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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 22 सितम्बर, 2016 01:04 PM
स्नेहांशु शेखर
स्नेहांशु शेखर
  @snehanshu.shekhar
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जम्मू-कश्मीर के उरी में रविवार को जो आतंकवादी हमला हुआ, उसको लेकर उठा कोहराम अभी शांत नहीं हुआ है. शांत होगा भी नहीं, क्योंकि 26 साल के बाद आर्मी के ट्रांजिट कैंप पर एक बड़ा हमला हुआ, जिसमें 18 जवान शहीद हुए. मामला संवेदनाओं और भावनाओं से जुड़ा है, लिहाजा सूचना के तमाम तंत्र सक्रिय है. वीडियो, मैसेज, वीर-रस की कविताएं, ओज भरे भाषण-बयान सब सुनने को मिल रहे हैं. मीडिया की मानें तो युद्ध की एकमात्र विकल्प रह गया है और युद्ध हुआ तो पाकिस्तान ध्वस्त. मोदी ने हमला कर दिया तो 56 इंच की छाती की लाज बच जाएगी, नहीं तो कायर होने का सर्टिफिकेट तय. विपक्ष, कुछ विशेषज्ञ, कुछ मीडिया वैज्ञानिक सर्टिफिकेट लेकर तैयार भी हैं, करो, नहीं तो सर्टिफिकेट ले लो. हालांकि, यह भी तय है कि युद्ध या हमले जैसी कोई स्थिति नहीं है, लेकिन कुछ ठोस कार्रवाई हो, इसे लेकर कोई दो-राय नहीं.

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मैं पिछले दो-तीन दिनों से शहीदों के परिवारों की राय देख रहा था और जब उसकी तुलना मीडिया पर बैठे विशेषज्ञों और ओपिनियन मेकर से की तो लगा कि बुनियादी सोच में ही कितना फर्क है. जिसने अपना पिता, पति या पुत्र खोया, क्या उनके दुख से भी ज्यादा दुखी हैं राजधानी में बैठे ये ओपिनियन मेकर और विशेषज्ञ. ये कौन है, जिन्होंने अपना पति, पिता या पुत्र खोया. कैमूर, पीरो, गया, जौनपुर, बलिया, गुमला, गंगासागर, नासिक, यवतमाल के किसी सुदूर गांव में बसने वाले ये परिवार ऐसे हैं, जिनमें से अधिकतर ने परिवार में इकलौता कमाने वाले को खोया है. ये परिवार आधुनिकता की चमक-दमक से दूर ऐसे इलाकों में बसते हैं, जहां विकास की रोशनी आजादी के 60-65 सालों के बाद भी सही मायनों में नहीं पहुंच पाई है. इनकी जिंदगी और सोच देश की राजधानी में बैठे संभ्रात विशेषज्ञों से बहुत जुदा है, इसीलिए सोच में फर्क लाजिमी भी है.

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एक पिता तो ऐसे हैं, जिन्होंने पहले एक पुत्र को खोया, अब इस घटना में अपने दूसरे पुत्र को भी खो दिया. सांबा में शहीद रविपाल का पुत्र 10 साल का है, पर वह डॉक्टर बनना चाहता है और अपने पिता के सपनों को पूरा करने के मकसद के जज्बे से जीना चाहता है. वह डॉक्टर बनना चाहता है. गया का जो जवान सुनील विद्धार्थी शहीद हुआ, उसकी तीन बेटियां है. जवानों की शहादत पर जब देश के भावुक विशेषज्ञ टीवी चैनलों पर छाती पीटने में व्यस्त थे, मारो-काटो का नारा लगा रहे थे, उधर, गया में पति की मौत की सूचना मिलने के बाद भी पत्नी ने अपनी तीनों बेटियों को परीक्षा देने के लिए भेजा, वे परीक्षा में भी शामिल हुईं और उनका सपना है कि वे अपने पिता के सपनों को पूरा करें. एक जवान का शव गांव पहुंचा तो उसके भाई ने कहा कि वह भी सेना में भर्ती होना चाहता है, ताकि वह अपने भाई का बदला ले सके. यह भाई ऐसे माहौल में इस तरह की बात कह रहा है, जब घर में मातम पसरा है.

