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Updated: 25 फरवरी, 2016 06:20 PM
शिवानन्द द्विवेदी
शिवानन्द द्विवेदी
  @shiva.sahar
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शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद यह उम्मीद जताई गयी कि यह कानून प्राथमिक स्तर पर देश के गरीब से गरीब बच्चे की शिक्षा को सुनिश्चित करेगा. लेकिन अपने पेचीदा प्रावधानों की वजह से आज यह कानून ही सवालों के घेरे में खड़ा हो गया है. इससे पहले की हम शिक्षा के अधिकार कानून की खामियों पर बात करें, हमें इस बात पर गौर करना होगा कि कोई भी कानून लाने का उद्देश्य क्या होता है? बुनियादी समझ की बात है कि कानून हमेशा अव्यवस्था को समाप्त कर व्यस्थित ढंग से किसी भी प्रणाली को संचालित करने के लिए लाया जाता है. लेकिन अगर वो कानून ही अपनी पेचीदिगियों की वजह से व्यवस्था को जटिल एवं दुरूह बना दे तो फिर उस क़ानून का औचित्य ही क्या है?

भारत के सन्दर्भ में अगर हम प्राथमिक शिक्षा की बात करें तो इसमें कोई शक नहीं कि पिछले दो-ढाई दशकों में सरकारी स्तर पर प्राथमिक शिक्षा की हालत बदहाल हुई है. शिक्षकों का अभाव, व्यवस्था की कमी, गुणवत्ता के प्रति लापरवाही आदि की वजह से अभिभावकों का मोह सरकारी स्कूलों से भंग हुआ है. हालत इतनी बुरी है कि सरकार तमाम प्रलोभन देकर भी छात्रों को सरकारी स्कूलों तक नहीं बुला पा रही है. पिछले दो दशकों में जिस तेजी से सरकारी प्राथमिक स्कूलों की गुणवत्ता में गिरावट हुई छोटे-छोटे गली मुहल्ले में प्राइवेट स्कुल पैदा हो गये. गरीब से गरीब अभिभावक भी अपने बच्चे को इन्हीं प्राइवेट स्कूलों में भेजने लगा. ग्रामीण इलाकों में तो एक अजीब किस्म का चलन भी पैदा हो गया कि सरकारी स्कुल मुफ्त में छात्रवृति, ड्रेस, स्टेशनरी आदि की स्कीम देते हैं तो लोग इन प्रलोभनों को हासिल करने के लिए अपने बच्चों का दाखिला सरकारी स्कूलों में भी करा देते हैं जबकि पढने के लिए रोज किसी प्राइवेट स्कूल में भेजते हैं. चूँकि अभिभावक जानते हैं कि स्कीम्स सरकारी स्कूलों में हैं और शिक्षा की गुणवत्ता प्राइवेट स्कूलों में, लिहाजा जहाँ से जो मिलता है वहां से वो लाभ लेते हैं. स्कीम्स सरकार से और शिक्षा प्राइवेट से! लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून आने के बाद इन प्राइवेट स्कूलों पर खतरा मंडराने लगा है. नए नियामकों में जिन प्रावधानों को रखा गया है उन प्रावधानों के लिहाज से देश के लाखों गली-मुहल्लों के स्कूल अवैध मान लिए जायेंगे. मीडिया में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल हजारों स्कूल बंद हुए हैं. 2001 में यह कानून आने के बाद से ही देश के अलग-अलग राज्यों में प्रत्येक साल सत्रारम्भ के दौरान यह संकट खड़ा होता है और हजारों की संख्या में छोटे-छोटे बजट स्कूलों का भविष्य अधर में नजर आता है.

आइये जानते हैं क्या है समस्या ?

आरटीई कानून के प्रावधान में दो प्रमुख बिन्दु हैं जहाँ छोटे-छोटे स्कूलों को दिक्कत आ रही है. पहला, एक निश्चित क्षेत्रफल में जमीन की अनिवार्यता और दूसरा गली-मोहल्ले के स्कूलों के लिये भी मान्यता की बाध्यता. चूँकि कानून आने से पहले देश के हर राज्य में छोटे-छोटे प्राइवेट स्कुल गली-मुहल्लों की बिल्डिंग्स में खुल गये थे. तब न तो मान्यता की जरुरत थी और न ही तय क्षेत्रफल की बाध्यता थी. अब सरकार नए नियामकों के तहत पुराने स्कूलों पर भी नए नियम थोप रही है. आरटीई के अंतर्गत प्राथमिक स्कूलों के लिए 800 वर्ग मीटर और मिडिल के लिए 1000 वर्ग मीटर जमीन होना अनिवार्य रखा गया है. अब बड़ा सवाल है कि जिन इलाकों की बसावट में कभी ऐसे छोटे-छोटे स्कूलों के हिसाब से निर्माण ही नहीं हुआ है, वहां इन नियमों का पालन भला पहले से संचालित स्कूल कैसे कर लेंगे? दुसरी बात यह भी है कि गली-मोहल्लों में चलने वाले इन स्कूलों की फीस पचास रूपये से पांच सौ तक होती है और एक कक्षा में अधिकतम तीस से जायद बच्चे पढाने का प्रावधान नहीं है तो भला ये छोटे स्कूल नई जगह पर अपना स्कूल कैसे खोल सकते हैं? न तो इनके पास इतनी आय है और न ही इतना बजट, जिससे कि ये स्कूल आरटीई के तय मानकों को पूरा कर सकें. रही बात मान्यता की तो पहले सातवीं तक के स्कूलों के लिए मान्यता अनिवार्य नहीं थी, लेकिन अब नये नियम के हिसाब से मान्यता अनिवार्य है. सवाल है कि अगर आरटीई के मानकों के आधार पर कोई स्कुल खोलेगा तो उसे शुरू में ही बड़ा इन्फ्रा निवेश करना होगा, तो क्या वो कम फीस में शिक्षा दे पायेगा? अगर नहीं दे पायेगा तो वे बच्चे कहाँ जायेंगे जिनके अभिभावक सौ रूपये से पांच सौ तक ही अपने बच्चे पर खर्च कर सकते हैं? स्कुल च्वाइस से सम्बंधित रीसर्च पर काम कर रहे सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के एसोसिएट डायरेक्टर अमित चंद्रा कहते हैं, 'कहीं न कहीं सरकार आरटीई के जरिये शिक्षा को छोटे-छोटे लोगों के हाथ से लेकर बड़े-बड़े पूजीपतियों के हाथों में देना चाहती है. क्योंकि गुणवत्ता की बजाय इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि पर ज्यादा तरजीह देना यह साबित करता है कि सरकार का ध्यान शिक्षा की गुणवत्ता पर कम और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ज्यादा है. स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य ने इस मामले में दिशा दिखाई है. वहां नियम लागू होने से पहले के स्कूलों को इस नियम में राहत दी गई है. उसके बाद वे देखते हैं कि क्या पुराने स्कूल का प्रदर्शन बेहतर है और इस आधार पर उन्हें छूट दी जाती है.'

