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Updated: 27 फरवरी, 2017 10:38 PM
मौसमी सिंह
मौसमी सिंह
  @mausami.singh.7
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चुनाव के मौसम में एक समुदाय है जो नेताओं से ज़्यादा नहीं तो उनके बराबर व्यस्त रहता है. जी हां, वो दर्जनों टीवी चैनल के पत्रकारों की फ़ौज... जो माइक आईडी लेकर, झोला टांगे, कोल्हापुरी चप्पल में या तो नाइकी के डुप्लिकेट जूतों में एक्सक्‍लूसि‍व की तलाश में फ़ेरी लगाते रहते है.

उत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल में रिपोर्टिंग करना किसी बॉलीवुड पिक्चर में अदाकारी करने से कम नहीं. रिपोर्टर के सामने बड़ी चुनौतियां हैं जो रावण के सर की तरह हर रोज़ मुंह बाए खड़ी हैं. इस लेख में मैं आपको रिपोर्टर का दर्द-ए-दिल का हाल बयान करने जा रही हूं.

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सुपर एक्सक्लूसिव की खोज

हरदोई में भाजपा के मेगा सुपरस्टार मोदी एक रैली में लोगों को संबोधित करके मंच से उतरे ही थे की एकाएक पलट कर बोले... अरे मौसमी क्या हुआ? तुम उस दिन आगरा में नज़र नहीं आई? मैं मीडिया के बैरिकेड के पास एक दम सन्न खड़ी थी... मैंने उनको देखा पर चुप थी. आसपास खड़े मीडियाकर्मी मुझे घूरने लगे. कुछ बोलने के लिए मैंने मुंह खोला तो उससे पहले मोदी जी बोले चलो कोई बात नहीं, मैं अपना वादा नहीं भूला अब ले लो इंटरव्यू, पुछो क्या पूछना है?

वो मेरे ठीक सामने थे, मेरे हाथ में माइक था. उस क्षण वो इतना भरी हो गया की मै अपना हाथ उठा नहीं पा रही थी. मेरे माथे से पसीने की बूंदे गिर रही थी और होट रेत की तरह सूखें थे. मैं बोलना तो चाहती थी पर गले में मानो किसी ने पत्थर रख दिया हो. मोदी जी दो सेकंड और रुके ..बगल में खड़े पत्रकार आपस में खुसपुस कर रहे मुस्कुरा रहे थे... फिर देश के पीएम और मेरा सुपर एक्सक्लूसिव दोनों पलट कर चले गए.

एकाएक मेरे गाल पर ज़ोर का थप्पड़ पड़ा ..और आंख खुली तो देखा कि होटल रूम की टीवी पर न्यूज़ चल रही थी. तो जनाब एक्सक्लूसिव का दबाव बड़ा ज़ालिम होता है ...कुछ इसी तरह के मुंगेरीलाल के हसीन सपने मेरे जैसे रिपोर्टर की रातों की नींद हराम करते रहते है.

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निरंतर चार्जिंग मोड

इसमें कोई दो राय नहीं की रिपोर्टर चैनल की आंख-कान-नाक है, इसके बावजूद चैनल की कवरेज में रिपोर्टर की भूमिका परदे के सामने लगातार कम हो रही है. अगर वो चैनल पर चमकना चाहते हैं तो उनको कुछ अजब गजब करतब करने पड़ते हैं. जैसे सोते हुए भी जागो, सदैव फोन उठाओ. धुप, गर्मी, सर्दी में चैनल की लाइव विंडो में बने रहो. देहरादून से दिल्ली और रात भर में लखनऊ के लिए उड़ जाओ. पदयात्राओं और रोड शो में विपक्षी समर्थकों को भिड़ायें या खुद ही भिड़ जायें. कभी भी ना ना कहो, सदैव तत्पर, सदैव सेवा में उबलब्ध रहो. तब आपकी टीआरपी कुछ बढ़ेगी वरना आप नकरात्मक रवैये के लिए 'ऑन एयर' के अकाल से ग्रस्त हो सकते हैं.

यही नहीं मतदान वाले दिन समझ लीजिए अमृत बेला में उठने के लिए वो रात भर अलार्म की चाभी भरते हैं. फिर ताज़ा तरार दिखने के लिए साज सज्जा करते हैं. ठीक 6 बजे लाइव रिपोर्टिंग के लिए किसी मतदान केंद्र में खड़े पाये जायेंगे ये प्राणी. उसके बाद आपका अन्नदाता है स्टूडियो में बैठा वो एंकर जो कप्तान की तरह आपसे कैचम कैच खेलेंगा. सुबह 7 बजे लाइव पर दिखने की सबसे ज़्यादा संभावना होती है उसके बाद असीम सम्भावनाओं के समुंदर में वो दिन भर गोते लगाते रहते हैं.

