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Updated: 25 सितम्बर, 2017 04:12 PM
प्रभुनाथ शुक्ल
प्रभुनाथ शुक्ल
 
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मोबाइल और शराब की लत पूरी करने के लिए 11 माह के अपने एक बेटे को तेइस हजार रुपये में बेच दिया. इंसानी रिश्तों को बेजार करने वाली यह घटना ओड़िशा के भद्रक जिले की हैं. हैरानी की बात तो यह भी रही कि बलराममुखी की इस करतूत पर उसकी पत्नी ने भी प्रतिरोध नहीं जताया. मिले तेइस हजार रुपयों में से दो हजार उसने मोबाइल खरीदने पर खर्च किया. वहीं बेटी के लिए सात सौ का पायल खरीदा और बाकि बचे पैसे उसने शराब पर उड़ा दिया. फिलहाल बलराममुखी पुलिस के गिरफ्त में है. हलांकि देश और दुनिया में इस तरह की घटनाएं अब आम हो चली है. इन घटनाओं के मूल में शून्य होती मानवीय संवेदना और आर्थिक विषमता पर अब ध्यान देने का समय आ गया है.

ओडिशा, भारत, बलराममुखीबलराममुखी जरा इन घटनाओं पर नजर डालिए..

  1. साल भर पहले ही चीन की राजधानी पेइचिंग के एक युवक ने अपनी 18 दिन की बेटी को सोशल नेटवर्किंग साइट पर दो लाख से अधिक कीमत में बेच दिया. क्योंकि उसे आईफोन की शौक पूरी करनी थी.
  2. साल 2013, घटना राजस्थान की है, एक पिता ने अपनी बेटी का सौदा कर डाला. इस व्यक्ति को अपना जुर्माना भरना था. जिसके लिए इसके पास पैसे नहीं थे.
  3. मार्च 2016, इंदौर के खरगौन जिले के एक व्यक्ति ने फेसबुक पर एक विज्ञापन अपलोड किया. इस विज्ञापन के जरिए वो अपनी पत्नी को बेचना चाहता था. यह मामला भी कर्ज से जुड़ा था.
  4. पैसों की लालच में दुबई के शेखों के हाथ अपनी लड़कियों को बेच देना हैदराबाद में आम बात हुआ करती थी.

इस तरह की घटनाएं महज चार नहीं बल्की हजारों हैं. रिश्तों को दांव पर लगाने, बाजार में नीलाम कर देने का रिवाज आखिर कहां से आया, इस पर भी गौर करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है. महाभारत काल में भी पांडवों ने खुद को चौसर में पराजित होता देख, अंतिम दांव के रूप में महारानी द्रौपदी को दांव पर लगा दिया था. जिसकी परिणति महाभारत का यु़द्ध रहा. हमारे समाज और इंसानी रिश्तों की न जाने यह कैसी बिडंबना रही है. एक तरफ गुड़गांव के रेयान इंटरनेशल स्कूल में मासूम प्राद्युम्न की हत्या से जहां पूरा देश स्तब्ध है. बेटे को न्याय दिलाने के लिए मां-बाप सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा खट-खटा रहे है. जबकि इसी समाजिक तानेबाने और इंसानी संबंधों का दूसरा पहलू यह भी है कि कर्ज चूकाने और शौक पूरी करने के लिए एक पिता अपने संतान को, पति अपनी पत्नी को कौड़ियों के भाव नीलाम करता आया है. यह हमारी सामाजिक संरचना और मानवीय संवेदना की विकट त्रासदी है. इसे हम डिजिटल क्रांति की अकुलाहट कहे या सिर्फ गिरते सामाजिक मूल्यों की एक घिनौती तस्वीर. खैर यह कोंसने का नहीं सोचने का वक्त है.

हम किसी सरकार, व्यक्ति, व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर के इस समस्या का हल नहीं निकाल सकते हैं. सच तो यह है कि हम जिस आर्थिक, समाजिक विकास एंव समता, समानता की बात करते हैं वह बेहद खोखली है. हम देश को सिर्फ नारों से चलाने के आदि हो गए हैं. हमारी सोच में सिर्फ राजसत्ता दिखती है और राजधर्म हासिए पर है. एक विजय के बाद हम दूसरी की तैयारी में लग जाते हैं, हमने कभी यह गौर करने की जहमत नहीं उठायी कि जनता से जो वायदे किए थे क्या उस पर खरे उतरे हैं? सबको समान विकास के अवसर उपलब्ध कराने की जुमलेबाजी हमें बंद करनी होगी. सोच अच्छी रखना, नीतियां बनाना बुरी बात नहीं है. लेकिन वास्तविक जमींन पर उनकी परिणति कितनी हुई है, इसकी भी समीक्षा जरूरी है. हमें आलोचनाओं की परवाह करने के बजाय संभावनाओं की पड़ताल करनी चाहिए. यह तथ्यगत है कि सत्ता परिवर्तन से व्यवस्था परिवर्तन होना संभव नहीं है.

