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Updated: 28 जून, 2017 05:14 PM
डी बोपन्ना
डी बोपन्ना
  @devayeah
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70 और 80 के दशक में हमारे माता-पिता के दिल और दिमाग में सिर्फ एक ही चीज़ होती थी, एक अच्छी नौकरी. वो नौकरी क्या होगी और किस तरह की होगी इस डिटेल का नंबर बाद में आता है. सबसे पहले बात सुरक्षित नौकरी की होती थी. क्योंकि हमारे माता-पिता की तरह हमारा देश भी एक नई वैश्विक व्यवस्था से रू-ब-रू हो रहा था.

देश में नौकरी की कमी थी और नौकरियों के मौके भी बहुत ही कम थे. ऊपर से नौकरी में पैसे भी बहुत कम थे. इसलिए धैर्य ने अब जुनून की जगह ले ली थी. इकोनॉमिक्स, जुनून पर भारी पड़ा था. परिवार का पालन-पोषण और उसकी रक्षा करने की जिम्मेदारी ने जुनून की जगह ले ली. लोगों को जो भी मिला, जैसा भी मिला उसे दोनों हाथों से लपक लिया. प्राथमिकता ली अपने परिवार को बढ़ाने से जुनून पर प्राथमिकता मिली आपने दोनों हाथों से पकड़ लिया.

Dhinchak Pooja, baba sehgal

भले ही जिंदगी भर गणित में कर्जदार रहे लेकिन फिर भी आपने बैंक की नौकरी को अपना लिया. भीड़ और लोगों से बातें करना आपको पसंद नहीं लेकिन फिर भी आप सेल्स की नौकरी करने को राजी हो जाते हैं. आपने फैक्टरी में नौकरी कर ली, हालांकि साइंस का रिएक्शन आपके पल्ले नहीं पड़ता था. आपको बच्चे पसंद नहीं लेकिन फिर भी आप टीचर की जॉब करने लगते हैं. जिस नौकरी को आप ताउम्र नफरत करते रहे उस नौकरी में अपना खुन-पसीना लगा देते हैं. जिस मैनेजर को आप फूटी आंख नहीं देखना चाहते पूरे 30 साल आप उसके रिटायर होने का इंतजार करते हैं. आपके लिए वही एक रास्ता बचा था, जॉब को लात मारना आपके बस की बात नहीं थी.

उस वक्त लोग सपनों की पीछे नहीं भागते थे बल्कि उन्हें सिर्फ महीने के अंत में मिलने वाले चेक से मतलब हुआ करता था. दुख तो इस बात का है कि वो छोटे सपने भी पूरे जोड़-घटाव और हिसाब-किताब के साथ होते थे. आपका सपना होता था एक दोपहिया वाहन खरीदने का, अपने बच्चों को एक अच्छे स्कूल में भेजने का, संडे को छप्पना भोग खाने का और हर सुबह अपनी कलाई को एचएमटी घड़ी से सजाने का. आपने केवल इन छोटी चीज़ों का सपना देखा है.

सिस्टम ऐसा बना होता था कि दुनिया में अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भी हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती थी. जी हां. जीना तो भूल जाइए सिर्फ अपने अस्तित्व के लिए इतनी जद्दोजहद करते थे. ऐसी कोई और जगह नहीं होती थी जहां अपने 'अन्य' प्रतिभाओं का आप प्रदर्शन कर सकें. न यूट्यूब था न ही फेसबुक. कोई अन्नु मल्लिक भी नहीं था जो इंडियन आइडल में आपको ब्रेक दिला सके. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितने टैलेंटेड हैं, सच्चाई यही होती थी कि आप अपनी जिंदगी में कभी वायरल नहीं हो सकते. तब सिर्फ एक ही जगह हुआ करती थी जहां आप अपने टैलेंट को लोगों के सामने रख सकते थे. लोगों से मिलने के समय, या किसी फैमिली जलसे में.

अगर आप अच्छा गाते हैं तो अंताक्षरी खेलते समय ही अपना ये टैलेंट दुनिया के सामने ला सकते हैं. यही वो इकलौत मौका होता था जब- बैठे-बैठे क्या करना है, तो प्रभु का नाम लेकर आप अपनी मीठी आवाज से लोगों को अवगत करा सकते थे. इसके बाद आपको चाहने वालों का पूरा एक हुजूम बन जाता था, जिसमें कुल-जमा 10-15 लोग हुआ करते थे. और ये फैन्स ही आपको रोजमर्रा की किचकिच और टेंशन से कुछ मिनटों के लिए आपको दूर करके खुश होने का मौका दिया करती थी.

