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Updated: 11 जुलाई, 2018 11:52 AM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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यूं तो ये देश आजाद है, स्त्री और पुरुष दोनों को बराबरी का दर्जा भी मिला हुआ है. अभिव्यक्ति की संवत्रता भी हर किसी को है. लेकिन इसी देश की राजधानी में एक बस्ती में रहने वाली महिलाएं आज तक गुलाम हैं. वो न अधिकार जानती हैं, न उपलब्धियां, और न ही स्वतंत्रता की परिभाषा. इनके पैदा होते ही इनके भविष्य का फैसला सुना दिया जाता है. और सिखाया जाता है कि घर चलाने के लिए सिर्फ एक चीज ही आनी चाहिए वो है जिस्म बेचना.

नजफगढ़ की प्रेमनगर बस्ती में रहने वाले परना समुदाय के लोगों की रोजीरोटी पीढ़ियों से वेश्यावृत्ति के धंधे से ही चलती आ रही है. यहां पुरुष आराम करते हैं, और महिलाएं काम. 

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कितना अजीब लगता है ये सोचना भी कि माता-पिता खुद अपने घर की लड़कियों को इस धंधे में झोंक देते हैं. यहां लड़कियों को पढ़ाया नहीं जाता क्योंकि वेश्यावृत्ति के लिए उसकी जरूरत नहीं. उनके ख्वाब बचपन में ही रौंद दिए जाते हैं. 12-13 साल की लड़कियों का सौदा करने वाले खुद उनके माता-पिता होते हैं. बेटियों की शादी की कोई चिंता नहीं, क्योंकि शादी करने पर लड़के वाला अच्छे दाम भी देता है. यानि लाख, दो लाख या पांच लाख जितने में भी सौदा पटे, लड़की शादी के नाम पर इसी समुदाय में बेच दी जाती है. शादी के बाद वो लड़की घर भी संभालती हैं, और सबका पालन पोषण भी करती हैं. और अपनी ही बहु के लिए ग्राहक तलाश करते हैं उसके ससुराल वाले. आखिर अब वही तो घर चलाएगी.

घर के सारे काम-धाम निपटाने के बाद रात को करीब 2 बजे ये महिलाएं अपने काम पर निकलती हैं. एक ही रात में करीब 4-5 ग्राहकों को संतुष्ट करने के बाद सुबह तक लौटती हैं. पति और बच्चों के लिए खाना बनाकर अपने हिस्से की नींद पूरी करती हैं. और ऐसा यहां कि हर महिला के साथ होता है. महिलाएं अगर कोई दूसरा काम करना भी चाहें तो ससुराल वाले उन्हें जबरदस्ती इसी पेशे में ढकेलते हैं. कोई महिला नहीं चाहती कि उसकी बेटियां बड़ी होकर इस पेशे को अपनाएं. लेकिन महिला अधिकार के नाम पर ये सिर्फ इतना जानती हैं कि उनके जीवन पर उनके परिवारवालों का ही अधिकार है और उनके साथ क्या होना है या नहीं होना है, इसका फैसला भी वही लोग करेंगे जो उन्हें खरीद कर लाए हैं. 

इन महिलाओं की व्यथा इन्हीं की जुबानी यहां सुन सकते हैं आप-

इसी धंधे में ट्रेनिंग दिलाने के लिए लड़कियों को दलालों के हाथों में सौंप दिया जाता है. ये दलाल इन्हें वेश्यालयों में बैठा देते हैं, जहां बंधुआ मजदूरों की तरह इनसे काम लिया जाता है. उनसे उम्मीद की जाती है कि वो एक रात में कम से कम 10 ग्राहकों को सेवा दें. चंद रुपयों के लिए इन लड़कियों का हर रोज कई कई बार बलात्कार किया जाता है.

ऐसा नहीं है कि ये इस समुदाय का पेशा है तो ये महिलाएं ऐसा जीवन जीने की आदी हो गई हैं. बहुत ही लड़कियों ने इसका विरोध करते हुए अपनी जान तक दे दी है. ये बच्चियां अपनी माओं को जाते देखती हैं, और खुद को डरा महसूस करती हैं कि उन्हें भी एक दिन जाना होगा. ये पढ़ना चाहती हैं, कोई और काम करना चाहती हैं. लेकिन 'बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ' के नारे इन गलियों तक नहीं पहुंच पाते. फिर भी जिस्म बेचकर आती कुछ औरतों की उम्मीदें कायम हैं कि उनकी बेटियों का भविष्य बेहतर होगा.

पर इन उम्मीदों को सच करने वाले लोग, धर्म, देशभक्ति और देशद्रोह की बहस से ही बाहर नहीं निकल पा रहे. लोगों को देश की फ्रिक्र है, देश की इन महिलाओं पर हो रहे द्रोह के बारे में सोच भी लेंगे तो सारे पाप धुल जाएंगे.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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