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Updated: 16 मार्च, 2017 05:28 PM
दमयंती दत्ता
दमयंती दत्ता
 
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कबूल करना है कुछ, मुझे. मैंने एक ऐसे शख्स से प्यार किया जिसका नाम भी नहीं मालूम. मुझे जानने की परवाह भी नहीं. इसे श्प्यार्य न कहें, यह महज सेक्स था. मैं दफ्तर की ओर से दौरे पर एक छोटे शहर में गई थी. वह होटल का वेटर था. उसने पूछा कि मुझे किसी चीज की जरूरत है? मैंने स्पा और मसाज की जरूरत बताई. उसने खुद को ही पेश किया. मैं कुछ परेशान-सी थी. उसने मुझे खुश कर दिया. मुझे यह देखकर और भी ज्यादा खुशी तब हुई जब मैंने उसे इसके लिए 1,000 रु. दिए तो उसका चेहरा खिल उठा.

यह मेरा पहला कबूलनामा नहीं है. पहला कबूलनामा मैंने अपने दोस्तों नहीं, कुछ युवा महिलाओं के सामने पिछले महीने किया था. वे भारतीयों के सेक्स रुझान को समझने के लिए इंडिया टुडे के सेक्स सर्वेक्षण की खातिर सवालों की फेहरिस्त लेकर मुझसे मिली थीं. 17 शहरों में करीब 4,000 पुरुष और महिलाओं में से ''कभी विवाह न करने वाले" कुछ 400 लोगों में से एक, मैंने चुपचाप उस सवाल के आगे सही का निशान लगा दिया कि ''कभी आप ऐसे के साथ हमबिस्तर हुई हैं जिसका नाम भी नहीं मालूम?" मेरा यह राज अब छप गया है- सर्वेक्षण में एक अनाम संख्या के रूप में और डिजिटल रूप में यह हमेशा मौजूद रहेगा.

मुझे देखिए. मैं अकेली नहीं हूं. मैं हर 3 वयस्क भारतीय महिलाओं में 1 हूं जो सड़क पर किसी रॉकस्टार की तरह सोचती हैं कि एक रात हमबिस्तर होने में कुछ भी गलत नहीं. मेरे हर 7 शहरी लोगों में एक ऐसा है जो ऐसे के साथ हमबिस्तर हुआ है जिसका नाम उसे नहीं मालूम. मैं आदमी के उस गोपनीय अनुभव की समूची सक्रियता को जान लेना चाहती हूं जिसे सेक्स कहा जाता है. ऊपर से हम सामान्य दिखते हैं मगर अंदर हम क्या महसूस करते हैं, यह अलग ही कहानी है. भारत के इस नए दौर में अपने पाखंड में मसरूफ स्त्री-पुरुषों में हमें देशभर में कई अंधी खाइयां दिखती हैं. देश इससे कितना परिचित है?

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वह साल 2003 था

वह नई सहस्राब्दी का तीसरा साल था. अचानक सेक्स की बातें हवा में छाने लगीं. कामसूत्र की इस धरती की सामूहिक चेतना में उसमें वर्णित प्यार करने के 300 से ज्यादा तरीके हमेशा उत्सुकता पैदा करते रहे हैं. नई सहस्राब्दी की देहरी पर यौवन से भरे देश में यौन संबंधों को लेकर बढ़ती सार्वजनिक चर्चाएं एक ''नए गैर-मासूमियत भरे दौर" की दस्तक की तरह थीं. इस चर्चा के केंद्र में थी स्त्री काम वासना से जुड़ी तरह-तरह की फंतासियां.

कम से कम इंडिया टुडे की संपादकीय टोली को यही लगा. पत्रकारों ने जब आधुनिक भारत में सेक्स संबंधी रुझानों को समझने की तलाश शुरू की तो उनकी नजर में स्त्रियां ही प्रमुख थीं. फिल्मों में चुंबन के 17 दृश्य, उत्तेजक म्युजिक वीडियो, टीवी पर रोमांस वाले धारावाहिकों, अखबारों-पत्रिकाओं में पेज 3 की चकाचौंध के बीच उन्होंने पाया कि ''नई स्त्री" की यह जमात स्कूल में लड़कों से बेहतर प्रदर्शन कर रही है, कॉर्पोरेट जगत में ज्यादा से ज्यादा अगुआई की भूमिकाओं में आने लगी है, अपने घर, कार्यस्थल और अपने यौन संबंधों को लेकर अपनी पसंद-नापसंद खुलकर जाहिर करने लगी है. बेझिझक अधिकारों की मांग करने लगी है और हरसंभव तरीके से अपनी संतुष्टि चाहती है.

