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Updated: 15 फरवरी, 2017 06:51 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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पश्चिम यूपी की चुनावी जंग में सिर्फ दो रंग छाये हुए थे, पूरब की लड़ाई में पूरा इंद्रधनुष नजर आने वाला है. पश्चिम में सिर्फ जाट और मुस्लिम वोटों का असर देखा गया, पूरब में जाति, धर्म औक वोटकटवा दलों के अलावा हवा का रुख ही साफ और तय करेगा कि अगली बयार किसके पक्ष में बहने जा रही है.

वैसे तो यूपी में अभी पांच चरणों के चुनाव बचे हुए हैं, लेकिन तीनों दावेदार ये मान कर चल रहे होंगे कि आधी लड़ाई तो दो चरणों में ही खत्म हो चुकी है, इसलिए आगे चल कर जीत हार का फैसला भी इसी से तय होने वाला है.

दो के बराबर पांच!

यूपी में कुल सात फेज में होने वाले चुनावों में 11 और 15 फरवरी कहने भर को महज दो फेज हैं, लेकिन इन दो के नतीजे आने वाले पांचों पर बीस पड़ सकते हैं. पहले फेज के 73 और दूसरे चरण में 67 सीटों के साथ अब 140 सीटों पर उम्मीदवारों की किस्मत के बटन दबने के बाद डिब्बों में बंद हो चुके होंगे. इन मुस्लिम बहुल 140 सीटों पर 2012 में सबसे ज्यादा सीटें समाजवादी पार्टी के खाते में गईं. 42 सीटों के साथ बीएसपी दूसरे नंबर पर रही जबकि बीजेपी को 21 मिले. अकेले दम पर 8 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस इस बार समाजवादी गठबंधन का हिस्सा है तो अजीत सिंह की आरएलडी थक हार कर 'एकला चलो रे...' के साथ किस्मत आजमा रही है.

बीजेपी ने तो किसी मुस्लिम नेता को टिकट नहीं दिया, लेकिन 140 में से 26 ऐसी सीटें हैं समाजवादी गठबंधन और बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवार आमने सामने मुकाबले में हैं.

up-voters_650_021517043921.jpgवोट बोलता है...

मुस्लिम विधायकों के मामले में भी 2012 में बीएसपी, समाजवादी पार्टी से पिछड़ गयी थी. पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी के 16 मुस्लिम विधायक चुनाव जीते तो बीएसपी के सिर्फ 11 मुस्लिम उम्मीदवार ही विधानसभा तक पहुंच पाये. तब कांग्रेस के भी दो मुस्लिम उम्मीदवार विधायक बने थे. इस बार बीएसपी ने यहां समाजवादी पार्टी के 49 और कांग्रेस ने 9 मुस्लिमों को टिकट दिया है. मायावती ने केवल 43 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. दरअसल, मायावती ने स्थानीय समीकरणों को ध्यान में रख कई इलाकों से जाट उम्मीदवार भी उतारे हैं.

इस फेज में वोटिंग वाले 11 जिले हैं सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, खीरी, शाहजहांपुर और बदायूं जिनमें विधानसभा की 67 सीटें आती हैं. इनमें भी छह जिले ऐसे हैं जहां फैसला काफी हद तक मुस्लिम वोटों के हाथ है जिनमें समाजवादी गठबंधन 25 और बीएसपी 26 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों की मदद से सत्ता की दूरी कम करने की कोशिश में है.

दूसरे चरण के चुनाव में वैसे तो बीजेपी और बीएसपी के कई बड़े नेता मैदान में हैं लेकिन जिन पर सबसे ज्यादा नजरें हैं, वे हैं समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी - मुरादाबाद सदर से आजम खां और स्वार विधानसभा सीट से उनके बेटे अब्दुल्ला आजम खां.

मन की बात?

