वविद्यालय में जब आप पढ़ाते थे तो एक प्रश्न का उत्तर न देने पर आप हमें बड़े ताने कसते थे, फिर ये कन्हैया तो 28 साल की उम्र में जेएनयू में पड़ा हुआ है, इसे क्यों नहीं पढ़ाते आप?

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इस वार्ता से एक बात बहुत अच्छे से समझ आती है कि इस विचार का वर्ग आखिर क्यों दलितों पर ही अटका हुआ है. क्या राष्ट्रवाद, दलितों की समस्या को बार-बार फेसबुक पर लिखना है? मैंने फिर इनसे पूछ लिया कि ये बताइए कि आपके दलित दलित चिल्लाने से कितने दलितों की समस्या में बदलाव आया है? या फिर दलित सिर्फ जेएनयू में ही हैं? फिर कुछ नहीं बोले.

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फिर मैंने ये पुछा ये नेता लोग आपके ही घर पर चाय पीने क्यों आते हैं?? त्रासदी तो हमारे साथ भी हुई है हमारे यहां क्यों नही आते?? और आप सब बड़े मजे से इन्हें चाय भी पिलाते हैं, अब ये बताइए कि इन चाय पीने वालों ने कुछ किया या चाय गटक कर चले गए? तो असल में आप खुद ही चाहते हैं कि ये नेता आप सबका इस्तेमाल करें और आपकी नाक भी ऊंची रहे? आखिर चाय पीते हुए मीडिया कवरेज मिल जाती है, दलितों को भी, नेताओं को भी, है न?

प्रोफेसर साहब दिल्ली विश्वविद्यालय के और उनके आगे एक दलित समर्थक (जो सिर्फ फेसबुकिया समर्थक है) वो गुस्सा हो गए और कहने लगे डीयू तो बच्चों का विश्वविद्यालय है. लीजिए अब इन्हें कौन समझाए ‘बच्चे मन के सच्चे होते हैं’ हा हा! और प्रोफेसर साहब तो इस पर खामोश रहे.

आखिर कन्हैया जैसा मर्द दिल्ली विश्वविद्यालय को नसीब कहां होगा. दलितों का भगवान जो ठहरा. कभी-कभी उससे भी पूछने का मन करता है कि जनाब कभी किसी गरीब को रोटी खिलाई है क्या?

उरी में 17 भारतीय सेना के जवान शहीद हुए, लेकिन इनके लिए जेएनयू में क्या हो रहा है वो आवश्यक है, क्योंकि ये इनके एजेंडा को सूट करता है. असल में जातिवाद को बढ़ावा तो ये लोग देते हैं, हम नहीं. जैसे मेरे विचार में खुद को बार बार कवि कहने वाला कवि नहीं होता वैसे ही खुद को दलित कहने वाला न तो दलित है और न ही दलित को कभी समझेगा. इसीलिए इस जातिवाद को बढ़ावा देने से अच्छा है कि हम सब एक होकर इस देश में हो रहे अत्याचारों से खुद को बचाएं.

लेखक

सुरभि सप्रू सुरभि सप्रू @surbhi-sapru

पैरों में नृत्य, आँखों में स्वप्न,हाथों में तमन्ना (कलम),गले में संगीत,मस्तिष्क में शांति, ख़ुशी से भरा मन.. उत्सव सा मेरा जीवन- मेरा परिचय.. :)

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