अगर आप में गोविंदा और मिठुन दा जैसे डिस्को-डांसर की क्वालिटी है तो उसे लोगों को दिखाने के लिए पूरे एक साल इंतजार किया जाता था. मूर्ति विसर्जन के समय इस टैलेंट का दिल खोलकर आप प्रदर्शन करते थे. पियक्कड़ों और बच्चों की भीड़ के बीच अपनी जगह आप बना ही लेते थे. अगर आपको हंसी-ठिठोली पसंद थी तो अपने आस-पास के लोगों को हंसा कर संतुष्ट हो लेते थे. इससे ज्यादा ना कुछ होता था, न आप उम्मीद ही करते थे. लोगों को आप अपने चुटकुलों से पेट पकड़-पकड़कर हंसने पर मजबूर कर देते थे तो कोई आपको स्टैंड-अप कॉमेडियन का तमगा नहीं देता था बल्कि बहुत 'खुशमिजाज' बंदा है कहकर तारीफ करते थे.

अगर आपके प्राण फैशन डिजाइनिंग में बसते हैं तो इसमें हाथ आजमाने का मौका सिर्फ तभी मिलता था जब आप अपने बच्चों के फैंसी ड्रेस कॉम्पटिशन के लिए तैयारी कर रहे होते थे. कलाकारों के लिए बर्तन, बोतलें, प्लेट्स और ट्रे को कैनवास के रूप में पेश किया जाता था. और आपकी कला की प्रदर्शनी घर पर मेहमानों के आने के बाद ही होती थी.

लेकिन जिन लोगों की सबसे ज्यादा भद्द हालात होती थी वो थे, लिखने का शौक रखने वाले. उनका अपनी कला-शैली का प्रदर्शन करने का एकमात्र तरीका होता था, रिश्तेदारों और दोस्तों को चिट्ठियां लिखना. अपनी लेखनी की सारी विधाओं का प्रदर्शन सिर्फ एक रीडर पर वो न्योछावर कर देते थे और उसी एक पाठक के साथ ही उनकी सारी कलात्मकता खत्म हो जाती थी. हालांकि फिर भी वो खुश रहते थे. शायद ये अपने पैशन से उनका सच्चा प्यार ही होता था.

इसके बारे में सोचिए तो पाएंगे कि वास्तव में हम मध्यवर्गीय भारतीयों की वो पहली पीढ़ी हैं जो अपने जुनून और प्रतिभा को जी सकेंगे, उसको पूरा कर सकेंगे. अपनी पसंद का काम कर पा रहे हैं. अपने पैशन का कोर्स और पसंद का कॉलेज जा पाते हैं. इसके लिए हमारे से पहली पीढ़ी को हमें थैंक्स कहना चाहिए कि उन्होंने अपने पैशन को नहीं जिया.

यही वो आजादी, वो पैशन और वो हिम्मत है जो ढिंचैक पूजा, बाबा सहगल, वेनु मल्लेश और ताहेर शाह जैसे लोगों को मेरा रोल मॉडल बनाता है. इन सभी ने अपनी पसंद को पहचाना और पैशन को फॉलो किया, बिना ये सोचे कि दुनिया क्या कहेगी, लोग क्या सोचेंगे. उन्होंने ये किया क्योंकि वो ये करना चाहते थे. कम-से-कम ये हम जैसे लाखों लोगों से अच्छे हैं जो अपनी पसंद-नापसंद को जानने में ही पूरी जिंदगी बिता देंगे शायद. हमसे पहले की पीढ़ी ने ये चीज पाने के लिए कड़ी मेहनत की थी.

मैं आशा करता हूं कि हम अपनी क्षमताओं को अपनी कमजोरियों की वजह से बर्बाद कर देंगे. बल्कि हम भी बाहर निकलेंगे और वो करेंगे जो हम करना चाहते हैं. दुनिया क्या सोचेगी ये सोचे बगैर. कैसे करेंगे, लोग क्या कहेंगे या हम कैसे लगेंगे इसकी चिंता किए बगैर.

(लेखक के फेसबुक पेज से)

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लेखक

डी बोपन्ना डी बोपन्ना @devayeah

लेखक AIB में क्रिएटिव राइटर हैं

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