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ऐसी कहानियां या भावनाएं पहली बार देखने की नहीं मिली, जब भी इस तरह की घटना देखने को मिली, जवानों के गांव-परिजनों की यही भावनाएं देखने को मिली हैं. उन जज्बातों की तुलना संभव नहीं है कि जब गांव में जवानों के पार्थिव शव पहुंचे और देशभक्ति और भारत माता की जय नारों की गूंज चारों तरफ सुनाई दे रही थी, लेकिन ऐसे में कुछ ऐसे भी है, जो मीडिया कैमरों के सामने पाकिस्तान के झंडे जलाएंगे, मारो-काटो के नारे लगाएंगे, ड्राइंग रूम में बैठकर सरकार-सिस्टम को कोसेंगे, पर सामने सड़क पर किसी लड़की पर चाकुओं से गोदकर हत्या की जा रही हो, तो बचाकर गाड़ी किनारे से निकाल ले जाएंगे. यूं वॉट्स एप पर देशभक्ति की तस्वीरें-कविताओं की झड़ी लगा देंगे, पर सड़क हादसे में कोई सड़क पर तड़प रहा हो, तो उसी स्मार्ट फोन से पुलिस या एंबुलेंस को फोन नहीं कर पाते, ताकि समय पर पीड़ित को मदद मिल जाए. और विशेषज्ञ तो विशेषज्ञ हैं ही, वे तो उन परिस्थितियों पर भी अपना ज्ञान झाड़ देंगे.

अब जम्मू-कश्मीर पर मानसून सत्र के दौरान चार बार बहस हुई, सर्वदलीय यात्रा भी हुई, उसी सर्वदलीय टीम से कुछ लोग हुर्रियत वालों का मान-मनौव्वल भी करने गए. ऐसे लोग से पूछो तो सीधा जवाब मिलेगा, कि राजनीतिक हल ढूंढो, पर पूछो कि यह राजनीतिक हल क्या और कैसे हो, तो जवाब मिलेगा कि यह तो सरकार को तय करना है. मुद्दा थोड़ा राजनीतिक हो जाएगा, लेकिन जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक हल निकालने की बात करने वालों को यह जवाब पहले देना होगा, कि उनके इस राजनीतिक हल का दायरा शिमला समझौते के दायरे में आता है या उससे इतर है. साथ ही, जम्मू-कश्मीर को लेकर जो दो प्रस्ताव संसद में पारित हुए है, उससे वह सहमत हैं भी या नहीं.

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राहुल गांधी कहते हैं कि इवेंट मैनेजमेंट से लड़ाइयां नहीं जीती जाती. सही भी है, युद्ध कोई इवेंट मैनेजमेंट का विषय तो है नहीं. जब कारगिल का युद्ध हुआ, उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में जो भाषण दिया था, वह गौर करने वाला था. वाजपेयी ने कहा था कि मैंने ही कविता लिखी थी कि "जंग नहीं होने देंगे", लेकिन कारगिल जैसी परिस्थितियां खड़ी हो जाए तो उन्हीं भावनाओं पर नहीं जिया जा सकता. हम बस लेकर लाहौर गए, तब भी सवाल खड़े किए गए कि क्यों गए, न जाते तो सवाल पूछे जाते कि संबंध सुधारने की कोशिश क्यों नहीं की गई. हमसे संयम बरतने की बात कही जाती है, लेकिन संयम को कमजोरी नहीं समझी जानी चाहिए." जो चुनौती वाजपेयी के सामने थी, आजादी के बाद कमोवेश यह स्थिति हर सरकार के सामने रही. वाजपेयी ने संसद में कहा था कि जब वह लाहौर गए, तब वे मीनार ए पाकिस्तान भी जाना चाह रहे थे, तब कुछ लोगों ने उन्हें वहां न जाने की सलाह दी थी, बावजूद इसके, वह वहां गए, क्योंकि वह इस धारणाओं को खारिज करना चाहते थे कि भारत ने विभाजन को स्वीकार नहीं किया है. वाजपेयी ने संसद को बताया कि उन्होंने स्वयं मुर्शरफ को कहा कि देश का विभाजन भारत के खत्म हो चुके अध्याय की तरह है, लेकिन क्या पाकिस्तान ने विभाजन को स्वीकार किया कि नहीं, यह सवाल कायम है.