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रियल लाइफ एक्शन

चुनावी कार्यक्रम में अक्सर फ़िल्मी ड्रामा होता रहता है. जैसे इलाहबाद में राहुल-अखिलेश का मंच गिर गया, तो अमेठी में बीजेपी के ज़िला अध्यक्ष ने कांग्रेस प्रतयाशी के पक्ष में नारेबाज़ी कर दी, रायबरेली मे बीजेपी की प्रतियाशी ने कथित तौर पर खुद पर फाइरिंग करवाई, तो गौरीगंज के सपा प्रत्याशी का वोटरों को नुक्सान पहुचाने की धमकी का वीडियो वायरल हो गया. अब सुनिए हमारे साथ क्या हुआ...अमेठी में हम रामलीला मैदान में अखिलेश यादव की जन सभा के कवरेज के लिए पहूंचे. पुलिसवालों को थोड़े मान मनुव्वर, ज़्यादा कहानी पढ़ाने के बाद हम मंच के पीछे चुप्पे से खड़े हो गए. अखिलेश यादव को यहीं से आना था. मंच पर प्रजापति रोने लगे तो लगा ये लो क्या बेवकूफी की पीछे आकर खड़े होने की... एक बढ़िया विज़ुअल तो मिस हो गया.

इस दौरान एक महिला पुलिसकर्मी हमारे इर्द गिर्द भिनभिनाती रही. जब अखिलेश सभा खत्म कर के वहां खड़ी फ़ोचयूनर गाड़ी में बैठेने लगे तो मैं फट से आगे बढ़ कर उनसे ज़ोर-ज़ोर से इंटरव्यू देने की मांग करने लगी. उसी वक्त वो महिला पुलिसकर्मी मुझे कमर से पकड़ कर खींचने लगी, पर मेरा पूरा ध्यान मछली की आंख यानी अखिलेश पर था.

सीएम ने शीशा नीचे किया और बोले 'हैली पेड पर आ जाओ...' फिर वो चल पड़े. मेरे पास ज़्यादा समय नहीं था ....उनका काफिला निकल पड़ा था. पर मैं उस जगह से हिल नहीं पा रही थी क्योंकि वो लेडी पुलिस ने अपनी गिरफ्त में मुझे जकड़ा हुआ था. उसके आक्रामक तेवर की वजह से ज़्यादा चिंता थी की सीएम साहब हाथ से निकलते जा रहे है.. सो मैंने भी जोर से पलटी खाई, धक्का मुक्के हुई, कुछ खींचातानी और अगले क्षण मैं और कैमरामैन भाग रहे थे और पीछे पुलिसवाले चिल्ला रहे थे. गेट से बाहर निकले तो सीएम का काफिला दूर पहोंच गया था. मैंने इधर उधर नज़र दौड़ाई तो लोगों की भीड़ थी और दफ्तर के गाड़ी बहुत दूर खड़ी थी. एक नौजवान अपनी मोटर साईकिल चालू कर रहा था.

मैंने कहा भइया हेलीपैड पर छोड़ दोगे तो बोला बैठो दीदी मै ले चलता हूं. बस फिर क्या था...तीनों मोटरसाइकल पर सवार थे. आगे आगे अखिलेश का काफिला पीछे पीछे हम. वहां पहूंचे तो अखिलेश भी ताज्जुब में आ गए की मैं इतनी जल्दी कैसे धमक पड़ी. तो इतने क्लाइमेक्स के बाद मिला हमे उत्तर प्रदेश के सीएम का इंटरव्यू.

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रिपोर्टर साहब कहिन

अब जब चप्पे चप्पे पर संवाददाता मोर्चा संभाल रहे हैं तो उनसे अपेक्षा की जाती है की उनके पास भविष्यवाणी करने का हुनर हो. चलिए मान लेते हैं जब अलग-अलग जगह जाते हैं तो माहौल का अंदाज़ा तो लगता है. पर अक्सर रिपोर्टर अपने विश्लेषण को ब्रम्ह वाक्य समझने लगते हैं. इस विश्लेषण के लिए चाय की दूकान चाहिए या फिर किसी गाँव का चबूतरा या फिर बाजार का चौराहा.

इन जगहों पर इंटरव्यू करने के लिए दाढी वाले मौलाना हो, या तिलकधारी बाबा, एक युवा ज़रूर होना चाहिए, बड़े बुज़ुर्ग और महीलाओं की राय ज़रूरी है. भले ही देश की सियासत में कोई उन्हें ना पुछे पर रिपोर्टर को देखने में साफ़ सुथरे टीवी फेस की बड़ी तलाश होती है. फिर दफ्तर से जब फोन आता है प्रत्याशियों का ब्यौरा लेने के लिए तो अक्सर रिपोर्टर वही राग अलाप देता है जो उसने औरों से सुना। चलिये जाने दीजिये कुछ तो चैनेल की इंद्रियां भी काम करेंगी और फिर घोर मुकाबले में जब सब आंकने-हांकने में लगे है तो रिपोर्टर क्यों चुप रहे.

अगर रिपोर्टर शायर होता तो क्या ग़ज़ल लिखता अपने तमन्नाओं को बेधड़क लिखता. खैर जाते-जाते रिपोर्टर की कहानी एक शायर की जुबानी सुन लीजिये 'हूं इस कूचे के हर ज़र्रे से वाकिफ, यहाँ मुदत्तो से आया गया हूं'. खुदा हाफिज !

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लेखक

मौसमी सिंह मौसमी सिंह @mausami.singh.7

लेखिका आज तक में विशेष संवाददाता हैं.

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