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Updated: 13 दिसम्बर, 2016 05:07 PM
आशुतोष मिश्रा
आशुतोष मिश्रा
  @ashutosh.mishra.9809
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भारत की पारंपरिक व्यवस्था कैश भरोसे ही रही है लेकिन नोटबंदी के बाद सरकार अचानक 130 करोड की आबादी वाले देश को कैशलेस अर्थवयवस्था में बदलना चाहती है. ऐसे में रातों रात इस बदलाव के लिए देश कितना तैयार है और कितनी तैयार है सरकार, इसका रिएलिटी चेक होना बेहद जरूरी है. और इसी का रिएलिटी चेक मैंने किया और ये जाना कि अगर मौजूदा व्यवस्था में जेब में कैश न हो तो क्या होगा?

घर से निकलते समय मेरे बटुए में 200 रुपए, मेरा डेबिट कार्ड, फोन में पेटीएम और यूपीआई का साधन मौजूदा था. सुबह अपने घर से निकलने के बाद मैंने साइकल रिक्शा की सवारी ली जिससे अपने अगले गंतव्य के लिए बस या मेट्रो तक पहुंचा जा सके.

बिहार के मधुबनी से आए नासिर दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं. मुझे पहाडगंज में नजदीकी बस स्टैंड पर उतारने के बाद जब मैंने उनसे कहा कि मेरे पास कैश नहीं और मैं उन्हें चेक के जरिए पैसे देना चाहता हूं, तो परेशान से नासिर ने कहा कि उनके पास बैंक खाता ही नहीं है इसलिए उन्होंने मुझसे कैश देने की दरखास्त की. 10 रुपए की उनकी मजदूरी मैंने उन्हे पेटीएम से देने की गुजारिश की लेकिन उन्हें पेटीएम का नाम भी नहीं पता. जाहिर है यूपीआई या किसी भी डिजिटल तकनीक के जरिए मैं उन्हे पैसे देने में असमर्थ था. ऐसे में या तो नासिर अपना नुकसान सहते या फिर मुझे किसी से उधार मांगना पडता. लेकिन यहां मेरी जेब में रखे कैश ने मेरा साथ दिया और मैं उन्हें उनका मेहनताना दे पाया.

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 रिक्शेवाले नहीं जानते डिजिटल तकनीक

आगे की यात्रा मुझे बस से करनी थी. अपने गंतव्य की बस में बैठ गया और कंडक्टर से 15 रुपए की टिकट लेकर मैंने उन्हें भी भुगतान चेक, पेटीएम या यूपीआई जैसे माध्यमों से करने का निवेदन किया. डीटीसी की सरकार बस के कंडक्टर के पास मेरे डेबिट कार्ड से भी भुगतान लेने की कोई व्यवस्था नहीं थी. उनका कहना था कि सरकार ने अभी तक कैश के अलावा किसी तरह के भुगतान का बंदोबस्त नहीं किया है. अब या तो मैं बस से उतार दिया जाता और पैदल ही कई किलोमीटर लंबी यात्रा करता या फिर किसी अजनबी के आगे हाथ फैलाता. संयोगवश मेरे बटुए के 200 रुपए ने मुझे बचा लिया.

दफ्तर के कामकाज से फुर्सत मिली दोपहर में, जब खाना खाने का वक्त होता है. भोजन के लिए नजदीक के ढाबे पर मैंने पहले ही पूछ लिया कि भुगतान किस तरह से होगा. लजीज तो छोडिए, मुझे बस पेट भर खाना देने के लिए भी ढाबा मालिक को कैश देना था. मैंने उन्हें डेबिट कार्ड, यूपीआई, पेटीएम और चेक के साथ तमाम रास्ते बताए और ये भी कहा कि सरकार अब देश में कैशलेस अर्थवयवस्था लाना चाहती है. ढाबा मालिक ने बडी विनम्रता से कहा कि ‘आप भोजन कर लीजिए और पैसे फिर कभी दे दीजिएगा’.

