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Updated: 13 अक्टूबर, 2017 10:02 PM
दक्षा चोपड़ा
दक्षा चोपड़ा
  @daksha.chopra
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शारीरिक शोषण, यौन शोषण, शारीरिक उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न इन सभी में ना केवल अंतर है. बल्कि इनके अनेकों स्तर भी हैं. जिसे समझकर ही आप आज की स्थिति को समझ सकते हैं. एक सर्वे रिपोर्ट में ये कहा गया है कि भारत में 'हर दूसरा बच्चा शोषित है' सच मानिए तो अगर यूं भी कहा जाता कि हर 1 लाख में एक बच्चा शोषित है, तब भी स्थिति को उतनी ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए. लेकिन किसी भी सर्वे के केवल परिणामों के कुछ अंश भर देख लेने से आप सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते.यही तरीका भ्रमित होने का मूल कारण है. कारण इसके इतर भी हैं पर इस तरीके से भ्रमित होना निश्चित है.

सर्वे, आंकड़ें, डेटा  आज हमें जितने भी सर्वे कराए जाते हैं जरूरी नहीं की वो सही होंतो सही तरीका क्या है?

यदि कोई शोध या सर्वे किया गया है तो ज़ाहिर सी बात है कि इसका एक उद्द्येश निधारित किया गया होगा.सबसे पहले उसे समझें. फिर ये जानें कि कथित सर्वे किस डेमोग्राफी पर आधारित है. ये सबसे महत्वपूर्ण बात है. यहां डेमोग्राफी से मतलब है कि ये सर्वे कहाँ किया गया है? किन लोगों पर किया गया है? वो सभी किस आयु वर्ग का हिस्सा हैं? वो किस परिसर / परिवेश से आते हैं? उनका शैक्षणिक स्तर क्या है? उनमें से कितने पुरुष हैं और कितनी महिलाएँ हैं? उनकी आर्थिक स्थिति / क्षमता क्या है? उनका प्रोफेशन क्या है? इत्यादि. यहाँ ये जानना भी ज़रूरी है कि सर्वे किस समय (वर्ष) किया गया है.

ये सब जानने से आप एक आधार बना सकते हैं कि अमुक समय में, अमुक वर्ग के लोग हैं और उनकी सोच की दिशा ऐसी है. एक छोटा-सा सैंपल पूरी जनसंख्या की असल सोच को नहीं बता सकता, ना ही ये मुमकिन है कि पूरी जनसंख्या को सर्वे में मिलाया जा सके. पर हम इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि जनसंख्या का एक हिस्सा है जो अपनी एक डिस्टिंक सोच रखता है.

वैसे यहाँ एक सच्चाई ये भी है कि ये सैंपल पॉपुलेशन बनायी और खरीदी भी जा सकती है. कुछ लोगों के लिए ये एक कमायी का जरिया भी है. और ये भी एक सच है कि आपकी जानकारी के बिना आपकी डिटेल्स को, जो अनजाने में आप एप्प डाउनलोडिंग, ईमेल आईडी बनाते हुए या इन्टरनेट सर्फिंग के जरिये बिना पढ़े, उनकी टर्म्स एंड कंडीशंस को 'एक्सेप्ट' कर देते है या फिर सोशल मीडिया के ज़रिये जग ज़ाहिर करते हैं. उन डिटेल्स का एक डाटाबेस बनता है जिसे भी रिसर्च और सर्वे में 'इस्तेमाल' किया जाता है.

सर्वे, आंकड़ें, डेटा  हर सर्वे से पहले उसका उद्देश्य पता होना चाहिए

कोई भी सर्वे एक या दो प्रश्नों को लेकर नहीं बनाया जाता, इसमें एक क्रमबद्ध प्रश्नों की सूची होती है जो एक-दूसरे से गहरे जुड़े होते हैं. इसलिए किसी भी सर्वे के, किसी एक प्रश्न और उसके परिणाम को देखना सही नहीं होता. और उस पर राय बना लेना तो और भी गलत है.

हर सर्वे, डाटा या इनफार्मेशन इक्कट्ठा करने का एक ज़रिया होता है जिसका आज के दौर में अनालिसिस (विश्लेषण) मशीन ही करती है लेकिन एक मानवीय दिमाग ही सही सिंथेसिस (संश्लेषण) करने में सक्षम होता है. पर बात यहाँ ये आती है कि क्या सही में ऐसा होता है? क्या कोई मैनीपुलेशन (जोड़-तोड़) तो नहीं होता? इस बात की पूरी संभावना है कि निजी फायदे के लिए कोई कंपनी या देश इसका अपने तरीके से सिंथेसिस (संश्लेषण) करे. और इसीलिए सबसे ज्यादा ज़रूरी है ये देखना कि अमुक सर्वे किसके द्वारा किया गया है.

