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Updated: 01 अक्टूबर, 2017 05:29 PM
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पार्टी विद डिफरेंस - ये कभी बीजेपी की टैगलाइन हुआ करती थी. अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप की भी अघोषित टैगलाइन ऐसी ही थी. जैसे जैसे वक्त बीतता गया दोनों ही पार्टियों ने ऐसा घालमेल किया कि ऐसी बातें बहुत पीछे छूट गयीं.

बीती बातों को भी कई बार वक्त बहुत अहम बना देता है. न कोई स्थाई दोस्त न स्थाई दुश्मन वाले राजनीतिक फॉर्मूले के पीछे भी यही थ्योरी काम करती है. ऐसे में साथ वाले दूर जाते नजर आते हैं और दूर किये जा चुके करीब लगने लगते हैं. आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के इर्द गिर्द भी कुछ ऐसा ही माहौल बन रहा है.

मंजिल एक, रास्ते अलग अलग

मंजिल एक होने के कारण ही अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव ने साथ मिल कर अपने सियासी सफर को आगे बढ़ाया. अभी कुछ ही दूर चले थे कि केजरीवाल के करीबी साथियों ने योगेंद्र यादव और आप के संस्थापकों में से एक प्रशांत भूषण को रास्ते से ही हटा दिया. बाद में योगेंद्र यादव ने स्वराज अभियान के जरिये अपना रास्ता बनाया और उस पर चलने लगे.

yogendra yadav, arvind kejriwalसमीकरण बदले या रिश्ते सुधरे?

जब दिल्ली में एमसीडी चुनाव हुए तो योगेंद्र यादव ने भी किस्मत आजमायी. चुनाव से पहले योगेंद्र यादव ने केजरीवाल को एक चिट्ठी लिखी थी. योगेंद्र यादव ने अपने ट्वीट में लिखा, 'दो साल में अरविंद को मेरा पहला पत्र. अगर एमसीडी चुनाव में आपकी पार्टी हारती है तो 'रिकॉल' के सिद्धांत के अनुसार इस्‍तीफा दें और दोबारा जनमत लें.'

यादव ने अपने पत्र में आगे लिखा, "दो साल पहले दिल्‍ली ने जो ऐजिहासिक जनादेश दिया था, वो किसी एक नेता या पार्टी का करिश्‍मा नहीं था. उसके पीछे हजारों वोलंटीयरों का त्‍याग और तपस्‍या थी. लेकिन इस करिश्‍मे का सबसे बड़ा कारण था दिल्‍ली की जनता का आत्‍मबल. जनलोकपाल आंदोलन ने दिल्‍ली के लाखों नागरिकों को यह भरोसा दिलाया कि वो बेचारे नहीं हैं. वो नेताओं, पार्टियों और सरकारों से ज्‍यादा ताकतवर हैं. आज मैं उस आत्‍मबल को डगमगाते हुए देख रहा हूं."

जब नतीजे आये तो मालूम हुआ केजरीवाल और योगेंद्र यादव दोनों की किस्मत दगा दे गयी. केजरीवाल उससे पहले पंजाब, गोवा और राजौरी गार्डन का उपचुनाव भी हार चुके थे. बाद में केजरीवाल के उम्मीदवार को बवाना में जीत जरूर हासिल हुई. आपसी संवाद भले कायम रहा हो, सार्वजनिक तौर पर को कोई बात सामने नहीं आयी.

अलग होने के बावजूद दोनों के विरोध के टारगेट कॉमन रहे हैं - बीजेपी और कांग्रेस, दोनों से ही दोनों का विरोध बरकरार है.

एक दूसरे को सख्त जरूरत है

विरोध का टारगेट कॉमन होने के बावजूद केजरीवाल और योगेंद्र यादव लड़ाई अलग अलग लड़ते रहे. अब 5 अक्टूबर को अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव एक मंच पर साथ नजर आने वाले हैं. ये मंच सिविल सोसायटी के लोगों द्वारा खड़ा किया गया है गौरी लंकेश की हत्या और गोरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं के खिलाफ. आम आदमी पार्टी और स्वराज अभियान दोनों ही इस विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बने हैं.

किसी खास मुद्दे पर ही सही दोनों का साथ आना यूं ही नहीं माना जा सकता. राजनीति में मंचों का साथ भी पब्लिक के लिए बड़ा मैसेज होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो विपक्ष के जमावड़ों में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एक दूसरे से बचते नहीं देखे जाते. लालू की रैली से भी कई नेताओं का दूरी बनाने की यही वजह रही.

अब सवाल ये है कि क्या वास्तव में केजरीवाल और योगेंद्र यादव फिर से करीब आ रहे हैं? अगर ऐसा हो रहा है तो इसकी पहली वजह क्या हो सकती है?

ये तो साफ है कि आम आदमी पार्टी में अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया है. कपिल मिश्रा अभी केजरीवाल के कट्टर दुश्मन बने हुए हैं. कुमार विश्वास इसी प्रकरण में हाशिये पर जा चुके हैं. अगर खुद कुमार विश्वास का अपना कद नहीं होता तो ठिकाना कहां होता कहना मुश्किल है. हालांकि, कपिल मिश्रा ने जब केजरीवाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये तो कुमार विश्वास और योगेंद्र यादव दोनों ने ही दावे पर यकीन न होने की बात कही. एक खास बात और. केजरीवाल विपक्षी खेमे में कहीं भी फिट नहीं हो पा रहे हैं. योगेंद्र यादव के साथ भी तकरीबन वही हाल है. बतौर चुनाव विश्लेषक उनका खासा सम्मान रहा है, लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत आप के निकाले हुए नेता से ज्यादा नहीं बन सकी है. लिहाजा वो भी किसी विपक्षी में नहीं जा पा रहे हैं. ऐसे में देखें तो दोनों ही एक दूसरे के लिए खासे उपयोगी हो सकते हैं. वैसे भी दोनों को एक दूसरे की सख्त जरूरत भी है.

केजरीवाल की सक्रियता बताती है कि वो आप को विस्तार देना चाहते हैं. अगर पार्टी का विस्तान मुमकिन नहीं लगता हो तो गठबंधन के लिए भी तैयार नजर आ रहे हैं. हाल ही में केजरीवाल ने चेन्नई जाकर फिल्म अभिनेता कमल हासन से मुलाकात की. कमल हासन अपने राजनीतिक इरादे जता चुके हैं और उन्हें भी दिल्ली में अपना आदमी चाहिये. कमल हासन ने पहले ही साफ कर दिया है कि वो किसी पार्टी के साथ नहीं जाने वाले. पंजाब चुनाव से पहले नवजोत सिंह सिद्धू के केजरीवाल के साथ आने की खूब चर्चा रही. दोनों के बीच कई दौर की मुलाकातें भी हुईं, लेकिन बात नहीं बनी और सिद्धू कांग्रेस के साथ चले गये.

वैसे भी सियासत में गुजरते वक्त के साथ सिर्फ समीकरण बदलते हैं रिश्ते नहीं - क्योंकि राजनीति समाज का हिस्सा होकर भी उससे इतर व्यवहार करती है.

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