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Updated: 04 अगस्त, 2017 06:04 PM
दमयंती दत्ता
दमयंती दत्ता
 
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ये 'बालों के रेप' से कम नहीं है. सभी टीवी चैनलों पर गुस्से से तमतमाई महिलाएं. चारपाई पर औंधे मुंह लेटी हुईं. आतंक से भरे कठोर चेहरे. खुली-फटी हुई आंखें. शून्य में देख रही हैं, या कुछ देख ही नहीं पा रही हैं. आंखों से लगातार बहते आंसू किसी को दिखाई नहीं दे रहे. और उनकी चारपाई के नीच गिरे कटे हुए बालों के टुकड़े मानो केले के व्‍यर्थ छिलके.

बालों के काटे जाने का रहस्य पूरे उत्तर भारत को अपने चपेट में ले चुका है. जोधपुर से मेवात, गुड़गांव से मुरैना तक महिलाओं के रहस्यमयी तरीके से बाल काटे जा रहे हैं.

बाल सिर्फ बाल नहीं होते, हमारी इज्जत होते हैं

भले ही ये बात आपके गले से न उतरे लेकिन सच्चाई यही है कि किसी महिला के बाल, सिर्फ बाल नहीं होते. 1714 में एलेक्जेंडर पोप ने 'The Rape of the Lock' लिखी थी. ये कविता दो परिवारों के बीच की लड़ाई के बारे में है. जिसमें एक परिवार का लड़का दूसरे परिवार की एक लड़की के बाल काट देता है. फिर उस लड़की के गुस्से का अंजाम यह होता है कि दोनों परिवार खत्‍म हो जाते हैं.

woman braid, lifeबाल के साथ इज्जत जुड़ी होती है

द्रौपदी के बालों की याद करिए. उसका नतीजा क्या हुआ था वो तो पता ही होगा. जब दुशासन ने चौपड़ के खेल में हार दी गई द्रौपदी को उसकी चोटी पकड़कर खींचा तो कौरवों ने उसे ऐसा करने से मना नहीं किया. उन्होंने ऐसा करके न सिर्फ घर की मर्यादा को भंग किया था, बल्कि बड़ा अधर्म ही किया था. भारत में पारंपरिक तरीके से चोटी रखना नारीत्व की निशानी है. इसे समाज में नारी की भूमिका, उसके कर्तव्यों और पति से मधुर संबंधों की निशानी के तौर पर भी देखा जाता है. द्रौपदी ने उस घटना के बाद 13 साल अपने बाल नहीं बांधे. इशारा यह था कि पांडवों ने द्रौपदी पर से अपना अधिकार खो दिया है. और जब तक द्रौपदी के उस गुस्‍से का कारण ( यानी दुशासन ) खत्‍म नहीं हुआ, तब तक न तो द्रौपदी और न ही दुनिया को चैन मिल सका.

गांवों में तो लड़कियां इसी के साथ बड़ी होती हैं. बालों का ख्याल रखती हैं. बालों को अपनी सुंदरता का पर्याय मानती हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बचपन से संभाले गए अपने इन बालों को खो देने से औरतें सदमे में होंगी ही.

विचित्र, अजीब, विषम

उनके साथ जो कुछ भी हो रहा है वो अजीब है. पिछले एक हफ्ते में कई औरतों ने इस बारे में शिकायतें की हैं कि उनकी चोटियां काटी जा रही हैं. आखिर ये सब कौन कर रहा है. कैसे और क्यों? अधिकतर पीड़ित कहते हैं कि घटना के समय या तो वो बेहोश थीं या फिर नींद में थीं. किसी ने भी अपने अपराधियों को नहीं देखा है. हालांकि कुछ लोगों ने दावा किया है कि बिल्‍ली जैसी कोई भूतहा परछाईं देखी था या फिर वह लाल और पीले रंग के कपड़े पहने हुए था. या फिर वो बुर्का पहने हुए और हाथ में कैंची लिए था.

कुछ ने बेहोश होने के पहले किसी खास किस्म की दुर्गंध को महसूस किया था. अब ये माने या न माने लेकिन सभी पीड़ितों के घर के सारे दरवाजे अंदर से बंद पाए गए थे.

