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Updated: 23 अक्टूबर, 2017 07:46 PM
शलभ मणि त्रिपाठी
शलभ मणि त्रिपाठी
  @shalabh.tripathi
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बीते रविवार की शाम जब हम और आप दीपावली के बाद की थकान मिटा रहे थे, तब यूपी के मुजफ्फरनगर में पुलिस एक अहम ऑपरेशन में जूझ रही थी. ये कुख्यात इनामी फुरकान की घेराबंदी का ऑपरेशन था. बकौल पुलिस, चारों तरफ से घिरे बदमाश ने पुलिस पर गोलियां दागीं. जवाब में पुलिस ने भी गोली चलाई. फुरकान मौके पर ही मारा गया. इस एनकाउंटर में पुलिस के जवान भी जख्मी हुए. मारे गए बदमाश का काफी खौफ था और उसके मारे जाने से आम लोग खुश हैं.

कहा ये भी जाता है कि इस बदमाश को पुलिस पहले ही ठिकाने लगाना चाहती थी. लेकिन सियासी सरपरस्ती के चलते ये मुमकिन ना हुआ. वैसे ये पहला मौका नहीं है. पिछले छह महीनों में उत्तर प्रदेश ने बहुत कुछ बदलते देखा है. सत्ता बदली. सरकार बदली. मुख्यमंत्री बदले और माहौल भी बदला. पर जो एक चीज सबसे तेजी से बदली है, वह है यूपी पुलिस का काम करने का अंदाज. अखिलेश राज में कभी प्रतापगढ के कुंडा, तो कभी मथुरा के जवाहर बाग में गुंडों और अपराधियों के हाथों अपने जाबांज अफसरों को गंवाने वाली यूपी पुलिस, अब गोली खाने की बजाए गोली चलाने लगी है. और पुलिस के इस बदले हुए तेवर से अपराधी भी बेल यानी जमानत की जगह जेल मांगने लगे हैं.

आंकड़ों की बात करें तो योगी सरकार बनने के बाद महज छह महीनों में उत्तर प्रदेश में 23 खूंखार अपराधी मार गिराए जा चुके हैं. वहीं 130 से ज्यादा अपराधी गोली लगने के बाद से अस्पताल और जेल के बीच जिंदगी काट रहे हैं. ये आंकड़े यूपी पुलिस के बढ़े हुए मनोबल का सबसे बड़ा सबूत हैं. उस यूपी पुलिस के जिसका मनोबल पिछले कुछ सालों में टूट सा गया था. और इसके नतीजे सबसे ज्यादा यहां की आवाम को भुगतने पड़े थे.

UP police, encounterपुलिस की कारतूस फिर से निशाने पर लगने लगी है

अभी हाल ही में मुजफ्फरनगर की एक तस्वीर भी सोशल मीडिया से लेकर टीवी मीडिया में खासी चर्चा में रही. ये तस्वीर थी मुजफ्फरनगर के एसएसपी अनंतदेव की. पचास हजार के इनामी बदमाश के साथ घंटों चली मुठभेड़ में जब पुलिस ने बदमाश को मार गिराया तो इलाके के लोग खुशी से झूम उठे. स्थानीय लोगों ने मुठभेड़ स्थल से ही पुलिस कप्तान को कंधे पर उठा लिया और उनको कंधे पर ही लादकर उनकी गाड़ी तक ले आए.

कुछ ऐसा ही नजारा शामली में भी तब देखने को मिला जब वहां के पुलिस कप्तान अजयपाल ने दो खूंखार बदमाशों को एक साहसिक मुठभेड़ में मारा गिराया. संयोग की बात है कि जब ये मुठभेड़ हुई तब देश में रक्षाबंधन मनाया जा रहा था. दोनों खूंखार बदमाशों के मारे जाने के बाद इलाके की महिलाओं और बच्चियों ने पुलिस कप्तान को सामूहिक राखियां बांधी, उनका अभिनंदन किया. ऐसा नहीं है कि यूपी पुलिस को ये सम्मान पहली बार मिल रहा है, पर बीते कुछ सालों से ऐसी तस्वीरों पर धुंध सी छा गई थी.

एक वक्त था जब यूपी पुलिस का इकबाल पूरे देश में बोलता था. राजधानी लखनऊ रही हो या प्रदेश के अन्य हिस्से. यूपी पुलिस के तमाम पुलिसवालों को आम जनता ने एनकाउंटर गुरू से लेकर टाइगर तक की उपाधि से नवाजा है. खास बात है कि ऐसे जाबांजों में सिपाही से लेकर आईपीएस अफसर तक शामिल रहे हैं. अब डीजी रैंक के अफसर बन चुके यूपी पुलिस के एक आईपीएस तो इस बात के लिए चर्चित थे कि वो हत्यारों और बदमाशों को उसी जगह पर ले जाकर पिटवाते थे जहां उन्होंने अपराध अंजाम दिया होता था. इससे अपराधी का सामाजिक मानमर्दन होता था, उसका मनोबल टूटता था और पुलिस के हौसले बुलंद होते थे.

