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Updated: 03 अगस्त, 2016 05:43 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं बुलंदशहर गैंगरेप कांड से हर रोज दिल दहला देने वाली खबरें सामने आ रही हैं. एक ओर पूरा देश इस खबर से हिल गया, वहीं अब इस घटना पर राजनैतिक सरगर्मियां भी तेज होने लगी हैं. इस पूरे मामले में पुलिस कितनी मुस्तैद थी, इस बारे में तो पीड़ित पहले ही बता चुके हैं. आज पता चला कि सिर्फ पुलिस ही नहीं, बल्कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टर भी गैंगरेप जैसी अतिगंभीर घटना को लेकर कितने संवेदनहीन थे.

उस रात हाइवे पर करीब एक दर्जन दरिंदों ने मां-बेटी की इज्जत को तार-तार किया. तीन घंटे तक इन दोनों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. घटना से टूट चुके परिवार को जब सरकारी अस्पताल ले जाया गया तो वहां मौजूद महिला डॉक्टर ने पीड़ित मां-बेटी की बात का भरोसा नहीं किया.

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 महिला डॉक्टर ने पीड़ित मां-बेटी की बात का भरोसा नहीं किया

बलात्कार पीड़िता मां का कहना है कि ‘हमारे पूरे शरीर में चोटों के निशान थे, मेरी बेटी को ब्लीडिंग हो रही थी, लेकिन डॉक्टर ने हमारा विश्वास नहीं किया. उनका कहना था कि हम दर्द से कांप रही बेटी की कंडीशन को लेकर झूठ बोले रहे हैं.' उन्होंने ये भी कहा कि डॉक्टर ने असंवेदनशीलता का परिचय देते हुए सहमी हुई बच्ची से कहा कि 'चुपचाप कोने में बैठो'.

पीड़िता के देवर का कहना है कि 'महिला खुद भी सदमे में थी क्योंकि बेटी के साथ-साथ वो भी दरिंदगी की शिकार हुई थीं. ऐसे में डॉक्टर के रूखे व्यवहार से वो लोग बुरी तरह आहत हुए. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे डॉक्टर के इस व्यवहार पर क्या प्रतिक्रिया दें.'

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परिवार के पुरुष सदस्यों को बांधकर दरिंदों ने मार-पीट की और परिवार की दो महिला सदस्यों के साथ तीन घंटों तक ये घिनौना काम किया. मां-बेटी की चीखें सुनकर वो अंदर ही अंदर टूट रहे थे. जैसे-तैसे खुद को आजाद किया और 100 नंबर पर फोन लगाने पर फोन या तो बिजी आया या फिर नो रिस्पॉन्स. घंटों मिन्नतें करने पर पुलिस की टीम वहां पहुंची और जब पुलिस आई तो केस दर्ज करने के लिए भी मिन्नतें करनी पड़ीं क्योंकि पुलिस उनकी बात का भरोसा ही नहीं कर रही थी. ऐसा परिवार जिसके साथ होने को इतना कुछ हो गया वो पुलिस और डॉक्टरों के बुरे व्यवहार के लिए प्रतिक्रिया भी क्या देगा.

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हाईवे तो हैवानों के लिए हवस का मैदान बन गया है.

ज्यादातर रेप से जुड़े मामले में शुरुआत ही अजीब होती है. देश में हर रोज रेप होते हैं और पुलिस वालों के लिए हर घटना एक रूटीन घटना ही होती है. पहले तो उन्हें यकीन दिलाने के लिए संघर्ष करना होता है कि हां, वाकई में रेप हुआ है. फिर एफआईआर लिखने के लिए आनाकानी की जाती है. मिन्नतें करने पर एफआईआर लिखी जाती है. लेकिन बलात्कार हुआ कि नहीं इसका यकीन तो सरकारी डॉक्टर की रिपोर्ट को देखकर ही आता है. इसलिए कानूनन उन्हें जांच के लिए सरकारी अस्पताल भेजा जाता है.

इस मामले में वहां मौजूद महिला डॉक्टर ने भले ही सब काम कानून की हद में किया हो. लेकिन उनके इस व्यवहार ने डॉक्टरों के रवैये पर सवालिया निशान लगा दिया है. क्या कानून उन्हें असंवेदनशील होने और रूखा व्यवहार करने के लिए बाध्य करता है? क्यों ज्यादातर पीड़ित यही शिकायत करते हैं कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों का व्यवहार अच्छा नहीं था. क्यों कुछ डॉक्टर इतने पत्थर दिल होते हैं कि उन्हें बलात्कार पीड़िता के दर्द का अहसास नहीं होता? सांत्वना और प्यार के दो शब्द बोलने से भी डॉक्टर बचते हैं. जबकि ऐसे में संवेदना के दो बोल पीड़ितों के दर्द पर मरहम की तरह काम करते हैं. कहते हैं महिलाओं का दर्द महिला ही समझती है, लेकिन इस मामले में तो यही कहा जा सकता है कि दर्द कोई भी महिला समझ सकती है बशर्ते वो सरकारी अस्पताल की डॉक्टर न हो.

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जरा सोचिए उस वक्त वो मां-बेटी कितनी परेशानी और दर्द झेल रही होंगी. शरीर पर जो जख्म दिए वो तो फिर भी भर जाएंगे लेकिन जो जख्म मन पर हुए वो ताउम्र नहीं जाएंगे. मन के जख्मों को सरकारी नुमाइंदों का ये व्यवहार हमेशा यूं ही दुखाता है.

ऐसे में सवाल ये उठता है कि पुलिस और सरकारी डॉक्टरों का ये रवैया कितना उचित है? बलात्कार झेल चुकी महिला के लिए इस तरह का व्यवहार बलात्कार नहीं लेकिन उससे कम भी नहीं होता. बलात्कार करने वाले अगर दोषी हैं, तो फिर ऐसा व्यवहार करने वाले दोषी क्यों नहीं? यहां पूरे महकमे को दोषी नहीं ठहराया जा रहा, बल्कि उन पत्थर दिल लोगों से सवाल है कि सजा का कुछ हिस्सा क्यों उनके हिस्से में नहीं आना चाहिए?

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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