फिर से WhatsApp

झारखंड में भीड़ द्वारा एक इंसान की पीट-पीटकर हत्या करने की घटना याद है? इस घटना में 'बाहरी लोगों' और 'बच्चों को उठाने वाले' के खिलाफ एक भड़काऊ व्हाट्सएप मैसेज हफ्तों पहले से लोगों के बीच फैल रहा था. इसी मैसेज ने गांववालों को एक हत्यारी भीड़ में बदल दिया था.

इस मामले में भी व्हाट्सएप मैसेज फैल रहे हैं. जून से ही काला जादू करने के लिए 'बाहरी लोगों' द्वारा महिलाओं की चोटी काटने के मैसेज लोगों के बीच शेयर किए जा रहे थे. घटना की तस्वीरें चाहें कितनी भी हास्यस्पद क्यों ना लग रही हों, लेकिन इससे लोगों के बीच एक तरह का आतंक घर कर गया है. डरे, सहमे ग्रामीणों ने अब अपने घरों के बाहर 'नींबू-मिर्च' टांगना शुरू कर दिया है. ताकि बुरी आत्माएं उनके घर से दूर रहें. लोग अब अजनबियों से सावधान रहने लगे हैं और रातों को जागकर काट रहे हैं. साथ ही महिलाओं ने अब अपने बालों को बांधना बंद कर दिया है.

woman braid, life

सामूहिक उन्माद?

ये सब विचित्र है लेकिन भारत के लिए कोई असामान्य बात नहीं है. 2001 में चमकदार लाल आंखों वाला एक 'मंकी मैन' रात में दिल्ली की सड़कों पर घूमता था. और लोगों पर हमला करता था. इस मंकी मैन ने भी लोगों के बीच दहशत फैला दी थी. हालांकि फोरेंसिक विशेषज्ञों और मनोचिकित्सकों की एक टीम ने इसे सिर्फ 'भावनात्मक रूप से कमजोर' लोगों की कोरी कल्पना बताया. अधिकांश घावों को लोगों ने ही खुद से बनाया था, साथ ही कई पीड़ितों ने लगातार अपने बयान भी बदले. इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि ये सामूहिक भ्रम का मामला है.

चोटियां काटने वाले मामले में भी मास हिस्टीरिया यानी की सामूहिक भ्रम की स्थिति के सारे लक्षण मौजूद हैं. आखिर सामूहिक रूप से ये भ्रम पैदा कैसे होता है?

डर, चिंता, तनाव, अंधविश्वास और कल्पनाओं में खो जाने की प्रवृति. ये सब मिलकर एक बड़ा मनोवैज्ञानिक विकार पैदा करते हैं. खासतौर पर महिलाओं और बच्चों में. इतिहास गवाह है कि इस तरह के भ्रम हमारे समाज के हर दौर में पाए जाते थे. मध्य युग में जर्मनी और इटली से शुरू हुए एक भ्रम को फॉलो करते हुए फ्रांस के एक कॉन्वेंट की ननों ने बिल्लियों की तरह आवाज निकाली शुरु कर दी थी. 1790 में लंदन मॉन्सटर नाम का एक रहस्यमयी आदमी लंदन में महिलाओं के कपड़ों पर हमला करता था और आतंक फैला रहा था. 1899 में, अमेरिका में लोग अपने होठों पर किसी संदिग्ध कीड़े के काटने के डर से परेशान थे. हालांकि इस तरह का कोई भी कीड़ा कभी पता नहीं चल पाया. 1962 में तंजानिया में लगातार हंसना लोगों के लिए मास हिस्टीरिया में बदल गया था. 2012 में एक अजीब से फ्लू जैसे लक्षण ने श्रीलंका में स्कूली बच्चों को मार दिया था, हालांकि इसके पीछे भी कोई मेडिकल कारण पता नहीं चल पाया.

दुर्भाग्य से जब तर्क और सच्चाई के ऊपर डर हावी हो जाता है तो एक साधारण सी घटना भी लोगों में आतंक फैला सकता है. और जो लोग मास हिस्टीरिया की चपेट में आते हैं वो बड़े पैमाने पर उन्मादी भीड़ का रूप धर लेते हैं. जैसे झारखंड में.

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लेखक

दमयंती दत्ता दमयंती दत्ता

लेखिका इंडिया टुडे मैगजीन की कार्यकारी संपादक हैं.

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