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Updated: 17 नवम्बर, 2015 04:01 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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दिसंबर 2013, डॉक्टर वरुण पटेल ने अपने ब्लॉग में एक झकझोरने वाली बात लिखी कि- 'भारत के सरकारी अस्पताल में एक बच्चे को जन्म देना जेल में दी जाने वाली थर्ड डिग्री प्रताड़ना से कम नहीं है'. गर्भवती महिलाओं को बुरी तरह पीटा जाता है.'

ये बात सुनकर शायद आश्चर्य हो, लेकिन अफसोस की बात ये है अब ये सुनकर आश्चर्य नहीं होता. सरकारी अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं से की जाने वाली बदसलूकी, या हिंसा आज बहुत सामान्य बात है. लेकिन इसके बारे में कोई बात नहीं करता. हाल ही में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में तीन नवजात शिशुओं की मौत हो गई, बेड उपलब्ध होने के बावजूद जमीन पर प्रसव करवाया गया. क्‍योंकि स्‍टाफ नहीं चाहता था कि बेडशीट खराब हो.

ये हाल किसी गांव या दूरदराज के एक अस्पताल का नहीं है, बल्कि आजकल शहरी सरकारी अस्पतालों में भी यही सब हो रहा है. दर्द से करहाती महिलाओं की चीखों का इन कर्मचारियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता. पत्थर दिल नर्सें और उनकी सहायक उन महिलाओं से कहती भी कैसे होंगी कि 'डिलिवरी फर्श पर ही करनी है और अपनी गंदगी खुद साफ करो.'

अस्पतालों में नर्स अक्सर प्रसूता को चिल्लाए जाने पर थप्पड़ मारने की धमकी भी देती हैं. दिल्ली के सरकारी अस्पताल में नर्स ने महिला को धमकाया और डिलिवरी के बाद उसके नवजात बच्चे को एक पॉलीथीन में डालकर दिया. ऐसा व्यवहार अक्सर गांव या गरीब तबके की महिलाओं के साथ होता है क्योंकि वो सहायकों और नर्सों के सामने आवाज नहीं उठातीं, अपने अधिकार नहीं जानतीं, वो चुपचाप ये सब सहती हैं. शहर के लोग भी अक्सर इस व्यवहार को सह जाते हैं क्योंकि उनके लिए बच्चे की सलामती भी उतनी ही जरूरी है, जिसके लिए इन्हीं नर्सों पर ही निर्भर होना पड़ता है.

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                                नर्सों द्वारा अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया जाना सामान्य बात है

कर्मचारियों की लापरवाही और उनके असहनीय व्यवहार को लेकर सरकारी अस्पताल अक्सर चर्चाओं में बने रहते हैं. कहीं प्रसूता की जान जाती है तो कहीं नवजात बच्चों की. कहीं इलाज नहीं मिलता तो कहीं बेड. कहीं कहीं हालात ऐसे भी हैं कि डिलिवरी पेड के नीचे, या अस्पताल के फर्श पर ही होती है. नर्स अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने और लोगों से ईनाम वसूलने के लिए जानी जाती हैं. इतना ही नहीं सरकारी अस्पतालों में हाईजीन और साफ सफाई के नाम पर सिर्फ फिनायल का पोछा लगाना ही पर्याप्त समझा जाता है.

संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने और मां और नवजात की मत्यु दर कम करने के लिए 'जननी सुरक्षा योजना' देश के हर सरकारी अस्पताल में चलाई जाती है. इसमें महिलाओं को संस्थागत प्रसव कराने के लिए एक हजार रुपये की आर्थिक सहायता मिलती है. ये योजना अपने उद्देश्य में सफल भी हुई. लेकिन जैसे-जैसे सरकारी अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं की संख्या बढ़ी, अस्पताल के कर्मचारियों का रवैया भी तेजी से बदलने लगा. स्वास्थ्य कर्मियों के इस रवैये से परेशान अब लोग डिलिवरी के लिए प्राइवेट अस्पतालों का रुख करते हैं. और जो लोग प्राइवेट अस्पताल का खर्च वहन नहीं कर सकते वो घरों में ही डिलिवरी में यकीन करने लगे हैं. सरकारी अस्पतालों में जाने से लोग डरने लगे हैं. सरकारी अस्पतालों में होने वाले प्रसव की दर भी घटने लगी है. गांव के लोगों का कहना है कि 'घर में बच्चा पैदा करना ज्यादा सुरक्षित है, सरकारी अस्पतालों से अच्छा व्यावहार तो हम अपनी गाय भैंसों के साथ करते हैं.'

मानवाधिकार आयोग में 14 राज्यों से ऐसे 150 मामले दर्ज कराए गए, जिसमें प्रजनन अधिकारों का उल्लंघन किया गया था. इसमें न्याय भी मिला लेकिन इससे ये बिलकुल साबित नहीं होता कि अस्पतालों में नर्स ओर सहायकों का ये व्यवहार सहन करने योग्य है.

'बीमारों और लाचारों का ध्यान रखना चाहे वो किसी भी रंग, जाति या धर्म के हों, उनसे इतनी आत्मीयता और सहानुभूति से बात करना कि उन्हें दर्द का अनुभव न हो.' ये कुछ ऐसी बातें हैं जो एक नर्स को दिलाई जाने वाली शपथ के पहली पंक्तियों में शामिल हैं. लेकिन ये शपथ कागज पर लिखी लाइनों से ज्यादा कुछ नहीं, जिनके नीचे साइन करके सिर्फ भूल जाया जाता है.

कहते हैं प्रसव पीड़ा सबसे कष्टकारी होती है, लेकिन स्वास्थ्य कर्मियों के इस व्यवहार से होने वाली पीड़ा के सामने गर्भवती महिलाओं को प्रसव पीड़ा भी कम लगती है. ऐसा व्यवहार निंदनीय है और ये भी दर्शाता है कि प्रजनन और महिलाओं को लेकर हमारे समाज की सोच कितनी घटिया है.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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