कई बार ऑथेंटिक समझी जाने वाली संस्थाएँ भी गलती कर बैठती हैं. पर ये तभी होता है जब सरकारी हस्तक्षेप हो, जब कोई चीज़ खरीदने से पहले आप उस पर अच्छे से शोध करके, अपने विवेक से ही फैसला लेते हैं तो इस मामले में कोताही न बरतें. अपनी आँखें और दिमाग खुला रखें और फिर किसी नतीजे पर पहुंचें.

अब आते हैं इस गम्भीर समस्या की ओर. तो ये बात समझनी बहुत ज़रूरी है कि हर बच्चा अलग होता है. कुछ बच्चों के लिए गलती से छू भर लेना भी उन्हें जिंदगी भर के लिए डरा सकता है. और कुछ ऐसे होते हैं जिनके साथ बहुत ही बुरा सलूक हुआ हो फिर भी वे अपने डर को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते हैं. बात यहां मानसिकता है. केवल पीड़ित की ही नहीं बल्कि उस इंसान की भी जो गलत काम करते हैं. गलत काम करने वाले उनके कुकर्म के बाद ही पहचाना जा सकता है. तो बचते हैं केवल बच्चे जिन्हें समझाया जा सकता है. हमें बच्चों को गुड टच - बैड टच सीखा कर डराना नहीं है उल्टा इस बारे में उन्हें बताकर (अवगत कर) उन्हें सावधान करना है.

सर्वे, आंकड़ें, डेटा  जरूरी नहीं हर बार जो सर्वे हम कर रहे हों वो सही हो

उन्हें ये विवेक देना है कि हर कोई बुरा नहीं होता लेकिन सावधानी हमेशा बरतनी चाहिए. जिस तरह हम सड़क पर चलते हुए सावधान और सतर्क रहते हैं कुछ उसी तरह से बुरी सोच वालों से सावधान और सतर्क रहना है. बच्चों से उन्हीं के स्तर पर जाकर बात करनी चाहिए.बात ना करना ज़्यादा घातक है.बच्चे स्वभाव से ही बड़ों से ज़्यादा जिज्ञासु होते हैं. उन्हें हर नयी बात सीखनी होती है, परखनी होती है. और बेहतर यही होगा कि ये काम परिवार वालों या विश्वसनीय लोगों की उपस्थिति में, सही सोर्सेस द्वारा हो.

सिर्फ यही नहीं, बच्चों से जब भी इन विषयों पर बात हो तो उनके सभी सवालों का उत्तर सही शब्दों के प्रयोग के साथ दिया जाना चाहिए. आप नहीं बतायेंगे तो वे कहीं और से उत्तर ढूँढेंगे जो सही होगा या नहीं किसे पता. ऐसा सब तभी हो सकता है जब बड़े खुद क्लियर हों. यदि उन्हें कोई झिझक या संदेह है या किसी बात की पूरी जानकारी ना हो तो वो पहले खुद को शिक्षित करें और फिर बच्चों को.

केवल इन मुद्दों पर ही नहीं हर मुद्दे पर बड़ों को क्लैरिटी के साथ-साथ एक बहुत ही ज़रूरी बात का ख़याल रखना चाहिए. 'प्रैक्टिस वॉट यू प्रीच'. मतलब जो सिखायें उसका खुद भी पालन करें. यदि संयम, सदाचार और विवेक से काम लेना आपको बच्चों को सिखाना है तो खुद इसका पालन करते हुए एक सही उदाहरण बनिए फिर उन्हें सिखाईये. असल में कथनी और करनी में अंतर आने से ही बच्चों में हताशा और कुंठा पैदा होती है. ये गलती पिछली पीढ़ियों से जाने-अनजाने हो गयी है जिसका असर हम आज-कल की 25-40 के आयु वर्ग की जनसंख्या में देख सकते हैं. वो डिप्रेस्ड नहीं हैं हताश हैं. आगे की पीढ़ी ऐसी ना हो इसका ख़याल रखना जरूरी है.

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लेखक

दक्षा चोपड़ा दक्षा चोपड़ा @daksha.chopra

लेखिका डिजाइन रिसर्चर हैं, जिन्हें कला, साहित्य और आध्यात्म में गहन रुचि है.

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