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संपादकों ने इस नई साहसी दुनिया को परखने का फैसला किया. इस तरह शहरी भारतीय स्त्री के सेक्स रुझानों को समझने के लिए पहले व्यापक सर्वेक्षण की शुरुआत हुई. इसमें 10 शहरों में मध्यम और उच्च मध्य वर्ग की करीब 2,000 महिलाओं से बात की गई. झिझक और अनिश्चिततता के दायरे से गुजरते हुए सर्वेक्षण करने वालों ने आधुनिक भारतीय स्त्री को लोकलाज और आनंद, मर्यादा और जरूरतों के बीच झूलता पाया.

मैं महज आंकड़ा हूं

करोड़ों के इस देश में मैं महज एक अनजान आंकड़ा भर हूं. अपनी शेखी बघारने के तो बिल्कुल काबिल नहीं. मैं भारत की 58.7 करोड़ महिलाओं में से 7.14 करोड़ कार्यरत महिलाओं में महज एक इकलौती नारी हूं. मेरी सुध लेने के लिए पति, भाई या पिता कोई नहीं, मैं मनु के विधान को नहीं मानती और देश मेरा वजूद मंजूर नहीं करता. मेरे पास 250 ग्राम से अधिक सोना या जेवरात नहीं है. मैं वह आखिरी व्यक्ति हूं जिसे कोई बैंक कर्ज देना चाहेगा (बैंक वाले तो पैसा लौटाए बिना देश से भाग जाने वाले को ही कर्ज देना पसंद करते हैं).

मैं कोई बच्चा गोद नहीं ले सकती, सरोगेट मां नहीं बन सकती और अगर मैं किसी डोनर स्पर्म से गर्भ धारण करती हूं तो मेरे बच्चे का जन्म प्रमाण-पत्र हासिल करने से ज्यादा आसान एवरेस्ट चोटी की चढ़ाई पूरी करना होगा (करण जौहर नसीब वाले हैं कि उन्हें अपने अनाम जुड़वां बच्चों के लिए कम से कम इस हफ्ते जन्म प्रमाण-पत्र मिल गया). हां, इकलौती महिला होने के नाते तो मैं हैदराबाद में भव्य चारमीनार की ऊंचाई पर भी नहीं चढ़ सकती.

लेकिन मैं इस महत्वाकांक्षी देश में इस सहस्राब्दी का सबसे बड़ा बदलाव हूं. मैं स्कूल-कॉलेज की कक्षाओं में लड़कों को फीका कर देती हूं. प्रतियोगी परीक्षाओं में मैं अव्वल आती हूं. नियोक्ताओं से पूछिएः 10 आला उद्योगों में से 7 मुझे मेरे काम के प्रति निष्ठा, टीम भावना और राजनीति से दूर रहने के लिए पसंद करते हैं. मैं ड्राइविंग, पैसे का निवेश और बैंकिंग जैसे श्मर्दाना्य काम सीख चुकी हूं. मैं एक साथ कई काम कर सकती हूः कमाना, खर्च करना, सफर करना, चुनौती देना-झेलना और कामयाब होकर दिखाना.

सबसे बढ़कर मैं प्यार कर सकती हूं. मेरी मां की पीढ़ी तो दूसरों को सुख देने में ही गर्व महसूस करती थी. पर मैं बिना किसी कुंठा/झिझक के अपने सुख का ख्याल करती हूं. मैं इस 5,000 साल पुराने देश में प्यार, सेक्स, विवाह और रिश्ते की परिभाषा बदल रही हूं, जहां सरकारें उन प्राचीन पर्सनल लॉ के अन्याय और गैर-बराबरी को मिटाने में नाकाम रही हैं जो सभी समुदायों पर लागू होते हैं.

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गैर-मासूमियत का दौर

''गहरे प्यार में भी स्त्री कई पाटर्नरों के साथ हमबिस्तर होती है. पुरुष तो उनमें एक ही है. बाकी मौन, बेचैनी, कुंठा, नकार और अविश्वास वगैरह दूसरे होते हैं..." 10 शहरों में 2,305 महिलाओं से बातचीत के आधार पर इंडिया टुडे के पहले सेक्स सर्वेक्षण ''काम की कहानी" से ऐसा ही कुछ संदेश निकला था. लेकिन संपादकों को कुछ सही नहीं लगा. सवाल यह था कि क्या नए दौर की महिला से ''सेक्स क्रांति की लीडर और चीयरलीडर" बनने की उम्मीद नहीं है? फिर भी ज्यादातर महिलाएं ''नहीं जानते/कह नहीं सकते" के विकल्प के तहत लगभग हर सवाल पर अपने जवाब से बचती नजर आईं.

