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Updated: 03 जून, 2017 10:51 AM
रिम्मी कुमारी
रिम्मी कुमारी
  @sharma.rimmi
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हम ऐसे देश में रहते हैं जहां इंसान की बात रहने दीजिए उसके जान की कीमत भी पद, पैसा और पहचान से तय होती है. अच्छे पद पर हैं, पॉकेट में पैसा है और रसूखदार लोगों से पहचान है तो फिर जीते जी ही नहीं मरने के बाद भी इज्जत नसीब होती है. और अगर किस्मत के तारे गर्दिशों में अपनी पर्मानेंट सीट बुक करा कर आए हैं तो जीते जी तो कीड़े-मकौड़े की तरह रहेंगे ही मरने के बाद भी शायद इज्जत मयस्सर ना हो.

आए दिन गरीबों के साथ होने वाली ज्यादतियों की खबरें टीवी और अखबारों की सुर्खियों का हिस्सा बनती रहती है. लेकिन सबसे दर्दनाक बात ये कि बीमार लोगों के लिए उम्मीद की आस माने जाने वाले अस्पतालों में भी लोगों के साथ जानवरों से बदतर व्यवहार होता है. प्राइवेट हॉस्पीटल की बात तो भूल जाएं, सरकारी अस्पतालों में भी गरीबों के लिए किसी तरह की संवेदना नहीं होती. इसका ताजा उदाहरण कर्नाटक और बिहार में फिर से दिखी.

कर्नाटक के शिमोगा स्थित मेगन अस्पताल में एक बुजुर्ग औरत को अपने बीमार पति के लिए स्ट्रेचर नहीं दिया गया. जिसकी वजह से मजबूरन उस औरत को अपने पति को फर्श पर ही घसीटकर ले जाना पड़ा. ये देखकर अस्पताल में मौजूद लोगों ने ये देखा तो हंगामा करना शुरू कर दिया. जिसके बाद महिला को स्ट्रेचर मुहैया कराया गया.

दूसरी घटना बिहार के मुजफ्फरपुर की है. यहां के श्री कृष्णा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल से सटे पार्क में दो दिनों से एक महिला की लाश पड़ी हुई थी. उसकी लाश को सफाई कर्मचारियों ने कूड़ा उठाने वाली गाड़ी में डालकर फेंक दिया. बताया जा रहा है कि महिला बहुत बीमार थी और पिछले कुछ दिनों से अस्पताल के चक्कर लगाते हुई दिखती थी. अस्पताल प्रबंधन ने न तो महिला की लाश के पोस्टमार्टम में कोई दिलचस्पी दिखाई न ही उसके अंतिम-संस्कार का कोई प्रबंध किया.

इसके पहले पिछले साल सितम्बर में रांची के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल रांची इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में अस्पताल प्रबंधन की ऐसी ही असंवेदनशीलता दिखी थी जब यहां एक मरीज को फर्श पर ही खाना परोस दिया गया था. हॉस्पीटल के किचन स्टाफ का कहना था कि उनके पास प्लेट नहीं हैं इसलिए उन्होंने ऑर्थोपेडिक डिपार्टमेंट में एडमिट फूलमती देवी को दाल, चावल और सब्जी फर्श पर ही परोस दिया.

Ranchi, Karnatka, Bihar, Hospitalमरीज से ये सलूक

इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह का न तो ये पहला मामला है न ही आखिरी, न तो ऐसा आज पहली बार हुआ है न ही अंतिम बार. लेकिन इंसान को इंसान समझने की समझ को हमने कहां मारकर दफन कर दिया है ये सोचने वाली बात है. जिंदा इंसान को इज्जत नहीं दे पाए कम-से-कम मुर्दों के साथ तो संवेदनाएं रखते. ऐसा माना जाता है कि जिसकी मृत्यु हो जाती है उसके बारे में कुछ बुरा नहीं बोलना चाहिए. लेकिन हम तो असंवेदनशीलता के इस स्तर पर आ गए हैं कि मरने के बाद अस्पताल तक में लाश का अंतिम संस्कार तो छोड़िए, परिजनों को एम्बुलेंस तक की सेवा नहीं दी जाती.

ऐसे व्यवहार से हम किस तरह के समाज की रचना कर रहे हैं ये ठहर कर सोचने की जरुरत है. क्योंकि न तो रोम एक दिन में बना था, न ही हमारे अंदर का इंसान एक दिन में मरा और सोच एक दिन में इतनी घटिया हुई.

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लेखक

रिम्मी कुमारी रिम्मी कुमारी @sharma.rimmi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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