इसी तरह यूपी पुलिस के ही एक जाबांज दारोगा का इस कदर खौफ रहा है कि उनके तैनात होते ही बदमाश खुद अपनी जमानत तुड़वाकर जेल की शरण ले लेते थे. पर इस जुगाड़ के बाद भी कुख्यात बदमाश बच नहीं पाए. वो जेल से कचहरी तक आते हुए मारे गए. हथकड़ी तोड़ कर भागने के आरोप में. हालांकि तब पुलिस पर ऐसे आरोप भी लगे कि पुलिस ने झूठी कहानी गढ़ कर बदमाशों को मार गिराया है. पर जांच में ये आरोप साबित नहीं हुए. सच जो भी रहा हो, पर एक बात तो साफ थी कि इन बदमाशों के मारे जाने से जनता ने हमेशा ही चैन की सांस ली.

यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह और बृजलाल जैसे अफसरों के एनकाउंटर की कहानियां फिल्मी कहानियों से भी ज्यादा दिलचस्प हैं. किसे याद नहीं होगा कि तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह की अगुवाई में लखनऊ पुलिस ने जेल से भागने की कोशिश कर रहे अफगानी कैदी नूरा को बीच चौराहे पर मार गिराया था. इसी तरह चित्रकूट के घने जंगलों में कुख्यात डकैत घनश्याम केवट से लगातार 52 घंटे तक चली मुठभेड़ के दौरान पुलिसकर्मियों के हताहत होने के बाद खुद बृजलाल ने कमान संभाल ली थी. यूपी पुलिस के इतिहास में ये शायद पहला मौका था जब खुद डीजीपी ने किसी आपरेशन में गोलियां चलाते हुए डकैत को मार गिराया था. 

देश के तमाम राज्यों से अलग, यूपी में हमेशा से ऐसी धारणा रही है कि यूपी पुलिस पर गोली चलाने का मतलब है- डेथ वारंट पर दस्तखत करना. पर बीते कुछ सालों में ये सिलसिला थम सा गया था. सपा शासन के बीते पांच साल की बात करें तो कई पुलिसकर्मी बदमाशों के हाथों मारे गए. लेकिन दो या तीन घटनाओं को छोड़ किसी में भी पुलिस गोली का जवाब गोली से नहीं दे पाई. इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति के अलावा कानूनी अड़चनें भी एक बड़ी वजह रहीं.

आपरेशन के एक्सपर्ट ज्यादातर पुलिस अधिकारियों का मानना है कि मानवाधिकार आयोग के कानून और मीडिया कई बार ना चाहकर भी कुख्यात बदमाशों के लिए मददगार साबित हो जाती है. इसका बड़ा उदाहरण है इलाहाबाद में कुछ सालों पहले हुई एक मुठभेड़. इस मुठभेड़ में सिपाही की हत्या करने के बाद बम लेकर भाग रहे एक बदमाश को जब लाइव एनकाउंटर में पुलिस के जाबांज अफसरों ने मार गिराया. तब उल्टे पुलिस वालों के खिलाफ लंबी जांच चली और आखिरकार दस साल के लंबे वक्त के बाद पुलिसवालों को इंसाफ मिल सका. इस दौरान पुलिसकर्मियों को तमाम मुश्किलों से गुजरना पड़ा. नतीजा ये हुआ कि यूपी पुलिस ने अपनी बंदूके खामोश कर दीं.

बदमाश जेल जाते रहे, जमानतों पर छूटते रहे और निरीह लोग मारे जाते रहे. जाहिर है, ऐसे में ये सवाल उठना भी लाजमी है कि क्या मानवाधिकार आयोग के कानून अब आम आदमी से ज्यादा कुख्यातों के मददगार होने लगे हैं. तय हम सभी को मिलकर करना है. पर अब जबकि लंबे अंतराल के बाद योगी सरकार में पुलिस तमाम दबावों से मुक्त होकर दुबारा अपने फॉर्म में लौटी है. तब सबसे बड़ी जिम्मेदारी खुद खाकी वर्दी पर है कि वो अपना दामन फेक एनकाउंटर जैसे शब्दों से बचाकर रखे.

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लेखक

शलभ मणि त्रिपाठी शलभ मणि त्रिपाठी @shalabh.tripathi

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिज्ञ हैं

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