25 प्रतिशत ने तो यहां तक कहा कि उन्हें सेक्स से कोई मतलब नहीं. इस पूरे मसले को कलमबंद करने वालीं पत्रकार शेफाली वासुदेव ने लिखा, ''अगर आधुनिक स्त्री अपनी सेक्स फितरतों को असलियत से इतर बताती रहती है तो आशंका यह है कि वह महज कठपुतली बनकर रह जाएगी, उसके वश में उसकी जिंदगी नहीं, बस अधोवस्त्र रह जाएंगे."

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उस अंक से देश में तूफान खड़ा हो गया. धमकी भरी चिट्ठियों और फोन से संपादकों का जीना मुहाल हो गया. मानो इंडिया टुडे ने स्त्री यौनेच्छाओं के वर्जित क्षेत्र में पैर रख दिया था. प्रधान संपादक अरुण पुरी ने लिखा, ''सर्वेक्षणकर्ताओं को भाइयों और पतियों का गुस्सा झेलना पड़ा तो कई पाठक भी हमसे काफी नाराजगी जाहिर करते दिखे. ऐसा लगा कि हर किसी का एक गोपनीय जीवन है जिसे वह खोलना नहीं चाहता."

फिर भी वह अंक उस साल सबसे ज्यादा बिका. इससे दोहरेपन में यकीन करने वाले देश से परदा उठा, यानी अकेले में तो सेक्स में दिलचस्पी है मगर सार्वजनिक रूप से पाखंड का लबादा ओढ़े रहना है. इस तरह बंद दरवाजों के भीतर बेडरूम में और उसके बाहर प्यार, वासना और आकांक्षा को मापने का सालाना सिलासिला शुरू हुआ. इसमें महानगरों और छोटे शहरों में स्त्री और पुरुष, विवाहित या अकेले, किशोरवय से लेकर चालीसेक उम्र वाले सभी के रुझान जानने की कोशिशें होने लगीं.

सिलसिला सालाना हुआ, आंकड़े रुझानों में भारी बदलाव की कहानी बताने लगे. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में कुछ सतर्क रूढ़िवादिता से लेकर मौज-मस्ती की खुली चाहत भी उभरने लगी. आधुनिक विवाहों में पड़ रहीं दरारें भी खुलने लगीं. इन वर्षों में लगातार सेक्स सर्वेक्षणों के साथ नाराजगी भरी चिट्ठियां और फोन अब आने बंद हो गए हैं. जाहिर है, देश में लोग अब सामूहिक कबूलनामे, स्वीकार्यता और माफ करने को तैयार दिखने लगे हैं.

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अप्रत्याशित की उम्मीद

2004 के सर्वेक्षण (मर्द का मन क्या मांगे नया) में 18 से 55 वर्ष उम्र के बीच के करीब 3,000 मर्दों से बातचीत की गई तो 72 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अपनी दुल्हन का कौमार्य अक्षत होने की क्चवाहिश होती है. इस पर नाटककार और रंग निर्देशक महेश दत्तानी ने लिखा, ''मर्द अभी अपना मानसिक जी-स्पॉट ही नहीं ढूंढ पाया है, और औरतों का तलाश लेने का दावा करता है." आखिर 2005 में विवाह पूर्व सेक्स की बड़े पैमाने पर धड़कन सुनाई दी.

जब इंडिया टुडे ने ''अकेली औरत का नया काम" अंक निकाला तो 11 शहरों में 2,035 अकेली औरतों में 31 प्रतिशत ने कहा, ''मेरी लालसाओं को समझ पाने में उसकी नाकामी" ने मुझे दूसरे मर्द के साथ सेक्स करने पर मजबूर किया. उस साल अभिनेत्री खुशबू की पत्रिका के तमिल संस्करण में एक स्तंभ में इस टिप्पणी से तहलका मच गया कि ''कोई शिक्षित पुरुष अपनी पत्नी का कौमार्य अक्षत होने की उम्मीद नहीं पालता." इससे मानहानि के मुकदमों की बाढ़ आ गई. आखिर 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ सभी 22 मुकदमों को खारिज कर दिया. अदालत ने कहा कि वयस्क स्त्री-पुरुष अगर सहमति से विवाह पूर्व सेक्स करते हैं या लिव-इन रिश्ते में रहते हैं तो इसमें कानूनन कुछ भी गलत नहीं.

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2006 के सर्वेक्षण में 16-25 वर्ष आयुवर्ग के अविवाहित लड़कों ने यह खुलासा करके हड़कंप मचा दिया कि उनमें 37 प्रतिशत समलैंगिक सेन्न्स का अनुभव कर चुके हैं. 2007 के सर्वेक्षण में 11 शहरों में पुरुषों को विवाहेतर सेक्स के मजे की तलाश में पाया गया. 2008 के सर्वेक्षण में पुरुषों की पोर्नोग्राफी देखने की लत का राज खुला. 2009 में सेक्स की फंतासियों और वासनाओं पर जोर था. 2010 के सर्वेक्षण (महिलाएः कुछ और की इच्छा) में महिलाओं के मुखर होने की बात सामने आई.