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करगिल युद्ध के समय पर सवाल खड़े किए गए थे, ये सवाल संसद हमले के समय भी उठे, बाद में यूपीए सरकार में मुंबई पर हुए हमले के दौरान भी सवाल उठे, बेंगलूरु, जयपुर, दिल्ली, मुंबई में बम धमाकों के दौरान भी आवाजें उठी. अब राहुल गांधी भी जानते हैं कि मोदी भले ही इवेंट मैनेजमेंट करते हैं, पर मुंबई हमलों से पहले मनमोहन सरकार तो किसी इवेंट मैनेजमेंट में नहीं लगी थी. तब मनमोहन सिंह ने संसद में बयान दिया था, "विश्व भारत से धैर्य और संयम से काम लेने की सलाह दे रहा है और अब तक हमने संयम से काम लिया लेकिन मुंबई घटना के जिम्मेदारों को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. हमें एक राष्ट्र के तौर पर अपने को संगठित करना पड़ेगा, ताकि हम वह हासिल कर सके जो हासिल करना चाहते हैं." लेकिन सवाल उठ सकता है कि आखिर तब क्या मिला, क्या पाकिस्तान भारत द्वारा दिए गए तमाम सबूतों, डॉजियर का स्वीकार कर लिया. आज शशि थरूर सवाल खड़े कर रहे हैं कि सरकार बताए कि चार आतंकवादी ऊरी में कैसे घुस आए, अब 13 सितंबर, 2008 में दिल्ली में जो सीरियल धमाके हुए, उसके कर्ता-धर्ता तो यही दिल्ली के एक कोने में ही बैठकर साजिश रच रहे थे, साजिश को अंजाम भी दे दिया और जब स्पेशल सेल में जवाबी कार्रवाई में एनकाउंटर किया तो दिग्विजय और खुर्शीद टाइप नेता अब तक उसे फर्जी करार देने पर तुले है. हालांकि यह सच है कि इसके पीछे तथ्य कम, उनकी राजनीतिक मजबूरी ज्यादा थी.

वास्तविकता यही है कि देश में आतंकवाद के नाम पर राजनीति ही होती आई है. हमने जेएनयू में अफजल पर ड्रामा देखा, तब उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तौर पर पेश किया था. उससे पहले देश ने यह भी देखा कि किस तरह याकूब मेनन की फांसी को रोकने के लिए कार्यकर्ता आधी रात तक सुप्रीम कोर्ट में जद्दोजहद कर रहे थे. बाटला की चर्चा पहले ही की जा चुकी है. देश ने भगवा और इस्लाम आतंकवाद की बहस भी देख ली, लेकिन जब यह चर्चा कर रहे होते है तब शहीदों की परिवारों का दर्द, उनकी वेदना, उनका आक्रोश ध्यान में नहीं आता. तब यह तबका भूल जाता है, इन परिवार की संवेदनाओं को और तब जेएनयू के कन्हैया जैसे रिसर्चर का भाषण सुनने को मिलता है कि दसवीं पासकर, ग्रेजुएशन कर जब नौकरी नहीं मिलती तो लोग भाग-दौड़कर पुलिस-सेना में भर्ती हो जाते है. वाकई फर्क सोच का ही है.   

लेखक

स्नेहांशु शेखर स्नेहांशु शेखर @snehanshu.shekhar

लेखक आजतक चैनल के एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं.

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