आरटीई खुद पर लागू नहीं करती सरकार ?

गली-मुहल्लों में चल रहे प्राइवेट स्कूल्स को आरटीई के नियामकों को पूरा करने का दबाव डाल रही सरकारों द्वारा अपने प्राथमिक विद्यालयों में वही  नियामक क्यों नहीं लागू किया जाता है? नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल एलायंस द्वारा जंतर-मंतर पर आयोजित धरना प्रदर्शन में उत्तर प्रदेश से आये मान्यता प्राप्त शिक्षा संघ के प्रदेश प्रभारी राहुल भारती बताते हैं, 'आरटीई में जो मान्यता लेने का दबाव सरकार की तरफ से पुराने स्कूलों को दिया जा रहा है उससे लाखों की संख्या में वो बच्चे सड़क पर आ जायेंगे जिनकी शिक्षा इन स्कूलों पर निर्भर है. वहीं उत्तर प्रदेश वित्तविहीन विद्द्यालय संघ की तरफ से जन्तर-मंतर पर आये ब्रजेश यादव कहते हैं, 'सरकार अपने प्राथमिक स्कूलों के लिए तो आरटीई के मानदंडों पर बिल्डिंग और इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं बनाती लेकिन बाकी जो प्राइवेट स्कुल चल रहे हैं उनपर हर साल डंडा लिए रहती है. 2011 में भी सरकार ने इन विद्यालयों को बंद करने का नोटिस दिया था, तब भी हम सडक पर उतरे. 2013, 14, 15 में भी यही रहा. सरकार को स्थायी समाधान देने की जरुरत है. आखिर लाखों बच्चे कहाँ जायेंगे? उनकी क्षमता बड़े स्कूलों में पढने की नहीं है और छोटे स्कूलों का बजट आरटीई के मानकों को पूरा करने का नहीं है'

जन्तर-मंतर पर महाराष्ट्र से आये भरत मलिक कहते हैं, 'छोटे-छोटे यानी बजट स्कूलों में जब आरटीई के मानकों को शत-प्रतिशत लागू करने का दबाव आएगा तो या तो ये स्कूल बंद हो जायेंगे या फिर गलत काम करेंगे. भ्रष्टाचार का सहारा लेंगे. महाराष्ट्र में सरकार काफी हदतक इस स्थिति को समझ रही है लेकिन इसका स्थायी समाधान कानून में संशोधन से ही सम्भव है.

पचास हजार से ज्यादा स्कूलों पर खतरा

एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर आरटीई के नियमों में ढील नहीं दी गयी या पुराने स्कूलों से यह नियम हटाया नहीं गया तो लगभग लाखों की संख्या में बच्चे शिक्षा से महरूम होंगे. कानून से स्कूल तो बंद किया जा सकता है लेकिन बच्चों की शिक्षा को सुनिश्चित कैसे किया जाएगा इसको लेकर किसी के पास कोई योजना नहीं है. सरकारी स्कूलों के फेल्योर होने के बाद ही प्राइवेट स्कूल आये हैं, अगर इनको आरटीई के वर्तमान नियामकों में बाँधा गया तो प्राइवेट स्कूल भी चंद बड़े पूजीपतियों के हाथ का खिलौना बनकर रह जायेंगे. अगर हम शिक्षा को चंद पूजीपतियों के हाथ में नहीं देना चाहते और हर आम-खास के लिए शिक्षा का अवसर उपलब्ध कराना चाहते हैं तो इन बजट स्कूलों को बचाना होगा वरना लाखों बच्चों का भविष्य अधर में होगा.

लेखक

शिवानन्द द्विवेदी शिवानन्द द्विवेदी @shiva.sahar

लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं.

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