44 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि अगर उनका पार्टनर बेवफा निकला तो वे खुलकर बोलेंगी. 22 प्रतिशत तो उससे कहेंगी कि ऐसा करने का अधिकार उन्हें भी है. 2011 के सर्वेक्षण में अपने पतियों से ऊब चुकी करीब 49 प्रतिशत पत्नियों ने दावा किया कि वे सिरदर्द का बहाना बनाकर सेक्स से इनकार कर देती हैं. 2012 के सर्वेक्षण में 58 प्रतिशत इससे सहमत थे कि सेक्स से भावना को अलग कर देना चाहिए. लेखिका और स्तंभकार इरा राजा ने लिखा, ''छोटे शहरों की औरतें अब अबला नहीं रहीं, वे खुद अपने सेक्स अधिकारों की हिमायत कर रही हैं." 2013 के सर्वेक्षण (महिलाओं का मन मांगे मोर) में पाया गया कि महिलाएं अपनी यौन इच्छाओं का खुलकर इजहार कर रही हैं.

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कार्यस्थल नए ठिकाने बन रहे हैं. 16 प्रतिशत महिलाएं सहकर्मियों के साथ कभी-कभार सेक्स के लिए भी खुली हुई हैं. समाज विज्ञानी संजय श्रीवास्तव ने बताया, ''शायद हम असाधारण सामाजिक और सांस्कृतिक मंथन के दौर को देख पा रहे हैं. अधिक से अधिक महिलाएं काम करने निकल रही हैं और सार्वजनिक स्थानों पर पहले से अधिक दिखाई दे रही हैं, वे सार्वजनिक ठिकानों में पुरुष प्रधानता को चुनौती दे रही हैं. लिहाजा, उन पर अनचाही नजरें भी उठती हैं." 2014-15 के सर्वेक्षण में 25 प्रतिशत किशोर-किशोरियों ने कहा कि स्कूल में ही उन्होंने सेक्स किया है. 2016 के सर्वे में आधुनिक विवाहों में पैसा मुख्य हो गया, इसलिए ''अविश्वास" घर करता जा रहा.

इस साल, जब भारतीय पुरुष और महिलाएं अपनी यौनेच्छाओं, भावनात्मक जरूरतों और फंतासियों के लिए खुलती जा रही हैं, हम रुझान में बदलाव को भांपने के अपने 15 साल के सफर की समीक्षा कर रहे हैं. सर्वेक्षण से पता चलता है कि भारतीयों की विशाल संख्या अपनी सेक्स जिंदगी से संतुष्ट है. लेकिन घर में खुशहाली की इस तस्वीर के बाहर भी बहुत कुछ है, स्त्री-पुरुष के बीच धारणाओं, व्यवहार और पसंद-नापसंद में काफी फर्क है जिससे कुछ पारंपरिक समझदारी की पुष्टि होती है तो कुछ मिथक टूटते हैं.

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क्या एक रात का संसर्ग आपके हिसाब से सही है? 35 प्रतिशत स्त्री-पुरुषों ने ''हां" में जवाब दिया. जाहिर है, यह भावनाओं से इतर कभी-कभार, अचानक सेक्स की तरफ तीखे रुझान का संकेत है. चिंताजनक यह भी है कि तकनीकी विकास का स्याह पक्ष-इंटरनेट, मोबाइल फोन से लेकर डेटिंग तथा हुकअप ऐप-लोगों की जाती जिंदगी को प्रभावित कर रहा है. ''क्या इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी देखने से आपका सेक्स जीवन प्रभावित हुआ है?" इससे 42 प्रतिशत पुरुष और स्त्रियां सहमत हैं. इसी वजह से स्त्री-पुरुष रिश्ते में ''अनचाहे या जबरन सेक्स" के मामले बढ़ रहे हैं? 25 प्रतिशत शहरी भारतीयों ने जवाब में ''हां" कहा.

तकरीबन एक हजार सवालों, 50,000 लोगों से बातचीत और 15 साल की अवधि के बाद शायद हम इस सवाल के जवाब के करीब पहुंच पाए हैं कि जब प्यार यौन संबंधों में बदलता है तो क्या होता है? आइए हमारे साथ उन भारी बदलावों के गवाह बनिए, जिसकी तलाश में हम पिछले 15 साल से आधुनिक भारत के बंद दरवाजों और बिस्तरों में झांकने की कोशिश में भारी उतार-चढ़ाव से रू-ब-रू हुए हैं.

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लेखक

दमयंती दत्ता दमयंती दत्ता

लेखिका इंडिया टुडे मैगजीन की कार्यकारी संपादक हैं.

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