विकास और सूचना प्रद्यौगिकी की पहुंच अभी तक आम आदमी तक नहीं पहुंच पायी है. लोगों के पास इतने रोजगार के अवसर मुहैया नहीं है कि लोग अपनी आम जरुरतों का शौक आसनी से पूरा कर पाएं. उन्हें बलराममुखी जैसे लोगों की तरह अपने बेटे को बेचना पड़ रहा है. स्वाधीन भारत के इतिहास में गरीबी मिटाने पर खूब रिहर्सल हुआ लेकिन गरीबी आज तक नहीं मिट पायी. आर्थिक विसंगति और सामाजिक विसमता की खाई और चैड़ी होती गयी. सरकारें लोगों के हाथ में काम भले नहीं दे पाए लेकिन दारु की बोतलें पकड़ा, उन्हें जिंदगी तबाह करने और समाज में विकृतिया पैदा करने का अधिकार जरूर दे दिया. अब शराबबंदी और दूसरी चोंचलेबाजी कर पीठ भी थप-थपाया जा रहा है. लेकिन बलराममुखी जैसे लोगों की त्रासदी का क्या होगा? एबुलेंस के अभाव में पत्नी के शव को कंधे पर रखकर 40 किमी का सफर तय करनेवाले व्यक्ति का क्या होगा?

मेरे जेहन में कभी वह दशरथ मांझी भी आया जिसने रास्ते के अभाव में पहाड़ को काट सड़क बना दिया. हलांकि जिस शख्स ने बच्चा खरीदा, वह कानूनी रूप से गुनाहगार जरूर हो सकता है. लेकिन सही माइने में वो इंसानियत का हितैषी है. उसने अपनी पत्नी की जान बचाने के लिए उस बच्चे को खरीदा था. क्योंकि कुछ साल पहले उसका बेटा मर गया था और पत्नी डिप्रेशन का शिकार हो गई थी. हलांकि उसने कानून को हाथ में लिया. जितना गुनाह मासूम बच्चे को बेचने वाले पिता बलराममुखी का है उससे कम खरीदने वाले सोमनाथ भारती का नहीं है. वो चाहता तो किसी बच्चे को गोद भी ले सकता था. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. यह बात और है कि वह मुखी से कहीं अधिक बेहतर ढंग से बच्चे का पालन पोषण करता. लेकिन इस तरह की गैर कानूनी और असंवैधानिक छूट किसी को दी भी नहीं जा सकती है. क्योंकि इससे सामाजिक व्यवस्था बिगड़ने का बड़ा खतरा है. इसके लिए हमारे समाज में गोद लेने का कानून है.

हलांकि इस घटना के बाद कई सवाल भी पैदा हो रहे है कि बलराम मुखी वास्तव अगर मोबाइल का शौकीन था, तो उसने मोबाइल पर सिर्फ दो हजार रुपये ही क्यों खर्च किए. उसके पास और अधिक पैसे थे, वह चाहता तो सारे पैसे अच्छे स्मार्टफोन पर खर्च कर सकता था. ऐसा करने के बजाय उसने शराब पर उड़ा दिये. जाहिर है सेलफोन एक बहाना था, वह शराब का इतना आदी हो चुका था कि आर्थिंग तंगी के अभाव में उसके पास शायद कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था. जिसकी वजह से उसने इस तरह का अमानवीय कदम उठाया. लेकिन इस तरह की घटनाएं हमारी समाजिक व्यवस्था के लिए काला कलंक हैं. सरकार और समाज को इस पर मिलकर काम करना होगा. जिससे सामाजिक विकृतियां पैदा करने वाली ऐसी स्थितियों पर प्रतिबंध लगाया जा सके. इसके लिए सरकार, समाज और दूसरी कड़ियों को एक साथ मिलकर काम करना होगा. हम घटनाओं पर सिर्फ राजनीति कर, सरकारों को कटघरे में खड़ा कर स्थितियां नहीं बदल सकते हैं. इसके लिए खुद को बदलना होगा. तभी देश, बदलेगा, समाज बदलेगा और लोग बदलेंगे.

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