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जाहिर रोज का व्यापार करने वालों की कमाई पर नोटबंदी का बुरा असर पडा है. पेटीएम के बारे में पता था लेकिन इस्तेमाल की तैयारियां मुकम्मल नहीं थीं. फिलहाल मैंने उन्हे भी अपने बटुए से पैसे निकाल कर दे दिए.

शाम की चाय सुकूनभरी थी. युवाओं के चहल पहल वाले इलाके में चाय की उस दुकान के बाहर पेटीएम का नोटिस लगा हुआ था. नीरज की चाय के दुकान के बाहर नोटबंदी पर हर रोज चा़य पे चर्चा होती है और हर पहलू पर सरकार की तारीफ और आलोचना के बीच नीरज बताते हैं कि उनका व्यापार ठप पड गया है और कमाई 40 प्रतिशत तक गिर गई है.

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शाम का वक्त हुआ, काम खत्म कर घर जाने से पहले मैं चाहता था कि अगले सप्ताह के जरूरी खर्चों के लिए एटीएम से कुछ पैसे निकाल लूं. दर-दर ठोकर खाने के बाद कुछ एटीएम दिखे जिसके बाहर लंबी लाइनें थी. लोग मेरी तरह ही अपनी जरूरत के लिए पैसे निकालने के लिए घंटों से इंतजार कर रहे थे. लंबी लाइनों में खडे लोग भी सरकार की तारीफ और आलोचना करते दिखे.

लंबे के इंतजार के बाद मेरा नंबर आया और 2500 रुपए लेकर मैं अपने घर की ओर बढा. ऑटो की सवारी से घर पहुंचा और फिर शुरू हुई वही कहानी. पिछले एक साल में दिल्ली में ऑटो चला रहे रंजन के पास बैंक खाता ही नहीं था. ऐसे में डेबिट कार्ड, यूपीआई जैसे जरिए से भुगतान की बात भी बेमानी था. रंजन ने पेटीएम का नाम सुना था लेकिन भुगतान नहीं लेते.

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मैंने उनसे पूछा कि जनधन योजना से खाते खुले तो उन्होंने फायदा क्यों नहीं उठाया? कोई खास जवाब ना पाकर मैंने उन्हें कैश में भुगतान कर विदा किया.घर की सीढियां चढने से पहले रोज की जरूरत के अनुसार दूध और सब्जियां जरूरी थीं. अच्छी बात ये थी कि मदर डेयरी ने अब पेटीएम से भुगतान लेना शुरू कर दिया है. बात कहीं अटकी तो वो सब्जी वाले दुर्गा प्रसाद की दुकान पर. 120 रुपए की सब्जियों के बदले मैंने उन्हे भी चेक और तमाम डिजिटल पेमेंट के तरीके से भुगतान की पेशकश की. लेकिन तीसरी पास दुर्गा राजी नहीं हुए. रोज की बिक्री में 50 प्रतिशत तक के घाटे का हवाला देते हुए उन्होंने मुझे उधार देने से भी मना कर दिया. अपनी जरूरतों को कम नहीं कर सकता था इसलिए मैंने उन्हें भी अपने बटुए से कैश का भुगतान किया.

एक आदमी की दैनिक जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में समझ में आता है कि कैसे सरकार ने बिना तैयारियों के सारे मौजूदा व्यवस्था को पंगु बना दिया है. कुछ समर्थन के साथ तगड़ा विरोध भी है. मौजूदा व्यवस्था में ढांचागत बदलाव के बिना जनता को मजबूर कर दिया गया. पारंपरिक व्यवस्था रातों रात नहीं बदलती. नोट की कमी से रोजमर्रा की जिंदगी पटरी से उतर गई है. बद से बदतर होते हालात ये आम आदमी की जिंदगी भी प्रभावित हुई है. ऐसे में सरकार ने जल्दी ही कुछ नहीं किया तो जनता धैर्य खो सकती है.

लेखक

आशुतोष मिश्रा आशुतोष मिश्रा @ashutosh.mishra.9809

लेखक आजतक में संवाददाता हैं

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