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Updated: 17 मई, 2015 12:51 PM
जितेंद्र कुमार
जितेंद्र कुमार
  @JeetuJourno
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मौत की नाव पर सवार हुए रोहिंग्या शरणार्थियों को बचा लिया गया है. इंडोनेशिया ने करीब 700 रोहिंग्या शरणार्थियों को उनकी छोटी नाव से निकाल बड़े जहाज में शरण दे दी है. हालांकि उन्हें तट पर आने की इजाजत नहीं दी गई है.

कौन हैं रोहिंग्या शरणार्थी

करीब हजार साल पहले म्यांमार आये व्यापारियों के साथ आये मुस्लिम व्यापारियों के वंशजों को रोहिंग्या कहा जाता है. करीब 8 लाख की संख्या में रोहिंग्या म्यांमार में रहते हैं. जबकि म्यांमार की सरकार और निवासी इन्हें अपना नागरिक नहीं मानते हैं. अधिकारिक रूप से अपनी ही धरती पर विदेशी कहलाने वाले रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण अत्याचार का सामना करना पड़ता है. ढेरों रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा से लगे शरणार्थी शिविरों में बुरे हालात में रहने को मजबूर हैं.

क्यों होता है इन पर अत्याचार

अराकान म्यांमार की पश्चिमी सीमा पर है और यह बांग्लादेश की सीमा के पास है. अराकान के राजा अपने को मुगल शासकों की तरह समझते थे. इनके शासनकाल में रोहिंग्या अराकान की सीमा में आये और फले फूले. लेकिन 1785 ई. में म्यांमार के बौद्धों ने अराकान पर कब्जा कर लिया. तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इस क्षेत्र से बाहर निकाल दिया या फिर उनकी हत्या कर दी. इस दौरान अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब ईस्ट इंडिया कंपनी के तहत अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था. हालांकि एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान फिर से अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया था. तब अंग्रेजों के प्रोत्साहन पर रोहिंग्या मूल के मुस्लिम और बंगाली अराकान में बसे. इन प्रवासियों को लेकर वहां पहले से रह रहे बौद्धों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव चला आ रहा है.

द्वितीय विश्वयुद्ध में भी रोहिंग्या लोगों ने अंग्रेजों के लिए जापानियों की जासूसी की. इस बात का पता चलते ही जापानियों और म्यांमार (तब बर्मा) के लोगों ने उन्हें यातनाएं दी और उनका कत्ले आम किया. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, जनरल नेविन के नेतृत्व में 1962 में तख्तापलट हुआ. तब रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, जिसे उस समय की बर्मी सेना ने अलगाववादी और गैर राजनीतिक बताकर रोहिंग्या वर्ग के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की. सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को म्यांमार की नागरिकता देने से मना कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया. तब से स्थिति लगभग ऐसी ही चली आ रही है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी रिपोर्टों में कहा है कि रोहिंग्या विश्व में एक ऐसे अल्पसंख्यक हैं, जिनका सबसे ज्यादा दमन होता रहा है. 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर रोहिंग्या अब कहीं के भी नागरिक नहीं हैं. सरकारी प्रतिबंधों की वजह से इन्हे शिक्षा रोजगार भी हासिल नहीं हो पाता. इसलिए ये केवल इस्लाम की बुनियादी तालीम ही हासिल कर पाते हैं.

कई बार इनका नरसंहार हुआ है, बस्तियों को जलाकर इन्हे खदेड़ दिया गया. कई बार ये बांग्लादेश या थाईलैंड की सीमा में शिविर लगाकर रहने लगते हैं. 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे. म्यांमार एक मात्र ऐसा देश है जहाँ आज भी इंसानो को बंधुआ बनाकर रखा जाता है. और इस पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय लगभग चुप रहता है.

वैश्विक संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल बीच-बीच में रोहिंग्या मुसलमानों पर हुए इन अत्याचारों पर आवाज उठाती हैं, लेकिन म्यांमार की सैनिक सरकार पर कोई असर नहीं होता. नए नागरिकता कानून के बाद से रोहिंग्या स्कूलों या मस्जिदों की मरम्मत नहीं करवाई गई है. इन्हे स्कूल, भवन या मस्जिद बनाने की अनुमति भी नहीं है.

रोहिंग्या की मजबूरियों का पता इस बात से चलता है कि म्यांमार में वर्षों से चल रहे सैनिक शासन की मुखालफत कर लोकतांत्रिक नेता बनी आंग सान सूकी भी रोहिंग्या समुदाय को म्यांमार का नागरिक नहीं मानती है. हालांकि कई बार आंग सान सूकी ने रोहिंग्या लोगों की हालत पर चिंता जताई है. जब प्रशासन ने रोहिंग्या के लिए दो बच्चे से ज्यादा नहीं पैदा करने का नियम बनाया तो इस नियम को उन्होंने मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया. लेकिन यह बात रोहिंग्या मुसलामानों के लिए खास मददगार नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने हाल ही में कहा कि म्यांमार जल्द से जल्द रोहिंग्या मुस्लिमों की नागरिकता की मांग सहित उनकी वैधानिक शिकायतों को दूर करे. रोहिंग्या विस्थापितों की सबसे बड़ी समस्या उनके इस्लामी हमदर्द हैं, जो पाकिस्तान और दूसरे देशों में अपने सुरक्षित ठिकानों पर बैठकर उनपर हुए अत्याचार को 'इस्लाम-विरोधी अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र' की तरह प्रोजेक्ट करते हैं. लेकिन कभी भी जरूरत पड़ने पर मदद के लिए नहीं आते.

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तात्कालिक समस्या

अक्सर इन अत्याचारों और गरीबी से बचने के लिए रोहिंग्या समुदाय के लोग नावों में म्यांमार से बाहर निकलने की सोचते रहते हैं. मानव तस्कर भी हमेशा मौके तलाशते हैं. रोहिंग्या मुसलमानों को मानव तस्कर थाइलैंड लेकर आते हैं. फिर जब तक वे आगे के सफर के लिए पैसे नहीं कमा पाते, उन्हें बंधक बनाकर रखा जाता है. यही तस्कर करीब एक हजार रोहिंग्या मुसलामानों को कई नावों पर ले समुद्र में लेकर गए. सीमित भोजन और पानी के साथ ये कई दिनों तक समुद्र में ही पड़े थे.

थाईलैंड ने उनके शिविरों में कड़ी कार्रवाई शुरु कर दी. इस वजह से तस्कर बीच समुद्र में ही उन्हें छोड़कर चले गए. तब से ये वैसे ही समुद्र में पड़े हुए थे. इनकी हालत इतनी ख़राब है कि उन्हें खुद का पेशाब पीना पड़ रहा था. इंडोनेशिया और थाईलैंड ने उन्हें तटों पर आने की अनुमति नहीं दी है. अभी इंडोनेशिया की नेवी ने बचाव अभियान के तहत उन्हें नावों से निकालकर एक बड़े जहाज में शिफ्ट कर दिया है और उनके लिए खाने की व्यवस्था की है.  

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इनकी हालत पर चुप्पी साधे हुए है. एक गरीब की कोई जाति, मजहब, धर्म नहीं होता. इसका ताज़ा उदाहरण समुद्र में फंसे ये रोहिंग्या मुसलमान हैं.

लेखक

जितेंद्र कुमार जितेंद्र कुमार @jeetujourno

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप (डिजिटल) की वेबसाइट आईचौक.इन में सीनियर सब एडिटर हैं.

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