हाल फिलहाल मायावती का एक बड़ा बयान आया है जिसमें उन्होंने चुनाव हार जाने पर विपक्ष में बैठने की बात की है. वैसे तो मायावती ने ये बात उस आरोप की सफाई में दी है जिसमें नंबर कम होने पर वो सत्ता के लिए बीजेपी से हाथ मिला सकती हैं. वैसे भी गुजरे दौर में मायावती बीजेपी से दो बार हाथ मिला चुकी हैं - और गाहे-बगाहे अखिलेश यादव उस चर्चित रक्षा बंधन का जिक्र करना नहीं भूलते.

मायावती चुनावी राजनीति में हमेशा एक्सपेरिमेंट करती रहती हैं और इसी के तहत कभी उन्होंने समाजवादी पार्टी से तो कभी बीजेपी से हाथ मिलाया तो कभी दलित और ब्राह्मणों को लेकर सोशल इंजीनियरिंग का कामयाब नुस्खा भी पेश किया. इस बार वो अपने दम पर दलित-मुस्लिम गठजोड़ का एक्सपेरिमेंट कर रही हैं और तीन प्रमुख दावेदारों में सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट बांटा है.

अब तक मायावती डंके की चोट पर मुस्लिम समुदाय से कहती रही हैं कि वे समाजवादी पार्टी को सपोर्ट कर अपना वोट बर्बाद न करें - क्योंकि सिर्फ वही हैं जो बीजेपी को सत्ता तक पहुंचने से रोक सकती हैं. अमूमन कोई भी नेता खुद की स्थिति जानते हुए भी ऐसे बयान नहीं देता जिसमें हार शब्द का जिक्र भी हो. हर रोज आते सर्वे और वोटों के बढ़ते परसेंटेज ने मायावती को कोई मैसेज तो नहीं दिया? कहीं मायावती के मन में वाकई कुछ और तो नहीं चल रहा है - उनके समर्थकों के मन में ये सवाल उठ सकता है. हां, इन समर्थकों में दलित बिलकुल नहीं होंगे - उन्हें ऐसी किसी भी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता.

2012 में बीएसपी को 67 विधानसभा सीटों में से 18 पर कामयाबी मिली थी. वैसे तो मायावती ने पश्चिम की ही तरह पूरब में भी मुस्लिम वोटों के लिए खास इंतजाम किये हैं, लेकिन क्या पता वोट देने वाले के मन में क्या है?

लड़कों के हाव भाव!

'यूपी के लड़कों' की बॉडी लैंग्वेज गौर करने लायक है. प्रधानमंत्री मोदी के लगातार निजी हमलों के बावजूद दोनों के दोनों काफी कूल नजर आ रहे हैं. खासकर अखिलेश तो कुछ ज्यादा ही, क्योंकि चेंज के बावजूद राहुल गांधी शब्दों पर भले ही काबू पा लें लेकिन आवाज और चेहरे पर गुस्से को नहीं रोक पा रहे.

वैसे तो अखिलेश अक्सर ही रैलियों में पूछा करते रहे कि - अच्छे दिन कहां हैं?

rahul-akhilesh-press_021517044144.jpg"बताओ... बताओ... अच्छे दिन..."

हाल की रैलियों में मोदी अखिलेश को लेकर कुछ ज्यादा हमलावर हो गये हैं. मोदी कुंडली से लेकर धमकाने वाले अंदाज में बोलने लगे हैं. यहां तक कि मोदी के बाद बीजेपी नेता अब अखिलेश को जेल तक भेजने की बात करने लगे हैं.

इतने सब के बावजूद अखिलेश उस तरह नहीं रिएक्ट करते जैसे लालू ने मोदी बेटों और बेटी को सेट करने वाले बयान पर या नीतीश ने डीएनए में खोट पर किया था.

क्या वोटिंग के दो फेज तक सत्ता के दावेदार दलों के नेताओं के हाव भाव भी कुछ इशारा कर रहे हैं? आखिर किसी के चीखने-चिल्लाने और किसी के चुपचाप हंसते हुए जवाब देने को किस रूप में देखा जाना चाहिये. इस पैरामीटर में वे लोग शामिल नहीं हो पाते जिन्हें लिखा हुआ पढ़ने की ही आदत हो. दूसरे फेज की 67 सीटों पर 2012 में समाजवादी पार्टी को 34 और कांग्रेस को तीन सीटों पर कामयाबी मिली थी - और दोनों इस बार साथ साथ हैं.

इतना कनफ्यूजन क्यों?

पहले चरण के चुनाव वाले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बदायूं में थे - और कुछ ही दूरी पर पीलीभीत में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह थे. बदायूं की रैली में मोदी ने आरोप लगाया कि यूपी के सीएम अखिलेश यादव उनके भाषण की नकल करने लगे हैं - वो उन्हीं की तरह पब्लिक से सवाल-जवाब करने लगे हैं.

अमित शाह जब मंच पर पहुंचे तो 'भारत माता की जय' बोले. भीड़ ने भी 'जय' कहा तो शाह बोले - 'ऐसे नहीं'. शाह ने समझाया कि ऐसे बोलो कि लगे कि परिवर्तन का आक्रोश है. इतना जोर से बोलो कि आवाज मोदी जी तक पहुंचे.

पहले चुनावी सभाओं में इसी तरह के 'आक्रोश' की बात राहुल गांधी किया करते थे, हालांकि, अपनी जबान में वो 'गुस्सा' बोलते और इजहार करते रहे. खैर, कौन किसकी नकल कर रहा है ये सबको दिखाई दे रहा है, ये मान कर तो चलना ही चाहिये - "है कि नहीं?" इससे भी बड़ी बात शाह ने एक सवाल पूछ कर किया? बिलकुल मोदी स्टाइल में. वैसे अमित शाह का मोदी स्टाइल में कुछ कहना नकल तो माना नहीं जाएगा - वो तो अपने नेता को ही फॉलो कर रहे थे.

team-modi_650_021517044217.jpgआखिर बोलता क्या है?

बहरहाल, वो सवाल जो अमित शाह ने पूछा - 'चौबीस घंटे बिजली आती है क्या?'

पहले चुनाव में मोदी पूछा करते थे - 'लोग पूछते हैं बिजली आई क्या?'

मालूम नहीं लोगों की बात मोदी तक पहुंची की नहीं, लेकिन ऐसा जरूर लगा कि अमित शाह के मन की बात मोदी जरूर सुन लिये. बदायूं की सभा में भी मोदी ने बिजली की बात की. 'आजादी के 70 सालों के बाद भी 18 हजार गांव ऐसे थे, जहां आज भी बिजली नहीं थी. आजाद भारत में ये सबसे बड़ा कलंक था. मैंने कहा 1000 दिनों के भीतर बिजली पहुंचानी है, ये काम पूरा हो गया. अकेले यूपी में 1500 गांव ऐसे थे जहां बिजली नहीं थी.'

समझने वाली बात ये है कि अमित शाह ये मान कर चल रहे हैं कि बिजली तो आने लगी है फिर पुराना सवाल दोहराना ठीक नहीं होगा - इसलिए वो सवाल मॉडिफाई कर वो 24 घंटे की बात करने लगे. मालूम नहीं उनका सवाल मोदी के दावों पर रहा या अखिलेश यादव के विकास को लेकर.

ऐसा क्यों सुनाई पड़ रहा है जैसे शाह कहते हों - 'काम बोलता है' - और मोदी - 'काम नहीं कारनामा बोलता है.'

2012 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को दूसरे चरण की 67 में से 10 विधानसभा क्षेत्रों में जीत हासिल हुई थी.

तीसरे चरण में 19 फरवरी को लखनऊ सहित 12 जिलों की 69 सीटों पर वोट डाले जाने हैं जिसमें कुल 826 कैंडिडेट मैदान में होंगे.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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